Negative Attitude

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Wednesday, December 31, 2014

आप सभी मित्रों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

आप सभी मित्रों को नववर्ष-2015 की हार्दिक शुभकामनाएँ। परमात्मा इस नये वर्ष में आपके जीवन में बहुत सी नई खुशिया लाएं.नया वर्ष ढेर सारी सफलता और आशीषों से भरा हुआ हो.... 



Monday, October 20, 2014

शुभ दीपावली

शुभ दीपावली.…दीपोत्सवं भवतु मंगलमयम्..... प्रकाशपर्व दीवाली संपूर्ण जगत को शान्ति,सौहार्द्र,प्रेम और भाई-चारे से आलोकित करे एवं ... दीपावली पर्व की आपको और आपके प्रियजनों को अनंत मंगलकामनाएँ....



Wednesday, August 27, 2014

विकल्प

विकल्प,मानवीय जीवन में समय की शाश्वत गति के संक्रमण से उत्पन्न हो रहे विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने में एक औषधि की तरह कार्य करता है.सिर्फ परिस्थितियाँ हीं विकल्प नहीं तलाशती वल्कि विकल्प भी परिस्थितियाँ तलाशने को आतुर रहती है.क्योंकि परिवर्तन संसार का नियम है और यही परिवर्तन जब अनुकूल होता है तो अहंकार उत्पन्न करता है और यदि प्रतिकूल हो तो अवसाद को जन्म देता है।

परिवर्तन परिवर्तित होने पर इठलाता भी है और संताप से कराहता भी है क्योंकि ये खुद भी नहीं जानता है की वो अगले क्षण किस रूप में होगा। २०१४ लोकसभा चुनाव भी परिवर्तन के रूप में अनुकूल और प्रतिकूल से संतोषभरा संतुलन की उम्मीद के लिए था.गरीबो के विशाल जन समुह वाले इस गणराज्य में जीवन जीने के लिए दिन ब दिन बढ़ते संताप से राहत की आस के लिए था परन्तु हुआ क्या अमीरो के चश्मे से गरीबी फिर से ग्लूकोमा की शिकार हुई और भोजन,रोजमर्रा की वस्तुओं,शिक्षा और स्वस्थ्य की सुलभता के बजाये अनुकूल के पिटारे से अनगिनत स्मार्ट सिटी,बुलेट ट्रेन और अच्छे दिन के पोटली में ठुस ठुस कर भरी कड़वी दवा मिली। सत्ता मिलते ही चौकीदारी की दुनियादारी किले की चारदीवारी में गौरवान्वित होकर मौन हो गई.परिवर्तन की प्रदर्शनी इस तरह लगाईं गयी जैसे मानो भारत अब जाकर स्वतंत्र हुआ है.ब्रह्माण्ड की कई जम्हूरियत इसकी गवाह बनी और इतिहास में दर्ज होने की लालसा सफलता के साथ ऐतिहासिक होने का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया। आज परिवर्तन ही परिवर्तित होकर आम आदमी के संताप की तीक्ष्णता का कारण बन बैठा है.२०१४ लोकसभा में परिवर्तन से आम गरीब आदमी को क्या मिला जिससे ये कहा जाए की थोड़ी राहत है....मेरी राय में कुछ भी नहीं....हाँ ये हम भूल ही गए की मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में बहुत कुछ मिला जैसे वज़ीर-ए-आज़म की कार्यशैली,पिछली सरकार के पदाधिकारियों की छुट्टी एवं कड़वी दवा के भविष्य में होने वाले विस्तृत फायदे इत्यादि । अच्छे दिन की कड़वी दवा हमारे देश में रोड के किनारे पाये जाने वाले खानदानी दवाखाना की उस औषधि जैसी है जो रोग पर तो बेअसर होती है परन्तु रोगी को निःसंकोच वैराग्य का चरम एहसास कराती है.परिवर्तन प्राकृतिक हो तो यह संतुलन और सामंजस्य बनाने का ज्ञान और धैर्य आपको उपहार में प्रदान भी करता है किंतु अगर यही परिवर्तन क्रोध के दबाब में हो तो अनिश्चितता का भय सदैव बना रहता है. लोग अभी इसी राय में है की इतने बड़े देश में नयी लोकतंत्र का अच्छे दिन का मंत्र का असर दिखने में वक़्त लगेगा लेकिन मेरे मालिक.... मेरे अन्नदाता हमने तो आपके वादे के अनुसार ट्वेंटी ट्वेंटी के लिए इवीएम में बटन दबाया था लेकिन आप तो टेस्ट मैच खेलने लगे....कोई बात नहीं....विचलित न हो....पहली पारी का वायदा दूसरी पारी में पूरा करने का विकल्प खुला है अभी....

