Negative Attitude

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Friday, May 16, 2014

मैं समय हुँ...और मोदी भी

मैं गांधी भी हुँ और मोदी भी.मैं तुम्हारे साथ भी था और इसके साथ भी.मैं विजय भी हुँ और पराजय भी.मैं संयोग भी हुँ,प्रयोग भी हुँ,सदुपयोग भी हुँ और दुरूपयोग भी.मैं राम भी हुँ और रावण भी,मैं द्रौपदी भी हुँ और दुस्सासन भी.मुझसे दुर वही जाता है जो मुझे अपना दास समझता है.

क्या मुझे घड़ियों के निरंतर घूमते हुए कांटों से वर्णित किया जा सकता है? मैं तो अलग अलग देश के घड़ियों में भी अलग रूप में होता हुँ। मेरा कोई  स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों की गति और स्थिति का तुम्हारे भौतिक जीवन पर सूक्ष्म और स्थूल प्रभाव पड़ता है।

''प्रकृति के क्रम के अनुसार जीवन की गतिविधियां संचालित करने से जीवन की गुणवत्ता बढ़ जाती है। इसीलिए उचित समय की पहचान कर अपना काम करना सफलता का सूत्र माना जाता है। परन्तु विडंबना यह है कि उचित समय की पहचान के लिए हम कैलेंडर पर आश्रित हो गए हैं। कैलेंडर की तारीख से ऋतुएं नहीं बदलती,ऋतुएं प्राकृतिक नियमों के अनुसार बदलती हैं। कैलेंडर को चंद्रमा के हर दिन बदलते आकार से मतलब नहीं है,वो तो गणित की संख्या के आधार पर बदलता है।"


मैंने बहुत कुछ किया है पर मैं अपने ही रूप परिवर्तन की उपेक्षा की,इसकी आवाज़ को सुन नहीं पाया। मैंने सोचा था की कैलेंडर के सहारे परिवर्तन को टाल दुँगा लेकिन मैं ये भूल गया की कैलेंडर समय को विस्तार के रूप में प्रदर्शित तो करता है लेकिन प्रकृति में हो रहे परिवर्तन की सदैव उपेक्षा करता है। सूर्योदय या सूर्यास्त कभी भी हो,आधी रात के बाद तारीख अपने-आप बदल जाती है।

मैं ये भी भूल गया की मैं यानी परिवर्तन किसी के लिये नहीं रूकता....लेकिन मुझसे यानी परिवर्तन से लोग पीछे नहीं छूटते, इसके बजाए मैं यह कहूं तो ज्यादा सही होगा कि लोग मुझ तक पहुंच नही पाते हैं। मै समय हूं…मैं यहीं हूं…और कहीं नहीं हूं…

पर क्या सचमुच परिवर्तनरूपी नये पत्ते पुराने पत्तों का विकल्प बनते हैं?.....वो पतझड ....वो बहार....और वो मौसम के तीक्ष्ण थपेड़े ...जिनकी थकान जो पुराने पत्तों ने अनुभव की,क्या नये पत्तों को ठीक वैसा ही मौसम फिर मिल पायेगा....इन सवालों का उत्तर आने वाले कल के पिटारे में क़ैद है और इसकी चाभी परिवर्तन के पास है....और परिवर्तन ही खोलेगा इस पिटारे को.....विश्वास के साथ इंतज़ार करें!...पर सत्य तो यह है की पतझड के बाद राहगीर कभी भी पुराने पत्तों की छाँव वापिस प्राप्त नहीं कर सकता लेकिन नये पत्तों की नयी छाँव के साथ पुनः नयी यात्रा अवश्य आरंभ कर सकता है .....तो आइये श्री नरेंद्र मोदी रूपी नए समय का स्वागत करते हुए लोकतंत्र की नयी यात्रा का आरंभ करें।

लोकसभा २०१४ चुनाव में धमाकेदार सफलता के लिए श्री नरेंद्र मोदी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ....

Wednesday, May 14, 2014

एक्स्ट्रा इनिंग्स

पतन और परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है औऱ ये उन लोगो के उपर भी लागु होता जो विजयी भवः से आशीर्वादित है.जनादेश परमात्मा का सन्देश होता है और इसका इस्तकबाल हर खास-ओ-आम को करना ही चाहिए। मैं २०१४ लोकसभा चुनाव को भारतीय गणतंत्र  का सबसे दिलचस्प चुनाव मानता हूँ क्योंकि सम्पन्न होते युग में सपने बेंचना इतना आसान नहीं है और जिस तरह लोगो ने कीमत क़ी परवाह किये बिना इस बार सपनो को खरीदा है... क्या कहने!! लोकसभा वैसे तो राष्ट्रीय राजनीती है लेकिन जिस तरह से इस चुनाव में क्षेत्रीय राजनीती ने अपनी भागीदारी दिखाई है वो कबिल- ए- तारिफ है.इससे मतलबविहीन तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीती पर काफी हद तक लगाम तो लगेगा ही साथ साथ  राष्ट्रीय पार्टियों को ये समझने पर मजबुर करेगा की तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीती से कही ज्यादा संवेदनशील है क्षेत्रीय राजनीती,ध्यान नही दिये तो हिसाब क़िताब गड़बड़ाना तय है.

