Negative Attitude

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Monday, November 16, 2015

टनाटन चुनावी मॉडल - अच्छे दिन और सबका साथ और सबका विकास

हमारे वज़ीरेआज़म वेफिक्र हो एक बार फिर विदेश दौरे पर निकल पड़े है. जिन जिन घटनाओ पर ब्रिटेन में साझा प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने विदेशी मीडिया से संवाद स्थापित किया और उनके प्रश्नो का उत्तर दिया, ये वही प्रश्नावली थी जिनको हमारे वज़ीरेआज़म साहब ने घटना के दरम्यान न तो अपने देश की मीडिया को तबज़्ज़ो दिया और न ही विपक्ष को जिसके जरिये देश की मुखिया होने के नाते इन मुद्दो पे जनता उनकी राय समझ सके.वो प्रत्येक घटना के लिए विदेश जाकर जनता या मीडिया से संवाद करना चाहते है वो भी सुक्ष्म रूप में.. ज्यादा जिरह न हो! जब माननीय प्रधानमंत्री महोदय देश में रहते है तो आतंरिक मामलो में उनकी घिघी लगभग बंद ही रहती है.


जो लोग उनके विदेश यात्रा के दरम्यान होने वाले समझौता ज्ञापन या समझौते से उनके चुनावी संकल्पो की संवेदनशीलता के प्रति कार्य प्रदर्शन का आंकलन कर रहे है,उनको इस बात का ख्याल होनी चाहिए की दुनिया भर के प्रत्येक राष्ट्राध्यक्षों के यात्राओं में समझौता ज्ञापन या समझौता उनके तयशुदा यात्रा कार्यक्रम का हिस्सा होता है ताकि उनकी सरकारी यात्रा प्रभावशाली कहा जा सके.ये कोई चमत्कार नहीं वल्कि इसकी रुपरेखा किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के यात्रा पूर्व पारस्परिक समझ के साथ लगभग तैयार की हुई रहती है!


देश में जनता महंगाई से बेहाल है,टीपु सुल्तान का मुद्दा उबल रहा है,नाथूराम गोडसे की 66वीं बरसी सुर्ख़ियो में है और असहिष्णुता के विरोध में नेशनल अवॉर्ड लौटाए जा रहे है लेकिन हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री इन मुद्दो पर सैद्धांतिक तौर पर चुप्पी साधे हुए है और अगर कुछ बोले भी है तो वह भी विदेश में! हमारे प्रधान मंत्री चुनावी रैलियों में स्टार प्रचारक के रूप में इस तरह के मुद्दो पर बढ़ चढ़ कर विरोधियों पर प्रहार करते है लेकिन इन्ही मुद्दो पर प्रधानमंत्री के रूप में जब मीडिया या जनता उनकी राय जाननी चाहती है तो यह उनके पद के मानक पर या तो तुच्छ लगता है या फिर विपक्ष की उनके प्रति साज़िश। शायद ये कटुसत्य है की चुनावी वक्तव्य और सत्तासीन होने के कर्त्तव्य दो अलग अलग पहलु है जिसमे पहला जनता से त्वरित लाभ लेने के लिए और दूसरा अपनी कुर्सी की आयु बढाने के लिए उपयोग किया जाता है.


उनके टीम के सदस्यगण जनता को यह बताने में व्यस्त रहते है की देश में अच्छे दिन चल रहे है,ये सब तो विपक्ष की साज़िश है जो उनके विदेश दौरे और रॉकस्टार शो की कड़ी मेहनत को धूमिल करना चाहते है. वर्ना देश आजादी के बाद पहली बार विकास की राह पर है क्योकि हमारे प्रधानमंत्री ज्यादातर विदेशी यात्राओं में मशरूफ रह रहे है.