Monday, August 25, 2014

मदर टेरेसा....जन्म दिवस :26 अगस्त....माँ तुझे सलाम....

मदर टेरेसा....जन्म दिवस :26 अगस्त....माँ तुझे सलाम....

उन्होंने जो किया वह इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया। आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं फिर भी पूरी दुनिया में जिंदादिली के लिए उनकी मिसाल दी जाती हैं। समाज सेवा और मानव सेवा के क्षेत्र में उन्होंने जो किया वह शायद ही कोई कर पाए। कहा जाता है कि दुनिया में हर कोई सिर्फ अपने लिए जीता है पर मदर टेरेसा जैसे लोग सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं।


Monday, July 28, 2014

Friday, May 16, 2014

मैं समय हुँ...और मोदी भी

मैं गांधी भी हुँ और मोदी भी.मैं तुम्हारे साथ भी था और इसके साथ भी.मैं विजय भी हुँ और पराजय भी.मैं संयोग भी हुँ,प्रयोग भी हुँ,सदुपयोग भी हुँ और दुरूपयोग भी.मैं राम भी हुँ और रावण भी,मैं द्रौपदी भी हुँ और दुस्सासन भी.मुझसे दुर वही जाता है जो मुझे अपना दास समझता है.

क्या मुझे घड़ियों के निरंतर घूमते हुए कांटों से वर्णित किया जा सकता है? मैं तो अलग अलग देश के घड़ियों में भी अलग रूप में होता हुँ। मेरा कोई  स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों की गति और स्थिति का तुम्हारे भौतिक जीवन पर सूक्ष्म और स्थूल प्रभाव पड़ता है।

''प्रकृति के क्रम के अनुसार जीवन की गतिविधियां संचालित करने से जीवन की गुणवत्ता बढ़ जाती है। इसीलिए उचित समय की पहचान कर अपना काम करना सफलता का सूत्र माना जाता है। परन्तु विडंबना यह है कि उचित समय की पहचान के लिए हम कैलेंडर पर आश्रित हो गए हैं। कैलेंडर की तारीख से ऋतुएं नहीं बदलती,ऋतुएं प्राकृतिक नियमों के अनुसार बदलती हैं। कैलेंडर को चंद्रमा के हर दिन बदलते आकार से मतलब नहीं है,वो तो गणित की संख्या के आधार पर बदलता है।"


मैंने बहुत कुछ किया है पर मैं अपने ही रूप परिवर्तन की उपेक्षा की,इसकी आवाज़ को सुन नहीं पाया। मैंने सोचा था की कैलेंडर के सहारे परिवर्तन को टाल दुँगा लेकिन मैं ये भूल गया की कैलेंडर समय को विस्तार के रूप में प्रदर्शित तो करता है लेकिन प्रकृति में हो रहे परिवर्तन की सदैव उपेक्षा करता है। सूर्योदय या सूर्यास्त कभी भी हो,आधी रात के बाद तारीख अपने-आप बदल जाती है।

मैं ये भी भूल गया की मैं यानी परिवर्तन किसी के लिये नहीं रूकता....लेकिन मुझसे यानी परिवर्तन से लोग पीछे नहीं छूटते, इसके बजाए मैं यह कहूं तो ज्यादा सही होगा कि लोग मुझ तक पहुंच नही पाते हैं। मै समय हूं…मैं यहीं हूं…और कहीं नहीं हूं…