युग न ही समाप्त होता है,और न ही इसकि शुरुआत होतीं है... ये तो अपनी चाल में चलता रहता है... हमारे बदलते सोच परिवर्तन का एहसास दिलाते है... वर्ना ये सारे राजनेता उसी राजभवन के किरायेदार है.... ये तो बस सपनो की ऊँची कीमत के वादे पर कमरा बदल कर समझौते का विस्तार कर रहे है...

अब जबकी आप समझौते पर बटन दबा चुके है तो इंतजार कीजिये अच्छे दिन आने का जिसका शुभ ज्योतिषीय संयोग १६ मई से पांच वर्ष तक लगातार रहेगा..इस बार हर घर में बिजली के सपने के साथ साथ लालटेन भी खूब बिका.... एग्जिट पोल तो यही कहता है लालटेन मजबुती से बापसी कर रहा है....कही ये उस सपने की ओर तो इशारा नही  कर रहा जिसमें आप सपने देखते कुछ और है और उसका अर्थ निकलता कुछ और है....खैर अगर लालटेन की बापसी हो रही है तो लोड शेडिंग/बिजली की कमी की भी दमदार बापसी तय है...नोट कर लीजिये....

एग्जिट पोल की माने तो इस बार ओडिशा का शंखनाद भी लोगो को जाग्रित नहीं कर पाया और बिहार का तीर भी चिड़िया क़ी आँख का लक्ष्य भेद करने में चुक गया...वैसे इन दोनों राज्यों में विकास सिर्फ़ चुनावी मुद्दा नहीं था वल्कि हक़ीक़त में यहाँ निरन्तर विकास हो भी रहा हैं...पता नहीं इस चुनाव में ओडिशा के लोगो को इस मान्यता पर क्यों विश्वास नहीं हुआ की शंख की सर्पिल ध्वनी से नकारात्मक ऊर्जा का विनाश होता है.... बिहार का तीर भी क्यों ये समझने में नाकाम रहा की दांये हाँथ की अंगुलियों के मुकाबलें बाएं हाँथ की अंगुलियों में कोमलता कही ज्यादा होती है... भले ही दाहिने हाथ से तीर को अगर तेजी से छोडा जाये तो तीर सीधा शक्ति से निकालता है लेकिंग अगर अँगुलियों क़ी कोमलता का इस्तेमाल कर तीर छोड़ा जाये तो तीर घुर्पण करते हुए अपने भीतर की शक्ति से साथ काल को भी अपने चँगुल मे लपेटते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है....शायद सपनो के बम्पर सेल में परिपक्व राजनीतिज्ञों से साथ साथ जनता भी फेमिनिन आर्ट समझने में नाकाम रही....खैर युग समाप्त नहीं हुआ है... मरम्मत के लिये अभी भी वक़्त है... जोर और टशन तो दिखाना हीं होगा....एक समय अर्जुन की वाणों की रक्षा ने गुरु द्रोण को भी असफल बना दिया था...बंगाल और दक्षिण भारत की  क्षेत्रीय पार्टियों से सीख लीजिए,पहले घर को मज़बूत करे फिर उसका गुम्बद!... पहले ऑफिस को खूबसूरत बनाये फिर उसका वेबसाइट!...

कुलमिलाकर भारतीय सियासत में क्षेत्रीय पार्टियों की दमखम के साथ साझीदारी और सपनें बेचने कि राजनीति बदलाव के रुप में एक शुभ संकेत है जो कम से कम हर पांच वर्ष में कड़ी चुनावी प्रतियोगिता और कुछ हद तक सत्ता परिवर्तन आश्वस्त करने में सक्षम भी होगा...प्रधानमंत्री कार्यालय में हर स्तर पर बिदाई क़ी परंपरा शुरू हो चुकी है और अब प्रतीक्षा किजिये १६ मई का जो यह बतायेगा क़ी इसके बाद की परंपरा स्वागत ऐवं ताज़पोशी के लिए सीधा परिणाम आएगा या सुपर ओवर होगा...

  

Monday, May 5, 2014

इलेक्शन प्रोसेस या एलेक्शनिअरिंग बायस

२००४ आम चुनाव चार चरणों में,२००९ आम चुनाव पांच चरणों में और अब २०१४ आम चुनाव के लिए नौ चरणों में मतदान हो रहा है.लोकतंत्र का 36 दिन का यह चुनावी मेला भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे लम्बा है. माना की लंबे और कई चरणों में संपन्न होने वाले चुनाव का एकमात्र कारण सुरक्षा है.स्थानीय पुलिस पर सदैब पक्षपात का आरोप लगता रहा है है इसलिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है. इन सुरक्षा बलों को चुनावों के दौरान शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए उन्हें पूरे देश में भेजा जाता है. यही कारण है कि इसमें समय लगता है.लेकिन क्या इतने लम्बे चुनाव अनपेक्षित परिणामों की तरफ़ नहीं ले जाते हैं? इतनी लम्बी चुनावी प्रक्रिया सियासी संस्थाओं को क्या यह अवसर प्रदान नहीं करती है जिसमे उनका चुनाव प्रचार तीखा,भड़काऊ और कटुतापूर्ण हो? क्या यह मतदाताओं में एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही करता?