एक जमाना था जब कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता नहीं वल्कि नॉन बैंकिंग कम्पनीआं कम समय में चमत्कारिक व्याज दर के जरिये अच्छे दिन दिखाकर न जाने कितने लोगो को चुना लगाया,कितने बर्बाद हो गए पर अच्छा दिन दूर दूर तक दिखाई नहीं दिया। आज के राजनैतिक परिवेश में कमोवेश यही हाल है जिसमे अच्छे दिन के चुनावी जुमलों के संलयन के साथ सत्ता विरोधी लहर का माहौल बना समय सीमा के साथ अच्छे दिन और विकास की खयाली लाटरी बेच पहले तो पांच साल के लिए सत्ता सुनिश्चित कर लो और फिर अगर बाद में कोई इसका हिसाब मांगे तो पिछले साठ साल का हवाला दे त्रिया चरित्र करना शुरू कर दो.जनता श्रद्धा सबुरी वाली है और पांच साल में न जाने कितने ऐसे मौके मिलेंगे जिसमे जनता को कंफ्यूज किया जा सकेगा. है ना टनाटन चुनावी मॉडल - अच्छे दिन और सबका साथ और सबका विकास!


पिछले डेढ़ वर्ष से देश के तमाम मध्यम वर्गीय या काम आय वाले लोग महंगाई के बोझ से इस क़द्र दबे है मानो है हम सभी भारतवासी स्वार्थी लोकतंत्र के ग़ुलाम है.... कुछ भी हो ये मेहनतकश लोग है न,विकास के नाम पर जब तब मालगुजारी लाद दिया जाएगा इनपर!!!

Tuesday, November 10, 2015

बिहार चुनाव 2015- किये हुए कार्यो के प्रत्यायक की जीत

जीत की अनुभुति के लिए किसी प्रकार का नारा या स्लोगन की आवश्यकता नहीं होती है, ये तो एक ऐसा सुखद अहसास है जिसमे जीवन की तीक्ष्ण से तीक्ष्ण कड़वाहट भी निष्क्रिय हो जाती है. बिहार चुनाव २०१५ कोई ऐसी घटना नहीं थी जिससे ये समझा जा सके की यह तो महज लोकतंत्र  की व्यवहारिकता है जो हर पांच वर्ष में दोहराया जाता है! यह चुनाव सिर्फ दो ही समूहों में बटा था एक समूह जो नए वादों के जरिये जनता का समर्थन चाहते थे और दुसरा समूह अपने किये हुए वादों को पुरा करने के प्रत्यायक के साथ जनता का समर्थन मांग रहे थे. एक तरफ राजनीतिज्ञ अपनी चिरपरिचित चुनावी शैली के अनुसार यानी तुच्छ जुमलों,अपने प्रतिद्वंदियों को निचा दिखाना,नफ़रत एवं तिरस्कार को तसदीक़ करना आदि के सहारे जनता को अव्यवस्थित कर उनका वोट हासिल करने का प्रयास कर रहे थे तो वही दुसरी तरफ जनता इन तमाम घटनाक्रमों का साक्षी बन उनके संकेतो का मुल्यांकन कर रही थीं की किसको सत्ता सौपना है!

२०१४ लोकसभा चुनाव में किसी राजनैतिक विचारधारा की नहीं वल्कि चमत्कारी लोकलुभावन वादो की जीत हुई थी और वह भी असाधारण एवं ऐतिहासिक! और इस असाधारण एवं ऐतिहासिक विजय के पास ऐसी किसी भी प्रकार की प्रत्यायक नहीं थी जिसके अनुसार बिहार चुनाव २०१५ में जनता को समर्थन के लिए  मजबूर कर सके! विजय या पराजय की वजहों पर मीडिया या चुनावी विश्लेषक चाहे जितना भी मंथन करे,कितना भी गणित लगा ले परन्तु इस बार की बिहार के चुनावी बाजार समिति में लोगो ने लोकलुभावन वादों के जगह पे पुरे हुए वादों को जारी रखने के संकल्प और निश्चय को ख़रीदा है! २०१४ लोकसभा में परिवर्तन,विकास,सबका साथ और सबका विकास जैसे दिव्य विचारो ने पुरे हिंदुस्तान का दिल जीत लिया था और इसके लिए सत्तासीन पार्टी को किसी भी प्रकार के चुनावी गणित के आगे नतमस्तक नहीं होना पड़ा था. विचार और वादे ऐसे थे जिसने लोगो को इससे जुड़ने पर वाध्य कर दिया था लेकिन विजय ने जीत के कारकों को अपनी स्मृति से इस क़दर दरकिनार किया की मानों जीत ही उनके राजनैतिक जीवन की स्वाभाविक पारितोषिक है जो परिस्थितियां चाहे जैसी भी हो प्राप्त होती ही रहेगी!