पर क्या सचमुच परिवर्तनरूपी नये पत्ते पुराने पत्तों का विकल्प बनते हैं?.....वो पतझड ....वो बहार....और वो मौसम के तीक्ष्ण थपेड़े ...जिनकी थकान जो पुराने पत्तों ने अनुभव की,क्या नये पत्तों को ठीक वैसा ही मौसम फिर मिल पायेगा....इन सवालों का उत्तर आने वाले कल के पिटारे में क़ैद है और इसकी चाभी परिवर्तन के पास है....और परिवर्तन ही खोलेगा इस पिटारे को.....विश्वास के साथ इंतज़ार करें!...पर सत्य तो यह है की पतझड के बाद राहगीर कभी भी पुराने पत्तों की छाँव वापिस प्राप्त नहीं कर सकता लेकिन नये पत्तों की नयी छाँव के साथ पुनः नयी यात्रा अवश्य आरंभ कर सकता है .....तो आइये श्री नरेंद्र मोदी रूपी नए समय का स्वागत करते हुए लोकतंत्र की नयी यात्रा का आरंभ करें।

लोकसभा २०१४ चुनाव में धमाकेदार सफलता के लिए श्री नरेंद्र मोदी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ....

Wednesday, May 14, 2014

एक्स्ट्रा इनिंग्स

पतन और परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है औऱ ये उन लोगो के उपर भी लागु होता जो विजयी भवः से आशीर्वादित है.जनादेश परमात्मा का सन्देश होता है और इसका इस्तकबाल हर खास-ओ-आम को करना ही चाहिए। मैं २०१४ लोकसभा चुनाव को भारतीय गणतंत्र  का सबसे दिलचस्प चुनाव मानता हूँ क्योंकि सम्पन्न होते युग में सपने बेंचना इतना आसान नहीं है और जिस तरह लोगो ने कीमत क़ी परवाह किये बिना इस बार सपनो को खरीदा है... क्या कहने!! लोकसभा वैसे तो राष्ट्रीय राजनीती है लेकिन जिस तरह से इस चुनाव में क्षेत्रीय राजनीती ने अपनी भागीदारी दिखाई है वो कबिल- ए- तारिफ है.इससे मतलबविहीन तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीती पर काफी हद तक लगाम तो लगेगा ही साथ साथ  राष्ट्रीय पार्टियों को ये समझने पर मजबुर करेगा की तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीती से कही ज्यादा संवेदनशील है क्षेत्रीय राजनीती,ध्यान नही दिये तो हिसाब क़िताब गड़बड़ाना तय है.

युग न ही समाप्त होता है,और न ही इसकि शुरुआत होतीं है... ये तो अपनी चाल में चलता रहता है... हमारे बदलते सोच परिवर्तन का एहसास दिलाते है... वर्ना ये सारे राजनेता उसी राजभवन के किरायेदार है.... ये तो बस सपनो की ऊँची कीमत के वादे पर कमरा बदल कर समझौते का विस्तार कर रहे है...

अब जबकी आप समझौते पर बटन दबा चुके है तो इंतजार कीजिये अच्छे दिन आने का जिसका शुभ ज्योतिषीय संयोग १६ मई से पांच वर्ष तक लगातार रहेगा..इस बार हर घर में बिजली के सपने के साथ साथ लालटेन भी खूब बिका.... एग्जिट पोल तो यही कहता है लालटेन मजबुती से बापसी कर रहा है....कही ये उस सपने की ओर तो इशारा नही  कर रहा जिसमें आप सपने देखते कुछ और है और उसका अर्थ निकलता कुछ और है....खैर अगर लालटेन की बापसी हो रही है तो लोड शेडिंग/बिजली की कमी की भी दमदार बापसी तय है...नोट कर लीजिये....

एग्जिट पोल की माने तो इस बार ओडिशा का शंखनाद भी लोगो को जाग्रित नहीं कर पाया और बिहार का तीर भी चिड़िया क़ी आँख का लक्ष्य भेद करने में चुक गया...वैसे इन दोनों राज्यों में विकास सिर्फ़ चुनावी मुद्दा नहीं था वल्कि हक़ीक़त में यहाँ निरन्तर विकास हो भी रहा हैं...पता नहीं इस चुनाव में ओडिशा के लोगो को इस मान्यता पर क्यों विश्वास नहीं हुआ की शंख की सर्पिल ध्वनी से नकारात्मक ऊर्जा का विनाश होता है.... बिहार का तीर भी क्यों ये समझने में नाकाम रहा की दांये हाँथ की अंगुलियों के मुकाबलें बाएं हाँथ की अंगुलियों में कोमलता कही ज्यादा होती है... भले ही दाहिने हाथ से तीर को अगर तेजी से छोडा जाये तो तीर सीधा शक्ति से निकालता है लेकिंग अगर अँगुलियों क़ी कोमलता का इस्तेमाल कर तीर छोड़ा जाये तो तीर घुर्पण करते हुए अपने भीतर की शक्ति से साथ काल को भी अपने चँगुल मे लपेटते हुए लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है....शायद सपनो के बम्पर सेल में परिपक्व राजनीतिज्ञों से साथ साथ जनता भी फेमिनिन आर्ट समझने में नाकाम रही....खैर युग समाप्त नहीं हुआ है... मरम्मत के लिये अभी भी वक़्त है... जोर और टशन तो दिखाना हीं होगा....एक समय अर्जुन की वाणों की रक्षा ने गुरु द्रोण को भी असफल बना दिया था...बंगाल और दक्षिण भारत की  क्षेत्रीय पार्टियों से सीख लीजिए,पहले घर को मज़बूत करे फिर उसका गुम्बद!... पहले ऑफिस को खूबसूरत बनाये फिर उसका वेबसाइट!...

