Negative Attitude

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Monday, November 16, 2015

टनाटन चुनावी मॉडल - अच्छे दिन और सबका साथ और सबका विकास

हमारे वज़ीरेआज़म वेफिक्र हो एक बार फिर विदेश दौरे पर निकल पड़े है. जिन जिन घटनाओ पर ब्रिटेन में साझा प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने विदेशी मीडिया से संवाद स्थापित किया और उनके प्रश्नो का उत्तर दिया, ये वही प्रश्नावली थी जिनको हमारे वज़ीरेआज़म साहब ने घटना के दरम्यान न तो अपने देश की मीडिया को तबज़्ज़ो दिया और न ही विपक्ष को जिसके जरिये देश की मुखिया होने के नाते इन मुद्दो पे जनता उनकी राय समझ सके.वो प्रत्येक घटना के लिए विदेश जाकर जनता या मीडिया से संवाद करना चाहते है वो भी सुक्ष्म रूप में.. ज्यादा जिरह न हो! जब माननीय प्रधानमंत्री महोदय देश में रहते है तो आतंरिक मामलो में उनकी घिघी लगभग बंद ही रहती है.


जो लोग उनके विदेश यात्रा के दरम्यान होने वाले समझौता ज्ञापन या समझौते से उनके चुनावी संकल्पो की संवेदनशीलता के प्रति कार्य प्रदर्शन का आंकलन कर रहे है,उनको इस बात का ख्याल होनी चाहिए की दुनिया भर के प्रत्येक राष्ट्राध्यक्षों के यात्राओं में समझौता ज्ञापन या समझौता उनके तयशुदा यात्रा कार्यक्रम का हिस्सा होता है ताकि उनकी सरकारी यात्रा प्रभावशाली कहा जा सके.ये कोई चमत्कार नहीं वल्कि इसकी रुपरेखा किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के यात्रा पूर्व पारस्परिक समझ के साथ लगभग तैयार की हुई रहती है!


देश में जनता महंगाई से बेहाल है,टीपु सुल्तान का मुद्दा उबल रहा है,नाथूराम गोडसे की 66वीं बरसी सुर्ख़ियो में है और असहिष्णुता के विरोध में नेशनल अवॉर्ड लौटाए जा रहे है लेकिन हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री इन मुद्दो पर सैद्धांतिक तौर पर चुप्पी साधे हुए है और अगर कुछ बोले भी है तो वह भी विदेश में! हमारे प्रधान मंत्री चुनावी रैलियों में स्टार प्रचारक के रूप में इस तरह के मुद्दो पर बढ़ चढ़ कर विरोधियों पर प्रहार करते है लेकिन इन्ही मुद्दो पर प्रधानमंत्री के रूप में जब मीडिया या जनता उनकी राय जाननी चाहती है तो यह उनके पद के मानक पर या तो तुच्छ लगता है या फिर विपक्ष की उनके प्रति साज़िश। शायद ये कटुसत्य है की चुनावी वक्तव्य और सत्तासीन होने के कर्त्तव्य दो अलग अलग पहलु है जिसमे पहला जनता से त्वरित लाभ लेने के लिए और दूसरा अपनी कुर्सी की आयु बढाने के लिए उपयोग किया जाता है.


उनके टीम के सदस्यगण जनता को यह बताने में व्यस्त रहते है की देश में अच्छे दिन चल रहे है,ये सब तो विपक्ष की साज़िश है जो उनके विदेश दौरे और रॉकस्टार शो की कड़ी मेहनत को धूमिल करना चाहते है. वर्ना देश आजादी के बाद पहली बार विकास की राह पर है क्योकि हमारे प्रधानमंत्री ज्यादातर विदेशी यात्राओं में मशरूफ रह रहे है.


एक जमाना था जब कोई राजनैतिक पार्टी या राजनेता नहीं वल्कि नॉन बैंकिंग कम्पनीआं कम समय में चमत्कारिक व्याज दर के जरिये अच्छे दिन दिखाकर न जाने कितने लोगो को चुना लगाया,कितने बर्बाद हो गए पर अच्छा दिन दूर दूर तक दिखाई नहीं दिया। आज के राजनैतिक परिवेश में कमोवेश यही हाल है जिसमे अच्छे दिन के चुनावी जुमलों के संलयन के साथ सत्ता विरोधी लहर का माहौल बना समय सीमा के साथ अच्छे दिन और विकास की खयाली लाटरी बेच पहले तो पांच साल के लिए सत्ता सुनिश्चित कर लो और फिर अगर बाद में कोई इसका हिसाब मांगे तो पिछले साठ साल का हवाला दे त्रिया चरित्र करना शुरू कर दो.जनता श्रद्धा सबुरी वाली है और पांच साल में न जाने कितने ऐसे मौके मिलेंगे जिसमे जनता को कंफ्यूज किया जा सकेगा. है ना टनाटन चुनावी मॉडल - अच्छे दिन और सबका साथ और सबका विकास!


पिछले डेढ़ वर्ष से देश के तमाम मध्यम वर्गीय या काम आय वाले लोग महंगाई के बोझ से इस क़द्र दबे है मानो है हम सभी भारतवासी स्वार्थी लोकतंत्र के ग़ुलाम है.... कुछ भी हो ये मेहनतकश लोग है न,विकास के नाम पर जब तब मालगुजारी लाद दिया जाएगा इनपर!!!