इस बार बिहार के मतदाता ने राजनीतिज्ञों के द्वारा प्रसारित प्रत्येक वक्तव्यों का गहन मूल्यांकन कर मतदान किया है और राजनीतिज्ञों के लिए जनता के तरफ ये एक ज़ोरदार सन्देश है की आप जो वादे चुनाव में करते है उन्हें पुरा करे और उसके प्रत्यायक के साथ यह भी स्पष्ट करे की भविष्य में आप क्या करेंगे तभी हम आपके गणित के भागीदार बनेंगे…बिहार के मतदाताओं ने समर्थन के इस मापदंड को बिलकुल स्पष्ट रखा था जो चुनाव परिणाम में महागठबंधन के विशेष योग्यता के साथ बहुमत के साथ स्पष्ट तौर पर दिखाई भी देता है.…और 2015 चुनाव में बिहार की जनता का इस परिपक्व सोच के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा होनी चाहिए।

श्री नीतीश कुमार जी के नेतृत्व में नयी ऊर्जा के साथ नयी संघीकरण वाली सरकार बनने जा रही है और उनके और उनके साथियो के वक्तव्यों से साफ़ पता चलता है की वे बिहार के विकास को जारी रखने के उनके संकल्प और निश्चय के प्रति संवेदनशील है और जनता के उम्मीदों पर वह इस बार भी खरा उतरेंगे!

जीत या हार किसी भी प्रतियोगिता का अभिन्न अंग है.कहते है की किसी भी प्रकार की जीत में कई हीरो होते है लेकिन हार या पराजय का अगर तटस्थता एवं ईमानदारी के साथ सामना किया जाए तो यह भविष्य के कई हीरो के जननी के रूप में उभरती है! और इसीलिए जीत का जश्न मानाने से ज्यादा जरुरी है उसे विनम्रता के साथ स्वीकार करना और अपने कर्तव्यो का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना! 


शुभ दीपावली!

Monday, November 9, 2015

नसीहत के साथ बधाई...

[ ABP News-Sunday, 08 November 2015 05:35 PM:-
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख श्री राज ठाकरे ने महागठबंधन के नेताओं श्री नीतीश कुमार और श्री लालू प्रसाद को बधाई दी और कहा ‘‘यह क्षेत्रीय अस्मिता, विकास एवं सामाजिक न्याय की जीत है. उन्होंने यह भी कहा कि बिहार का विकास इतनी तेजी से होना चाहिए कि बिहारियों को महाराष्ट्र एवं अन्य राज्यों में न जाना पड़े। ‘‘दूसरे राज्यों में काम करने वाले सभी बिहारियों को अपने राज्य लौटने की इच्छा जरूर रखनी चाहिए.’’ ]


माननीय श्री राज ठाकरे जी भारत के लोकसभा चुनाव में विजयी हुए किसी प्रधानमंत्री को दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष अपने बधाई सन्देश में यही बयान एवं नसीहत दे की १) ‘‘भारत का विकास इतनी तेजी से होना चाहिए कि भारतवासियों को अन्य देशों में न जाना पड़े’’ २) ‘‘दूसरे देशो में काम करने वाले सभी भारतीयों को अपने देश लौटने की इच्छा जरूर रखनी चाहिए’’तो दुनियाभर के २०३ देशों रह रहे लगभग २ करोड़ 85 लाख अप्रवासी भारतीयों और भारतवासियों को कैसा महसूस होगा ? हमारे प्रधानमंत्री दुनियाभर में चक्कर लगाये चल रहे है की विदेशी पूँजीपतियों को भारत में निवेश के लिए पटाया जा सके और अगर वही पूँजीपति हमें यह नसीहत दे की आप अपना विकास अपने बलबुते कीजिये तो हमारे देश या प्रधानमंत्री की क्या गरिमा रह जायेगी? माननीय श्री राज ठाकरे जी,जरा सोचिये की भूमंडलीकरण के इस युग में आपके इन विचारो से क्या सामाज कल्याण या विकास संभव हो पायेगा?