कुलमिलाकर भारतीय सियासत में क्षेत्रीय पार्टियों की दमखम के साथ साझीदारी और सपनें बेचने कि राजनीति बदलाव के रुप में एक शुभ संकेत है जो कम से कम हर पांच वर्ष में कड़ी चुनावी प्रतियोगिता और कुछ हद तक सत्ता परिवर्तन आश्वस्त करने में सक्षम भी होगा...प्रधानमंत्री कार्यालय में हर स्तर पर बिदाई क़ी परंपरा शुरू हो चुकी है और अब प्रतीक्षा किजिये १६ मई का जो यह बतायेगा क़ी इसके बाद की परंपरा स्वागत ऐवं ताज़पोशी के लिए सीधा परिणाम आएगा या सुपर ओवर होगा...

  

Monday, May 5, 2014

इलेक्शन प्रोसेस या एलेक्शनिअरिंग बायस

२००४ आम चुनाव चार चरणों में,२००९ आम चुनाव पांच चरणों में और अब २०१४ आम चुनाव के लिए नौ चरणों में मतदान हो रहा है.लोकतंत्र का 36 दिन का यह चुनावी मेला भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे लम्बा है. माना की लंबे और कई चरणों में संपन्न होने वाले चुनाव का एकमात्र कारण सुरक्षा है.स्थानीय पुलिस पर सदैब पक्षपात का आरोप लगता रहा है है इसलिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है. इन सुरक्षा बलों को चुनावों के दौरान शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए उन्हें पूरे देश में भेजा जाता है. यही कारण है कि इसमें समय लगता है.लेकिन क्या इतने लम्बे चुनाव अनपेक्षित परिणामों की तरफ़ नहीं ले जाते हैं? इतनी लम्बी चुनावी प्रक्रिया सियासी संस्थाओं को क्या यह अवसर प्रदान नहीं करती है जिसमे उनका चुनाव प्रचार तीखा,भड़काऊ और कटुतापूर्ण हो? क्या यह मतदाताओं में एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही करता?

कई चरणों में होने वाले चुनाव से शुरुआती दौर वाले में लड़ने वाले प्रत्याशियों और दलों को नुकसान होता है क्योंकि उन्हें अपने चुनाव कार्यक्रम के लिए कम समय मिलता है.यहाँ इस बात से भी  इनकार नही किया जा सकता क़ी लंबी अवधि वाले चुनाव में उस पार्टी के जीत का अंतर बढ़ जाता है जिसके समर्थन में लहर होती है या जिसके बड़े अंतर से जीतने का पूर्वानुमान होती है.सामाजिक वैज्ञानिकों कि माने तो लंबी अवधि वाले चुनाव,चुनावी प्रक्रीया और मतदाताओं को दिग्भ्रमित करने में उतना ही कारगार होगा जितना क़ी चुनाव के दौरान या  इसके इर्द गिर्द किये जाने वाले ओपिनियन पोल और इस पर आधारित सियासी पार्टियों के लिये सीटो का पूर्वानुमान!

इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘प्रपंच’ खेलकर ही चुनाव जीतने की प्रथा रही है। इससे अतिरिक्त मस्तिष्क पर थोड़ा वज़न डालते है तो अंतर्मन से यहीं सन्देश प्राप्त होत है की अनैतिकता,लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था और लोकतंत्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक अंपायर जैसी है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं,जो आचार संहिता है उसके चलते यहाँ क़ा मैंगों मैन तो इस खेल में महज़ एक मोहरा या बहुत सम्मान दिया तो,मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे अंपायर के तौर पर  चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि कोई खिलाड़ी खेल को कलुषित न करे जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मूकदर्शक मोहरे भड़क न जायें। जो चुनाव अपने आप में करोड़ों रुपये के निवेश वाला वैधानिक व्यवसाय हों और वहीँ दूसरी तरफ़ जहाँ देश की लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जीती हो,जहाँ आर्थिक असमानता, अवैज्ञानिकता और सच्चे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अनुपस्थिति हो; जहाँ व्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी न होकर कुछ विशिष्ट लोगों का स्वार्थ हो,वहाँ की चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकती है क्या? खैर बापस लम्बे वाले मुद्दे पर चलते  है.

इतनी लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव से चुनावी मुद्दे भी बदल जाते है और ये राजनैतिक,देशहित या जनहित क़ा न होकर बेहद निजी और क्रोधात्‍मक हो जाते है जो बाद के चरणों के चुनाव के लिये चिन्हित मतदाता वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित करता है.उदाहरण के तौर पर पहले दो-तीन चरणों के मतदान में मतदाताओं पर वॉड्रा टेप या स्नूप गेट क़ा प्रभाव नहीं था लेकिन उसके बाद यह मामला जो की अभी कानुनी तौर पर अधुरा है,को राजनितिक पार्टियों द्वारा इस चुनावी माहौल में एक ऐसे सिक्के के रुप में उछाला गया जिसमे स्थिति हेड है या टेल है स्पष्ट हीं न हो परन्तु ये सुनिश्चित अवश्य करे की जनता दिग्भ्रमित हो! और मीडिया रिपोर्ट पर यकीन करे तो अभी तक यह चुनावी गुगली कारगर रहा है. अब अन्त होते होते असम हिंसा को इस तरह तवज्जों दी जा रही है जिसमे चुनाव और चुनावी माहौल जिम्मेदार दिखता है और यह तुस्टिकरण सुनिश्चित करने के लिये राजनीतिज्ञों के लिये ब्रह्मास्त्र है,बोला जाये तो गलत नही होगा। क्या यह मतदाताओं के नैसर्गिक सोच को दूषित करने का अवसर प्रदान नही कर रहा?

इतने लम्बे चुनावी प्रक्रिया के बीच हो रही बेतुकी और वाहियात घटनाओ से वैसे मतदाता-वर्ग जहाँ एक चरण में मतदान हुआ और वैसे मतदाता-वर्ग जहॉं एक से अधिक चरणों में चुनाव हुआ,में मतदान में अभिनति उत्पन्न नही हुई होंगी?

क्या इतने लम्बे चुनावी प्रक्रीया की आवश्यकता है? क्या २०१४ आम चुनाव की लम्बी अवधि एवं कई चरणो में हो रहे चुनाव से मतदाताओं में प्रोसेस बायस या एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही कर रहा है ? जरा सोचिये !!!

Tuesday, April 15, 2014

सावधान!...

प्रतिष्ठित और बदनाम दोनों ही मशहूर होते है... उदाहरणस्वरूप,आप अगर इन पर प्रतिक्रिया इकठ्ठा करना चाहे तो सभी इसमें मशरूफ दिखेंगे,चाहे वो इनके प्रति नकारात्मक विचार रखते हो या साकारात्मक! ऑडिएंस का उत्साह दोनों के लिए लगभग एक जैसा होता है.फिर प्रश्न ये उठता है की इस कटु सत्य से वाक़िफ़ होने के बाद भी क्या इसकी सेंटीमेंट एनालिसिस करनी चाहिए? फिर भी अगर हम इसकी सेंटीमेंट एनालिसिस करते है तो इसका अर्थ ये मालूम होता है की प्रतिष्ठा पर बनावटी उबटन लगा विपणन कर प्रसिद्धि में से सिद्धि का पतन कर रहे है...