Tuesday, November 10, 2015

बिहार चुनाव 2015- किये हुए कार्यो के प्रत्यायक की जीत

जीत की अनुभुति के लिए किसी प्रकार का नारा या स्लोगन की आवश्यकता नहीं होती है, ये तो एक ऐसा सुखद अहसास है जिसमे जीवन की तीक्ष्ण से तीक्ष्ण कड़वाहट भी निष्क्रिय हो जाती है. बिहार चुनाव २०१५ कोई ऐसी घटना नहीं थी जिससे ये समझा जा सके की यह तो महज लोकतंत्र  की व्यवहारिकता है जो हर पांच वर्ष में दोहराया जाता है! यह चुनाव सिर्फ दो ही समूहों में बटा था एक समूह जो नए वादों के जरिये जनता का समर्थन चाहते थे और दुसरा समूह अपने किये हुए वादों को पुरा करने के प्रत्यायक के साथ जनता का समर्थन मांग रहे थे. एक तरफ राजनीतिज्ञ अपनी चिरपरिचित चुनावी शैली के अनुसार यानी तुच्छ जुमलों,अपने प्रतिद्वंदियों को निचा दिखाना,नफ़रत एवं तिरस्कार को तसदीक़ करना आदि के सहारे जनता को अव्यवस्थित कर उनका वोट हासिल करने का प्रयास कर रहे थे तो वही दुसरी तरफ जनता इन तमाम घटनाक्रमों का साक्षी बन उनके संकेतो का मुल्यांकन कर रही थीं की किसको सत्ता सौपना है!

२०१४ लोकसभा चुनाव में किसी राजनैतिक विचारधारा की नहीं वल्कि चमत्कारी लोकलुभावन वादो की जीत हुई थी और वह भी असाधारण एवं ऐतिहासिक! और इस असाधारण एवं ऐतिहासिक विजय के पास ऐसी किसी भी प्रकार की प्रत्यायक नहीं थी जिसके अनुसार बिहार चुनाव २०१५ में जनता को समर्थन के लिए  मजबूर कर सके! विजय या पराजय की वजहों पर मीडिया या चुनावी विश्लेषक चाहे जितना भी मंथन करे,कितना भी गणित लगा ले परन्तु इस बार की बिहार के चुनावी बाजार समिति में लोगो ने लोकलुभावन वादों के जगह पे पुरे हुए वादों को जारी रखने के संकल्प और निश्चय को ख़रीदा है! २०१४ लोकसभा में परिवर्तन,विकास,सबका साथ और सबका विकास जैसे दिव्य विचारो ने पुरे हिंदुस्तान का दिल जीत लिया था और इसके लिए सत्तासीन पार्टी को किसी भी प्रकार के चुनावी गणित के आगे नतमस्तक नहीं होना पड़ा था. विचार और वादे ऐसे थे जिसने लोगो को इससे जुड़ने पर वाध्य कर दिया था लेकिन विजय ने जीत के कारकों को अपनी स्मृति से इस क़दर दरकिनार किया की मानों जीत ही उनके राजनैतिक जीवन की स्वाभाविक पारितोषिक है जो परिस्थितियां चाहे जैसी भी हो प्राप्त होती ही रहेगी!

इस बार बिहार के मतदाता ने राजनीतिज्ञों के द्वारा प्रसारित प्रत्येक वक्तव्यों का गहन मूल्यांकन कर मतदान किया है और राजनीतिज्ञों के लिए जनता के तरफ ये एक ज़ोरदार सन्देश है की आप जो वादे चुनाव में करते है उन्हें पुरा करे और उसके प्रत्यायक के साथ यह भी स्पष्ट करे की भविष्य में आप क्या करेंगे तभी हम आपके गणित के भागीदार बनेंगे…बिहार के मतदाताओं ने समर्थन के इस मापदंड को बिलकुल स्पष्ट रखा था जो चुनाव परिणाम में महागठबंधन के विशेष योग्यता के साथ बहुमत के साथ स्पष्ट तौर पर दिखाई भी देता है.…और 2015 चुनाव में बिहार की जनता का इस परिपक्व सोच के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा होनी चाहिए।

श्री नीतीश कुमार जी के नेतृत्व में नयी ऊर्जा के साथ नयी संघीकरण वाली सरकार बनने जा रही है और उनके और उनके साथियो के वक्तव्यों से साफ़ पता चलता है की वे बिहार के विकास को जारी रखने के उनके संकल्प और निश्चय के प्रति संवेदनशील है और जनता के उम्मीदों पर वह इस बार भी खरा उतरेंगे!

जीत या हार किसी भी प्रतियोगिता का अभिन्न अंग है.कहते है की किसी भी प्रकार की जीत में कई हीरो होते है लेकिन हार या पराजय का अगर तटस्थता एवं ईमानदारी के साथ सामना किया जाए तो यह भविष्य के कई हीरो के जननी के रूप में उभरती है! और इसीलिए जीत का जश्न मानाने से ज्यादा जरुरी है उसे विनम्रता के साथ स्वीकार करना और अपने कर्तव्यो का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना! 


शुभ दीपावली!

Monday, November 9, 2015

नसीहत के साथ बधाई...