Saturday, November 7, 2015

असहिष्णुता

असहिष्णुता या धार्मिक असहिष्णुता कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिसको किसी एक प्रांत से जोड़ कर देखा जाए वल्कि ये तो एक राष्ट्रीय स्तर का लोकप्रिय राजनैतिक मसला है.इस मुद्दे पर अब तक अति विशिष्ट व्यक्ति या उनका समुह सोशल मीडिया के जरिये अपनी राय का इज़हार कर रहे थे तो सुर्खिया बनती तो थी लेकिन वो अल्पकालिक हो शांत हो जाती थी लेकिन आज जब उसका विरोध राष्ट्रीय ख्याति को अस्वीकार कर हो रहा है तो सरकार इसको राष्ट्रविरोधी गतिविधि जैसा मान रही है?

लोकतंत्र है तो विपक्ष भी होगा और विरोध भी होगा लेकिन अगर इस मुद्दे पर भी असहिष्णुता हो तो इसका मतलब हुआ की आप देश की संवैधानिक व्यवस्था का विरोध रहे है. कलाकार अगर राजनीती करता है तो इसमें कोई वैचारिक समस्या नहीं दिखती परन्तु अगर वही कलाकार कला और उसकी दिव्यता का राजनीतिकरण करने लगे तो जनमानस के सोच में कभी भी इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर एक तरह की सौहार्दपूर्ण राय पिरोई नहीं जा सकती। इसका हल सैद्धांतिक विरोध और विपक्ष से ही संभव है.पहले  हम सभी असहिष्णुता पर ईमानदार हो,इसको स्वीकार करे और इस पर सहिष्णुता रखे,ये कोई निम्नस्तर का सियासी मुद्दा नहीं है जिसको आप रैलियों या प्रेस वार्ता के माध्यम से जनता को फुसला लीजियेगा, यह तो भारतीय गणराज्य के जनसांख्यिकीय विविधताओं के मनभेद का मामला है जहाँ अपनापन समझने की परिभाषा कई भागों में विभाजित हो गई है.अगर हम इस मुद्दे पर ईमानदारी और सहिष्णुता से पेश नहीं आये तो ये उन बुद्धिजीवियों/कलाकारों  जिन्होंने इस मुद्दे पर  सम्मान लौटाया नहीं वल्कि उस सोच की वेदना में गिरवी रखा है जिसमे हिंदुत्व से हिन्दू भी त्रस्त है और  इंसान से इंसानियत भी। पहले इन सम्मानित बुद्धिजीवियों की वेदना को तो समझिए,मार्च मार्च तो कभी भी खेल सकते है  !

केंद्रीय हुकूमत इसको कांग्रेस या पार्टीगिरी मान इस मुद्दे को तरजीह न दे नई दिल्ली में नवंबर में मार्च का समर्थन कर क्या सन्देश देना चाहती है? यही न की हम पावर में है और हमे गब्बर मानो। असहिष्णुता का ज्यादा विरोध हुआ तो इस पर भी बन लगा साल के किसी भी महीने को मार्च बना माहौल को अनुपम खेर...अनुपम खेर बना देंगे।

वैसे अनुपम खेर इसी दिव्य सोच के साथ कभी अपने कर्म नगरी में मार्च निकालते जहाँ कई वर्षो से राजनैतिक तौर पर मान्यता प्राप्त प्रांतवादी असहिष्णुता फल- फुल रही है तो उनको हम बहुत जिम्मेदार और साहसी बुद्धिजीवी मानते। जितनी निडरता एवं अदम्य साहस से दिल्ली में नवंबर को मार्च बनाया,कभी अपने कर्मनगरी में किसी भी महीने को मार्च बनाये फिर देखिएगा, उनको अवश्य एशियन पेंट्स से घर कलर कराना पड़ेगा...क्योंकि एशियन पेंट्स से कलर कराने के बाद हर घर कुछ कहता है !!…:)