दिल्ली की राजनीतिक दुर्घटना फिर किसी भी प्रान्त में दोहराई नहीं जानी चाहिए। दिल्ली की जनता ने मीडिया के प्रोत्साहन पर झाड़ू अपनाया और झाड़ू दिल्ली की जनता की सेवा करने के वजाए राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर होने में मशरूफ है.दिल्ली आज संबैधानिक तौर पर अस्थायी व्यवस्था के अधीन जीने को मजबूर है. दूरदर्शिता और सेवा की भावना किसी संस्था से ज्यादा उससे जुड़े व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में होता है  और  इसकी मिशाल रही है श्रीमती शीला दीक्षित जिन्होंने दिल्ली के विकास की एक अलग एवं अद्भुत दिशा प्रदान की लेकिन अपनी दिल की सुनने के वजाए वाणिज्य के चादर में लिपटे मीडिया के प्रोत्साहन पर दिल्ली के लोगो ने अपना मत व्यर्थ गंवाया और साथ साथ दिल्ली के लिए कुछ करने की सोच रखने वाली एक कर्मठ महिला को भी ? इससे कुछ और नहीं वल्कि स्वाद बदलने के चक्कर में आपका विकास का रुख बदल और रुक भी जाता है,साथ साथ आप एक ऐसे माहौल,ऐसे ज्योतिषीय योग को गँवा देते है जो कुलमिलाकर आपके धरातल के लिए फलदायी होता है. बिहार की जनता इस बात का जरूर ख़याल रखे और किसी तरह के गफलत में न पड़े,आज़ादी के बाद आज पहला ऐसा मौका है जिसमे आप बिहार के लिए जो कुछ भी अच्छा बोल या लिख गौरवान्वित महसूस कर रहे है वो सिर्फ और सिर्फ श्री नीतीश कुमार के दूरदर्शिता और सेवा की भावना का परिणाम है और अगर आप अपने वोट के जरिये इस सोच और लगन का समर्थन नहीं करेंगे तो परिणाम में व्याधि और दिल्ली जैसा हालात ही मयस्सर होगा. आप राजनीतिक संस्थाओं के संयुक्त परिवारवाद से दूर रहे,इनकी एक दूसरे के प्रति कटुता,बिखराव और मिलन एक वायरल बुखार जैसा होता है जिसमे स्वार्थ के एंटीबायटिक का कोर्स पूरा होते ही तापमान सामान्य हो जाता है.आप अपना वोट अपना,अपने समाज,अपने क्षेत्र  और अपने देश के विकास और समृद्धि को ध्यान में रख कर दे ना की प्रचार और घोषणा पत्र को देखकर,घोषणा पत्र तो राजनीतिक संस्थाओं द्वारा सार्वजनिक प्रलोभन का संवैधानिक जरिया है जो ना तो कभी पूरा होता है और ना ही पूरा करने के उद्देश्य से जारी किया जाता है! ये तो वयस्क फिल्मो के सीक्वल जैसा होता है जिसमे पहले पार्ट में पोस्टर पर अश्लीलता होगी तो दूसरे पार्ट में फिल्म में,ताकि ऑडिएंस की संख्या बड़ी हो और उनमे से ज्यादा से ज्यादा लोगो को अपने दरियादिली के सम्मोहन में फसाया जा सके?

अच्छी और प्रगतिशील सोच का समर्थन करे, चुनाव चिन्ह तो एक सुक्ष्म धागा है जो एक संस्था के घोषित आदर्शो को बाँध कर रखता है,भाषण में इस्तेमाल शब्द तो बस तत्परता के घोतक है,मतलब कहाँ है इसमें और ना ही इसकी कोई क़ानूनी महत्ता है जिसके जरिये आप ये पूछ सके की आपने ये वादा किया था और पूरा नहीं किया? वैसे दोस्तों शब्दों और उससे जुड़े मतलब को खंगाले तो ध्यान रहे... अरविन्द का समानार्थी शब्द कमल भी होता है....

ऊँगली के सहारे के बिना कलम का जोर भी फीका होता है ठीक उसी तरह वोट का असर और सदुपयोग भी इसी ऊँगली के अधीन है.… इसलिए मतदान अवश्य करे लेकिन सही सोच के साथ और किसी पार्टी या प्रत्याशी की विजय के लिए नहीं वल्कि अपनी जीत सुनिश्चित करे.…प्रजातंत्र का ससक्तिकरन इसी में निहित है!