[ ABP News-Sunday, 08 November 2015 05:35 PM:-
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख श्री राज ठाकरे ने महागठबंधन के नेताओं श्री नीतीश कुमार और श्री लालू प्रसाद को बधाई दी और कहा ‘‘यह क्षेत्रीय अस्मिता, विकास एवं सामाजिक न्याय की जीत है. उन्होंने यह भी कहा कि बिहार का विकास इतनी तेजी से होना चाहिए कि बिहारियों को महाराष्ट्र एवं अन्य राज्यों में न जाना पड़े। ‘‘दूसरे राज्यों में काम करने वाले सभी बिहारियों को अपने राज्य लौटने की इच्छा जरूर रखनी चाहिए.’’ ]


माननीय श्री राज ठाकरे जी भारत के लोकसभा चुनाव में विजयी हुए किसी प्रधानमंत्री को दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष अपने बधाई सन्देश में यही बयान एवं नसीहत दे की १) ‘‘भारत का विकास इतनी तेजी से होना चाहिए कि भारतवासियों को अन्य देशों में न जाना पड़े’’ २) ‘‘दूसरे देशो में काम करने वाले सभी भारतीयों को अपने देश लौटने की इच्छा जरूर रखनी चाहिए’’तो दुनियाभर के २०३ देशों रह रहे लगभग २ करोड़ 85 लाख अप्रवासी भारतीयों और भारतवासियों को कैसा महसूस होगा ? हमारे प्रधानमंत्री दुनियाभर में चक्कर लगाये चल रहे है की विदेशी पूँजीपतियों को भारत में निवेश के लिए पटाया जा सके और अगर वही पूँजीपति हमें यह नसीहत दे की आप अपना विकास अपने बलबुते कीजिये तो हमारे देश या प्रधानमंत्री की क्या गरिमा रह जायेगी? माननीय श्री राज ठाकरे जी,जरा सोचिये की भूमंडलीकरण के इस युग में आपके इन विचारो से क्या सामाज कल्याण या विकास संभव हो पायेगा?

Saturday, November 7, 2015

असहिष्णुता

असहिष्णुता या धार्मिक असहिष्णुता कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिसको किसी एक प्रांत से जोड़ कर देखा जाए वल्कि ये तो एक राष्ट्रीय स्तर का लोकप्रिय राजनैतिक मसला है.इस मुद्दे पर अब तक अति विशिष्ट व्यक्ति या उनका समुह सोशल मीडिया के जरिये अपनी राय का इज़हार कर रहे थे तो सुर्खिया बनती तो थी लेकिन वो अल्पकालिक हो शांत हो जाती थी लेकिन आज जब उसका विरोध राष्ट्रीय ख्याति को अस्वीकार कर हो रहा है तो सरकार इसको राष्ट्रविरोधी गतिविधि जैसा मान रही है?

लोकतंत्र है तो विपक्ष भी होगा और विरोध भी होगा लेकिन अगर इस मुद्दे पर भी असहिष्णुता हो तो इसका मतलब हुआ की आप देश की संवैधानिक व्यवस्था का विरोध रहे है. कलाकार अगर राजनीती करता है तो इसमें कोई वैचारिक समस्या नहीं दिखती परन्तु अगर वही कलाकार कला और उसकी दिव्यता का राजनीतिकरण करने लगे तो जनमानस के सोच में कभी भी इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर एक तरह की सौहार्दपूर्ण राय पिरोई नहीं जा सकती। इसका हल सैद्धांतिक विरोध और विपक्ष से ही संभव है.पहले  हम सभी असहिष्णुता पर ईमानदार हो,इसको स्वीकार करे और इस पर सहिष्णुता रखे,ये कोई निम्नस्तर का सियासी मुद्दा नहीं है जिसको आप रैलियों या प्रेस वार्ता के माध्यम से जनता को फुसला लीजियेगा, यह तो भारतीय गणराज्य के जनसांख्यिकीय विविधताओं के मनभेद का मामला है जहाँ अपनापन समझने की परिभाषा कई भागों में विभाजित हो गई है.अगर हम इस मुद्दे पर ईमानदारी और सहिष्णुता से पेश नहीं आये तो ये उन बुद्धिजीवियों/कलाकारों  जिन्होंने इस मुद्दे पर  सम्मान लौटाया नहीं वल्कि उस सोच की वेदना में गिरवी रखा है जिसमे हिंदुत्व से हिन्दू भी त्रस्त है और  इंसान से इंसानियत भी। पहले इन सम्मानित बुद्धिजीवियों की वेदना को तो समझिए,मार्च मार्च तो कभी भी खेल सकते है  !

केंद्रीय हुकूमत इसको कांग्रेस या पार्टीगिरी मान इस मुद्दे को तरजीह न दे नई दिल्ली में नवंबर में मार्च का समर्थन कर क्या सन्देश देना चाहती है? यही न की हम पावर में है और हमे गब्बर मानो। असहिष्णुता का ज्यादा विरोध हुआ तो इस पर भी बन लगा साल के किसी भी महीने को मार्च बना माहौल को अनुपम खेर...अनुपम खेर बना देंगे।

वैसे अनुपम खेर इसी दिव्य सोच के साथ कभी अपने कर्म नगरी में मार्च निकालते जहाँ कई वर्षो से राजनैतिक तौर पर मान्यता प्राप्त प्रांतवादी असहिष्णुता फल- फुल रही है तो उनको हम बहुत जिम्मेदार और साहसी बुद्धिजीवी मानते। जितनी निडरता एवं अदम्य साहस से दिल्ली में नवंबर को मार्च बनाया,कभी अपने कर्मनगरी में किसी भी महीने को मार्च बनाये फिर देखिएगा, उनको अवश्य एशियन पेंट्स से घर कलर कराना पड़ेगा...क्योंकि एशियन पेंट्स से कलर कराने के बाद हर घर कुछ कहता है !!…:)

Monday, October 26, 2015

राजनीतिक तंत्र-मंत्र

औघड़ वाले वीडियो पर राजनीति मतलब वैचारिक खोखलेपन में डकवर्थ और लुईस प्रणाली के जरिये महज जीत हासिल करने का प्रयास है... नमो राजनीति हो तो उसमे रब के साथ साथ सबका साथ और सबका विकास दिखता है और यही राजनीति महागठवंधन करे तो जंगलराज-२ दिखता है...तंत्र मंत्र भी धार्मिक विधान की एक शाखा है जिसके जरिये सनातन धर्म के प्रत्येक आस्तिक को परमात्मा से जुड़ने के प्रयास का अधिकार है...ये धर्म धर्म खेले तो हिंदुत्व का घोतक और महागठवंधन के कोई नेता आस्था से जुड़े हुए दिखे तो इनके लिए चुनावी मुद्दा और व्यक्तिगत आक्रमण का हथियार बन जाता है... 