कई चरणों में होने वाले चुनाव से शुरुआती दौर वाले में लड़ने वाले प्रत्याशियों और दलों को नुकसान होता है क्योंकि उन्हें अपने चुनाव कार्यक्रम के लिए कम समय मिलता है.यहाँ इस बात से भी  इनकार नही किया जा सकता क़ी लंबी अवधि वाले चुनाव में उस पार्टी के जीत का अंतर बढ़ जाता है जिसके समर्थन में लहर होती है या जिसके बड़े अंतर से जीतने का पूर्वानुमान होती है.सामाजिक वैज्ञानिकों कि माने तो लंबी अवधि वाले चुनाव,चुनावी प्रक्रीया और मतदाताओं को दिग्भ्रमित करने में उतना ही कारगार होगा जितना क़ी चुनाव के दौरान या  इसके इर्द गिर्द किये जाने वाले ओपिनियन पोल और इस पर आधारित सियासी पार्टियों के लिये सीटो का पूर्वानुमान!

इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘प्रपंच’ खेलकर ही चुनाव जीतने की प्रथा रही है। इससे अतिरिक्त मस्तिष्क पर थोड़ा वज़न डालते है तो अंतर्मन से यहीं सन्देश प्राप्त होत है की अनैतिकता,लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था और लोकतंत्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक अंपायर जैसी है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं,जो आचार संहिता है उसके चलते यहाँ क़ा मैंगों मैन तो इस खेल में महज़ एक मोहरा या बहुत सम्मान दिया तो,मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे अंपायर के तौर पर  चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि कोई खिलाड़ी खेल को कलुषित न करे जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मूकदर्शक मोहरे भड़क न जायें। जो चुनाव अपने आप में करोड़ों रुपये के निवेश वाला वैधानिक व्यवसाय हों और वहीँ दूसरी तरफ़ जहाँ देश की लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जीती हो,जहाँ आर्थिक असमानता, अवैज्ञानिकता और सच्चे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अनुपस्थिति हो; जहाँ व्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी न होकर कुछ विशिष्ट लोगों का स्वार्थ हो,वहाँ की चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकती है क्या? खैर बापस लम्बे वाले मुद्दे पर चलते  है.

इतनी लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव से चुनावी मुद्दे भी बदल जाते है और ये राजनैतिक,देशहित या जनहित क़ा न होकर बेहद निजी और क्रोधात्‍मक हो जाते है जो बाद के चरणों के चुनाव के लिये चिन्हित मतदाता वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित करता है.उदाहरण के तौर पर पहले दो-तीन चरणों के मतदान में मतदाताओं पर वॉड्रा टेप या स्नूप गेट क़ा प्रभाव नहीं था लेकिन उसके बाद यह मामला जो की अभी कानुनी तौर पर अधुरा है,को राजनितिक पार्टियों द्वारा इस चुनावी माहौल में एक ऐसे सिक्के के रुप में उछाला गया जिसमे स्थिति हेड है या टेल है स्पष्ट हीं न हो परन्तु ये सुनिश्चित अवश्य करे की जनता दिग्भ्रमित हो! और मीडिया रिपोर्ट पर यकीन करे तो अभी तक यह चुनावी गुगली कारगर रहा है. अब अन्त होते होते असम हिंसा को इस तरह तवज्जों दी जा रही है जिसमे चुनाव और चुनावी माहौल जिम्मेदार दिखता है और यह तुस्टिकरण सुनिश्चित करने के लिये राजनीतिज्ञों के लिये ब्रह्मास्त्र है,बोला जाये तो गलत नही होगा। क्या यह मतदाताओं के नैसर्गिक सोच को दूषित करने का अवसर प्रदान नही कर रहा?

इतने लम्बे चुनावी प्रक्रिया के बीच हो रही बेतुकी और वाहियात घटनाओ से वैसे मतदाता-वर्ग जहाँ एक चरण में मतदान हुआ और वैसे मतदाता-वर्ग जहॉं एक से अधिक चरणों में चुनाव हुआ,में मतदान में अभिनति उत्पन्न नही हुई होंगी?

क्या इतने लम्बे चुनावी प्रक्रीया की आवश्यकता है? क्या २०१४ आम चुनाव की लम्बी अवधि एवं कई चरणो में हो रहे चुनाव से मतदाताओं में प्रोसेस बायस या एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही कर रहा है ? जरा सोचिये !!!