नमो राजनीति में औघड़,तंत्र-मंत्र  और व्यक्तिगत आक्रमण के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता जिसके अनुसार ये कहा जाए की ये सबका साथ सबका विकास चाहते है,सबका साथ सबका विकास ब्रांड की लॉटरी के जरिये ऊँचे ऊँचे खयाली सपने दिखा कर एक बार ही चुनाव जीता जा सकता है और इस महामंत्र का प्रयोग का कोटा इनके लिए लोकसभा चुनाव में पूरा हो चूका है...श्री नीतीश कुमार कार्य के बलबुते समर्थन मांग रहे है बोलबच्चन करके नहीं...श्री नीतीश कुमार का समर्थन करना बिहार में हुए विकास को प्रमाणित करना है...जय बिहार!

Monday, October 5, 2015

राजनैतिक दृष्टिपत्र

बिहार चुनाव २०१५ ज्यो ज्यो नज़दीक आता जा रहा है राजनीति में दृष्टिविहीनों की दृष्टि दृष्टि पत्र के रूप में वापस लौटती नजर आ रही है. देखिये ना २०१४ लोकसभा चुनाव का चुनावी दृष्टि पत्र पता नहीं कौन सी कुचक्र दृष्टि का शिकार हुई की लोग १५०-२०० रुपये प्रति किलो के दर से दाल ख़रीदने को मजबुर है और फिर भी न जाने क्यों हम गरीबी उन्न्मुलन की बात कर रहे है? २०१४ लोकसभा चुनाव में महँगाई के मुद्दे पर रैलियों को सम्बोधित करते हुए राजनीतिज्ञों का गला भर आता था और उनको पुनर्जलीकरण के लिए शीतल जल तक का उपयोग करना पड़ता था, उस समय की सत्तासीन सरकार इस मुद्दे पर मूक,वधिर और दमनकारी नजर आती थी लेकिन आज मूक,वधिर और दमनकारी सरकार या राजनेता होने के परिभाषा में से महँगाई मुद्दे को ही हटा दिया गया है ताकि यह मुद्दा वोट की राजनीति के लिए मनोवैज्ञानिक तौर पर निष्क्रिय हो जाए और भारतीय प्रजातंत्र के चुनावी विजय के स्वर्णिम इतिहास के गलीचे में अकेले अपनी विजयगाथा पर इतराता फिरे।

बिहार चुनाव २०१५ के लिए बीजेपी के विकास एवं विश्वास के दृष्टि पत्र में महँगाई जैसे मुद्दे का कोई स्थान नहीं है? २०१४ लोकसभा चुनाव के समय अगर महंगाई एक चनावी मुद्दा था तो इस वर्ष यानी २०१५ में यह महामारी है जिससे संक्रमित तो सभी है लेकिन इसको लोकतान्त्रिक आवाज़ प्रदान करने को कोई भी सियासी संस्थायें तैयार नहीं है। ख़ासकर इसके अपने जिन्होंने इसको चुनावी माहौल को चुनावी लहर बनाने में खुब अच्छी तरह से उपयोग किया था! इन राजनीतिज्ञों को सत्ता मिलते ही अचानक विकास एवं विश्वास के दृष्टि से महँगाई धुंधली दिखाई देनी लगी ये अत्यंत चिंताजनक है! राजनीतिज्ञ ये भली भांति जानते है ही की गरीबी और अशिक्षा से ग्रसित युवा देश की कमजोर नेत्र ज्योति में छलावे और भ्रमित करने की सियासत कारगर के साथ साथ टिकाऊ भी है! और इनको जब भी मौका मिलता है इसका भरपूर लाभ उठाते है.१८ अगस्त को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने एक रैली में बिहार को सवा लाख करोड़ का पैकेज देने की घोषणा तो की लेकिन  इसका कार्यान्वयन किस तरह किया जाएगा इसका बीजेपी के विकास एवं विश्वास के दृष्टि पत्र में कोई उल्लेख नहीं है... क़्यो? शायद राजनैतिक रैलियों में नेतागण की दृष्टि भ्रामक करने के उद्देश्य से होती है और जिसका सरकार के विकास एवं विश्वास के दृष्टि पत्र से कोई लेना देना नहीं होता है! गरीबी उन्नमूलन के नाम पर महंगाई को तबज़्ज़ो न देकर हर गरीब परिवार को एक जोड़ा धोती,साड़ी देने एवं सभी दलित और महादलित टोलों में एक मुफ्त रंगीन टीवी देने जैसे क्षणिक लाभ देने वाले वादे से बिहार की गरीबी को सिर्फ सरकारी गरीबी की मान्यता प्रदान करना है...इसमें गरीबी उन्नमूलन का मूल लक्ष्य कहाँ दिखता है?

चुनाव का मौसम है.....वादे है वादो का क्या! पहले विश्वास करो फिर विकास सोचो! मेरे विचार से विकास एवं विश्वास के इस दृष्टि पत्र के लिए यही प्रचार वाक्य फिट बैठता है...अब बिहार की जनता को यह तय करना है की वह इस प्रचार वाक्य को अपनायेगी या फिर बिहार के विकास में श्री नितीश कुमार जी के योगदान और उनके सतत प्रयास को सहयोग देगी!

मेरा मानना है की बिहार चुनाव २०१५ में श्री नितीश कुमार जी का साथ छोड़ना बिहार के हो रहे निरन्तर विकास की रफ़्तार पर रोक लगाना होगा!   बिहार के उन्नति की संवेदनशीलता पर श्री नीतीशजी के पहले २१ मुख्यमंत्रियों और १३ प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल का विधिमान्यकरण करे और फिर यह राय बनाये की बिहार के नेतृत्व की जिम्मेदारी किसको सौंपनी है....

Wednesday, September 16, 2015

भाषा-आधारित आरक्षण

१४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया था कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष भी हिन्दी दिवस मनाया गया एवं विशेष तौर पर कई वर्षो बाद विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन भी हुआ जिसमे प्रधानमंत्रीजी ने हिंदी के सम्मान में लम्बा चौड़ा भाषण दिया लेकिन निचे दिए गए आज के अख़बार दैनिक यशोभूमि में मुद्रित समाचार के इस अंश को देखिये की हिन्दी दिवस को बीते हुए अभी ४८ घंटे भी नहीं हुए थे और इस राजभाषा को उसी के गणराज्य में राजकीय तौर पर अपरोक्ष रूप में किस तरह उपेक्षित किया जा रहा है.हिन्दी भाषा बोलने के अनुसार से अंग्रेज़ी और चीनी भाषा के बाद पूरे दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी भाषा है।



बीजेपी शासित महाराष्ट्र सरकार में शिव सेना के कोटे से बने परिवहन मंत्री श्री दिवाकर रावते का यह तर्क है ऑटो चलाने वालो को स्थानीय भाषा का ज्ञान हो जिससे वो उपभोक्ता से आसानी से बात कर सके.अगर स्थानीय भाषा और उपभोक्ता सेवाओं की इनको इतनी ही चिंता है तो इन्हे ये भी सुनिश्चित करना चाहिए की राज्य के प्रत्येक अस्पताल के डॉक्टरों को भी मराठी भाषा का ज्ञान हो! बड़ी बड़ी टैक्सी कम्पनियो को टैक्सी परिचालन के लिए बृहत् पैमाने पर परमिटों के आबंटन पर क्यो यह राजकीय फ़तवा लागु नहीं होता है? शायद कुछ टैक्सी कम्पनियो के राजनैतिक ताल्लुकात इतने प्रभावशाली है जिसमे समाज कल्याण की सोच और उससे जुडी व्यवस्था का कद छोटा बन जाता है! 

भाषा के नाम पर संवैधानिक तौर पर अमान्यताप्राप्त आरक्षण एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था प्रदत्त तानाशाही है जिसका मक़सद सिर्फ और सिर्फ समाज का ध्रुबीकरण कर भावनात्मक तौर पर वोट बैंक तैयार करना है.हमारे देश में जातिगत आरक्षण ने पहले से ही समाज को कई टुकड़ो में विभाजित कर रखा है और ऊपर से इस तरह का सरकारी फ़तवा समाज कल्याण के लिए भाषा के नाम पर जबरन थोपी हुई राजनैतिक कृपा दृष्टि के रूप में मजबुरी है जो जन कल्याण हेतु संबिधान प्रदत्त अधिकारो को पक्षपात पूर्ण बनाता है।

भारतीय लोकतंत्र में बात बात पर आरक्षण या आरक्षण से मिलता जुलता कानून राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में वोट मांगने और वोट बैंक बनाने की दोहरी राजनीति की मज़बूरी है या फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में दूरदर्शी सोच का आभाव, स्थिति कैसी भी हो,समाज को पक्षपातपूर्ण सोच के आधार पर बांटकर समाज का विकास नहीं किया जा सकता वल्कि इससे तो हम अपनी समाज की परिधि को छोटा और संकुचित कर रहे है ,इसमें जन कल्याण और विकास की बात सोचना भी मुर्खता है।

Tuesday, September 1, 2015

बिहार चुनाव २०१५ विशेष...

बिहार चुनाव २०१५ विशेष....

फेसबुक पर एक दिलचस्प पोस्ट

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[ PHIREY POOCHHTE HAIN AUR TEENTHO SAWAL. BUJHIYE NITISSJI. BIJI CHAL RAHE HAIN TOH CHHOR DIJIYEGA

1. Kawhte hain ke Modiji ka Rs 1,25,000 crore ka Bihar package bhote ke liye ghoos hai aur Bihaar ki Janata isey dhikkarti hai. Toh ee bataaiye ke aapka Rs 2,70,000 crore ka packagewa kaa hai?

Kumpetisun kariyega toh sach kawhne ka saahas rakkhiye

2. Tanik ee bataiye ke ee doh lakh sattar hajaar karor rupiya laiyega kahaan se? Jaun dilli sarkaar ko kos rahe hain unhi se naa? Ya aapka bhujang ji phree phund khol diye hain Bihaar kaa khaatir?

Ab jab bhikh hee maangna hai toh swabhimaan kaahe kaa?

3. Agar ee doh laakh sattar hajaar karor kendriya sarkaar se nahi lijiyega bhikh mey, toh kya udhaari lijiyega? Aapke bhujang toh nahi par Kejaria toh honest hain. Woh nahi de payenge.

Ee udhaar chukayiega kaise? Ab andolan se khush hokar kendr apnaa bhandaar toh nahi na kholegi!

Kaa baat kar rahe hain aap!!! Dhutt!!

Jai Bihar! ]

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और इस सन्दर्भ में मेरी प्रतिक्रिया....

मान्यवर....आपका पोस्ट पढ़के खूब अच्छा लगा और अईसा लगा की रैली सच्चे में लोग के दिमाग पर अच्छा खासा असर डालता है.आज़ादी के बाद जब वोट का राजनीती शुरू हुआ तब मुद्दा जमीं जायदाद समेटने,पडोसी देश से मथ फ़ोड़ौअल,मंदिर,कमंडल और मंडल होता था और ई सिलसिला बहुते साल चला.६७-६८ साल के  आज़ादी में आधा टाइम एही में लोग ओझरायल रहा.ज़ब कुछ समझदार लोग देश संभाला और टेक्नोलॉजी और उदारीकरण का बात किया तब जाके लोग को लगा की वोट के बदले में जो समान उ खरीदेंगे तो ओकरा में न्यूट्रीशनल वैल्यू भी देखना होगा। टाइम बदला और लोग का इ सोच विकास वाला मुद्दा से टकराया और फिर लोग अपना राज्य/शहर का औकात तौलना शुरू किया। इसको तौलने खातिर कोई देश के राजधानी(दिल्ली) को बटखारा बनाया तो कोई भेष का राजधानी(बम्बई) को बटखारा बनाया तो कोई अवशेष का राजधानी(कलकत्ता) को बटखारा बनाया तब जाके ई नेता लोगन के लगा की माल बेचे खातिर डिब्बा के साथ साथ ओकरा प्रिंटिंग पर भी माथा लगाना होगा। देखिये अब विकास का डिब्बा में न्यूट्रीशनल वैल्यू केतना डिटेल में रहता है...:) बिहार का मोदीफाइड चुनावी पैकेज और बिहार का लोकल चुनावी पैकेज दोनों इ कम्पटीसन का हिस्सा है... इ न कोई भीख दे रहा है और न इ कोई भीख मांग रहा है...लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई दाता दानी नहीं है और इसमें भीख का कोइओ जगह नहीं है. सत्ता में लोग होते है तो उ भीख देने लगते है और अगर उनको सत्ता बापस पाने की नौबत आती है तो यह उनका प्रक्रिया प्रदत अधिकार हो जाता है...इ पैकेज के कबड्डी कबड्डी में कोई पार्टी नया कस्टमर बनाने का प्रयास में लगा है तो उधर पदधारी आफ्टर सेल्स सर्विस और सेल्स सैटिस्फैक्शन पर भविष्य दिखा रहे है......वैसे हम ई कन्फूजिंग मुद्दे पर बिहार को अच्छे दिन का ढोकला या लाल्टेनजी की लिट्टी के नजरिये से नहीं देख रहे है,हम तो बस बिहार को बिहार के चश्मे से देखकर आपके पास्ट पर अपनी राय झाड़ रहे है...:) एक बात तो सत्य है की बिहार में नीतीशजी के कार्यकाल में जो भी काम पिछले दस साल में हुआ है वो अद्भुत है....मेरे इस विचार का समर्थन या विरोध बिहार के विकास की संवेदनशीलता पर नीतीशजी से पहले २१ मुख्यमंत्रियों और १३ प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल का विश्लेषण करने के बाद ही कीजियेगा...सादर...

Thursday, August 20, 2015

बिहार चुनाव और बीमारू राजनीती

अगर सियासी पार्टियों के पास प्रत्यायक के तौर पर बोलने/दिखाने के लिए कुछ भी नहीं हो तो इनके लिए राजनैतिक रिश्वत और व्यक्तिगत आक्रमण ही चुनावी सफलता का मुख्य रास्ता रह जाता है और बिहार के चुनावी दंगल में केंद्र की सत्तासीन पार्टी चुनाव के दरम्यान सपने बेचने या अल्पकालिक भावनात्मक वशीकरण करने के लिए यहि कर भी रही है...विशेष पैकेज चुनाव में लुटाने वाली लॉलीपॉप है और विशेष राज्य का दर्जा जरूरत को संवैधानिक स्वीकार्यता प्रदान करना है...जब केंद्र सरकार यह समझती है की बिहार के विकास के लिए बिहार को विशेष सहायता की जरुरत है तो इसे चुनावी घोषणा में जगह देने के वजाए संवैधानिक स्वीकार्यता क्यों नहीं दे रही है ?

69 वर्ष पुराने इस लोकतंत्र में अनगिनत चुनावी रैलियां हो चुकी है और अगर इसमें किये वादो का लेखा जोखा निकाले तो आप समझ जाएंगे की वादे है जो सत्ता की लालसा में बस कर दिए जाते है ताकि चुनाव में इसका त्वरित परिणाम मिल जाए... बिलकुल 2 मिनट्स नूडल्स की तरह... जनता है कहा याद रखेगी और अगर कोई इस मुद्दे को बाद में उठाया तो भारत से बाहर कोई मेगा शो कर गुल्लक में से कोई नया सिक्का भीड़ में उछाल देंगे...आम आदमी जो उपाय नवजात शिशु को फुसलाने के लिए करता है ठीक वही उपाय ये सियासी पार्टियां रैलियों और चुनावी घोषणाओं को सुनकर मत बनाने वाली जनता को फुसलाने के लिए अपनाते है.....इनको पता है की कुछ दिनों के लिए मूल मुद्दो पर से ध्यान भटकाने के लिए यह संजीवनी है और इस गुल्लक वाले सियासी टोटके का परिणाम आपके सामने है.... अभी अभी प्रधानमंत्रीजी की दुबई में संपन्न हुई मेगा शो के बाद #ललितगेट #व्यापम घोटाला मीडिया से तुरंत गायब हो गया....गायब हो गया की नहीं!....गायब हो गया की नहीं! :).. :)

हमारे देश की सभी सियासी संस्थायें यह अच्छी तरह से जानती है की इनके द्वारा चुनाव में किये गए वादों की न कोई संवैधानिक जवाबदेही होती है और न ही इन वादो की निगरानी के लिए कोई संवैधानिक संस्था है जो इनसे सत्तासीन होने के बाद इनके वादों के अनुपालन पर हिसाब मांग सके.

संवैधानिक तौर पर कोई राज्य सरकार अपनी जरूरतों को केंद्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर विशेष ध्यान देने की आग्रह करती है तो संसदीय भाषा में मांग करना समझा जाता है लेकिन शब्द का यही स्वरुप अगर सत्तासीन होने के अहंकार और सत्ता पाने की लालसा का चोला पहन ले तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनकल्याण की जरूरतें एक दूसरे पर व्यक्तिगत आक्रमण और औकात दिखाने का हथियार बन जाता है.बीमारू राज्य और इसके विकास के लिए मांगने और देने की राजनीति पर भारत नाट्यम करने वाले इन राजनीतिज्ञों को ये मालुम होनी चाहिए की बोली लगाकर पैकेज की घोषणा कभी स्पेशल नहीं होगी ...देश के मुखिया द्वारा अपने ही एक राज्य को बीमारू होने का प्रमाण पत्र देना वहाँ की जनता और उस राज्य की प्रतिष्ठा को नापसन्द करना है...मुझे माननीय प्रधानमंत्रीजी के बिहार के चुनावी भाषण का एक ही उद्देश्य मालूम पड़ता है की चरणवद्ध तरीके से व्यक्तिगत आक्रमण और बीमारू राज्य जैसी तथ्यविहीन नकारात्मकता को सकारात्मकता के मुख्य पृष्ठ के जरिये चुनावी नीलामी में सत्ता के लिए पैकेज की शक्ल में बिहार और बिहार की जनता की कीमत तय करना है...

अगर कोई राज्य देश की उन्नति में सम्मिलित होने के लिए विशेष दर्जे की मांग करता तो बीमारू राज्य कहलाता है...हमारी केंद्र सरकार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और उदारीकरण के विपणन के लिए इन्वेस्टर्स सम्मेलन या विदेशी पूंजीपतियों की जो मीटिंग्स करती है वो क्या इस बात का घोतक है की हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी उन्नति के लिए आर्थिक जरूरतों को पूरा करने में असक्षम है...बीमारू हैं ??

अगर अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार हमारा भारत विकासशील है तो इसका मतलब या हुआ की हमारे देश का समस्त भू-भाग या राज्य विकासोन्मुख है...और अगर कोई राज्य बीमारू या कुपोषण का शिकार है तो देश की तमाम सियासी पार्टियाँ अपनी सभी चुनावी रैलियों को सुनें एवं उन वादो के अनुपालन का विश्लेषण करे...बीमारू या कुपोषण का मूल कारण ज्ञात हो जाएगा!!

हाँ एक बात और...अगली बार जब सत्तासीन पार्टी का कोई घोटाला उजागर होगा तो ये देखना बहुत दिलचस्प होगा की माननीय प्रधानमंत्रीजी स्वगुणगान और सरकार की उपलब्धियों को बखान करने के लिए कौन सी देश की यात्रा पर जाते है या फिर अपने गुल्लक में से टोटके वाला सिक्का कहाँ और किस रूप में उछालते है..!

Friday, August 14, 2015

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!



आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!






'गटारी' सेलिब्रेशन_महाराष्ट्र


गटा गट मारी
आज आमची गटारी
आज अमावस्या उदया पासुन तपस्या
चला गटा गट मारी
आज आमची गटारी
मटन चिकन ची तैयारी
आज पासुन डेढ़ महीना होणार भारी
पियक्कडा चा श्रावणा मध्ये सुखाड़ी
चला गटा गट मारी
आज आमची गटारी
हो चाहे छुटटी आणि खर्ची ची मारा मारी
वार्षिक गटारी उत्सवा ची वारी
चला गटा गट मारी
आज आमची गटारी..:)..:)

Thursday, August 13, 2015

हैप्पी साइनी डाई

लोकतंत्र में सत्तासीन पार्टी के कुछ अच्छे कार्यो को विपक्षी पार्टी द्धारा संवैधानिक तौर पर स्वीकार नहीं  करने की परंपरा उनकी विवेकपूर्ण राजनैतिक दूरदर्शिता होती है ताकि अगर भविष्य में उनकी सरकार सत्तासीन होती है तो उनके लिए बना-बनाया कुछ कार्य हो जिसको तत्क्षण लागु कर उपलब्धियाँ अपने नाम किया जा सके. अब तक आप समझ गए होंगे की मैं किसकी बात कर रहा हुँ... जी हाँ मैं बात कर रहा हुँ अच्छे दिन के वादे के साथ सत्तासीन हुई नयी सरकार के दौर में बहुचर्चित GST bill (जीएसटी) गुड्‌स एंड सर्विसेज टैक्स बिल की. इस बिल को आजादी के बाद सबसे बड़ा टैक्स सुधार कदम कहा जा रहा है क्योकि जीएसटी बिल के जरिये कई प्रकार के टैक्स को सिर्फ जीएसटी के रूप में एकीकरण करना है। 2011 में UPA के कार्यकाल में भी यह बिल पेश किया गया था लेकिन इसे विपक्ष की संबैधानिक स्वीकार्यता नहीं मिली और यह बिल संसद के बिल में कैद हो गया था. आज जब बाहर निकला तो संसद के लोगजाम और इसके कारण सरकारी पैसे की बर्बादी पर विपक्षी पार्टियों को हाय हाय करने वाले देश के शुभचिंतको को क्या 2011 में संसद के लोगजाम में हुए सरकारी पैसे की बर्बादी का इल्म नहीं था? अगर 2011 का संसद लोगजाम से जनता के पैसे की बर्बादी नहीं हुई थी तो आज किस थ्योरी के अनुसार संसद लोगजाम से जनता के पैसे की बर्बादी हो रही है? हमारे देश में राजनैतिक अपव्यय के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है और अगर अपव्यय को लोग बोझ बोलने लगेंगे तो इतना सारे टैक्स है जिसमे मात्र कुछ प्रतिशत बढ़ा देने से संसदीय आकस्मिकता की भरपाई हो जायेगी.वैसे इस संसदीय आकस्मिकता को व्यवस्थित कर संसदीय कार्य आकस्मिकता फण्ड बना दिया जाना चाहिए और इसका मुखिया संसदीय कार्य मंत्रालय हो जिससे की जनता की बदहाली और बर्बादी पर जनता के टैक्स के पैसे की बर्बादी हावी न हो सके.नहीं तो इस बहस में दो मुद्दो में एक का असामयिक राजनैतिक क्रियाकर्म हो जाता है. लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष तानाशाही सोच को नियंत्रित करने की प्रणाली के तौर देखा जाता है लेकिन आज के दौर में यह महज अपने आप को ऐतिहासिक बनाकर महान बनने की प्रक्रिया बन चुकी है.जो बिल नाम रौशन करने वाला हो उसको सदन में पलटकर अपने लिए प्रतीक्षा सूचि में सुरक्षित रख लो और जो बिल विपणन के लायक नहीं है या जिसका ढिंढोरा नहीं पीटा जा सकता उसको हरी झंडी दे दो.दरअसल इन सारे कुरितियों के लिए सत्ता परिवर्तन के मूल मायने और लॉली पॉप जैसी क्वीक सर्विस वाली राजनैतिक घोषणा पत्र और राजनैतिक रैलियां जिम्मेदार है जिसके झांसे में हमारे देश की आधी आबादी जो गरीबी के आधार कार्ड और लगभग २५-३० % अशिक्षित सर्व शिक्षा अभियान के मोहताज जनता आ जाती है. सत्तासीन होने की यही आतुरता..यही खक्खन सत्ता पक्ष और विपक्ष की परिभाषा और जिम्मेदारी को अनुपयोगी,स्वार्थी एवं पक्षपातपूर्ण बनाती है.

हम जनता ही जिम्मेदार है जो द्धेष से भरे भावनात्मक जुमले और रातो रात जिंदगी बदलने वाली वादों को अपने मानस पटल पर किसी धर्मग्रन्थ से ज्यादा तबज्जो दे इनके झांसे में आ जाते है और फिर इन्ही झांसों की रीब्रांडिंग और रीपैकेजिंग करने की इनकी जद्दोजहद से संसदीय विकृतियां उत्पन्न हो जाती है और बाद में संसद कितना कार्यशील रहा और अगर नहीं रहा तो इससे पैसे की बर्बादी की एकाउंटिंग शुरू हो जाती है. वैसे हमारे देश में जनता के पैसे की बर्बादी को लेकर कोई सम्वेदनशीलता या कोई जवाबदेही तय करने की प्रणाली है क्या जिसके जरिये ये सुनिश्चित किया जाए की संसद चले और नहीं तो इसके लिए दोषी को दण्डित किया जा सके. हाँ चुकी ये लोकतंत्र है तो इसके बारे में हम तमाम लोग इसको देशहित से जुड़ा मुद्दा मानकर कई दिन तक वयानबाजी और टेलीविज़न डिबेट का गवाह जरूर बनते है और संसद स्थगित तो सारी राष्ट्र-भक्ति,सारे गीले शिकवे और मीडिया बहस भी स्थगित।


वैसे अगली बार अगर सत्ताधारी पार्टी के किसी मंत्री के ऊपर ललितशास्त्र जैसी कोई इमान्दारीयुक्त भ्रस्टाचार का आऱोप लगे तो इनके संसद में यही वयान होंगे की छुट्टी पर जाइये और एकांत में ब्रिटिश राज का इतिहास पढ़िए और उसके बाद अपने बुजुर्गो से पूछियेगा की अंग्रेज़ो को कोहिनूर क्यों चुराने दिए...उत्तर मिल जाए फिर हमें दोषी ठहराना...हमने नूर-ए-आईपीएल को मानवीय आधार पर चुराया है...नूर-ए-आईपीएल कोहिनूर से ज्यादा कीमती तो नहीं है न...!!!

Wednesday, July 29, 2015

विश्वाश पर अविश्वाश

एक वक़्त था जब बिहार महज मज़ाक था
आज देखिये यहाँ तरक़्क़ी खूब झलकती है
हालात यहाँ खुद सक्षम है अपनी खुशहाली वयां करने में
आंकड़े का क्या ये तो बस विवादों का हसीं संवाद है
चुनाव का मौसम है और तैयार है चेतना के व्यापारी
खबरदार,ये डी.एन.ए और जीन परखकर करेंगे खरीदारी
खयाली जुमले पर होगी सब्सिडी और असत्य का मुफ्त वितरण होगा
खयाली जुमलों पर मौका तो दिया,ना जांचा ना परखा बस वक़्त गवां दिया
यु तो इन रहनुमाओ को हम वैसे ही कहा याद आते है
ये तो चुनाव है, मजबूरीबस खींचे चले आते है
देखियेगा,समझियेगा और तभी व्यापार कीजियेगा
बढ़ चला बिहार का श्रम और विश्वाश पे अविश्वाश पर विचार जरूर कीजियेगा
एक वक़्त था जब बिहार महज मज़ाक था
आज देखिये यहाँ तरक़्क़ी खूब झलकती है...