मैं अपने गृह राज्य से बाहर परप्रांति समुदाय से ताल्लुक रखता हूँ और मेरा उद्देश्य इस आलेख के जरिये किसी व्यक्ति या संस्था को आहत करना नहीं है,मैं तो बस जन सशक्तिकरण के अधिकार अभिव्यक्ति की आज़ादी की अनुभूति करना चाहता हूँ....

Thursday, March 13, 2014

अरविन्द,कर और पुष्कर,कैसा लगा सुनकर

देखा है पहली बार चुनाव का ऐसा वयार
रागा और नमो की थाली से दोतरफा प्रचार
लड़ते दोनों ऐसे जैसे होगा महाभारत फिर एक बार
इनके थाली भले हो अलग अलग पर मुद्दे नहीं हुए तार तार
देखा है पहली बार चुनाव का ऐसा वयार
आम आदमी भी है मैदान में इस बार
सावधान, प्रचार में पीड़ा है और है महंगाई की मार
शक्लो सूरत पर मत जाना करते झाड़ू से ये अंग मार
आजकल ये भी फ़िरक़ी में हो गए है बीमार
सेटिंग का चस्का इनको भी लग गया है यार
संभल जाए नहीं तो ये सिक्स पैक्स का हाथ है
पुष्कर भी इनके साथ है,चित्त हो जायेंगे जब होगा प्रहार
अरविन्द,कर और पुष्कर,कैसा लगा सुनकर
जी आप ही को बोल रहे है,पांच साल की बात है
सोच कर बटन दबाना वर्ना हो जाएगा बंटाधार...:)



मताधिकार का प्रयोग अवश्य करे....जय हिन्द!! 

Wednesday, February 19, 2014

तेलंगाना-मैं धर्म के अनुसार जीता हूं या नहीं?

तेलंगाना बिल पर कल यानि 18 फ़रबरी 2014 (तृतीया, फाल्गुन, कृष्ण पक्ष,२०७० विक्रम सम्वत) को लोकसभा कार्यवाही का सीधा प्रसारण कार्यवाही के बीच में थोड़ी देर के लिए रुक जाना एक निंदनीय घटना माना जाना चाहिए परन्तु इसके ठीक बाद संसद से बाहर आकर गणमान्य सांसदो द्वारा संसद के भीतर का आँखों देखा हाल वयां कर हाय तौबा मचा हमारे नेतागण क्या बताने कि कोशिश कर रहे है? क्या ये यह बताने की कोशिश कर रहे की इन्हे कार्यवाही के दौरान नजरबन्द कर दिया गया था या यह अल्पकालिक व्यवस्था इनकी दोमुखी चरित्र  को ध्यान में रख कर बनाया गया था जिसमे लोकसभा कार्यवाही का सीधा प्रसारण रोकना,बिजली गुल होना एवं संसद के द्वार पर भारी मात्रा में मंत्रियो के लिए संतरियों को तैनात किया जाना आदि शामिल है. इस महंगाई प्रधान युग में जहाँ आम लोगो को रोजाना इस्तेमाल होने बाले मिर्च खरीदने से पहले महंगाई रूपी दर्द(उह-आह-आउच) को निष्प्रभावित करने के लिए मूव मरहम लगाना पड़ रहा है वहीँ जनता के नुमाइंदे ६०० रुपये प्रति किलोग्राम के मूल्य पर बिकने बाली इस महंगी पिप्पली कुल के वनस्पति काली मिर्च के चूर्ण एवं चाक़ू जैसे घातक औजार से से देश के संसद पर हमला कर रहे है... [महंगाई के असर में भी कितनी विषमता है?]  और साथ में यह भी कहते है कि हमारे लिए संतरी क्यों तैनात किया? जनाब जैसे आपकी विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए आपकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार संतरी मुहैया कराती है तो आपको इन संतरियो पर कोई ऐतराज़ नहीं होता है लेकिन अब तो आपके इस कुकृत्य से संसद को खतरा है. आपने तो अब संसद को पंचायती अखाड़ा बना दिया है जहाँ संबिधान नहीं आपका आन बान शान और अभिमान का साम्राज्य चलता है ऐसे में आपसे सुरक्षित रहने के उपाय तो अपनाने ही होंगे और अगर आप इस उपाय(यानि लोकसभा  कार्यवाही का सीधा प्रसारण रोकना,बिजली गुल होना एवं संसद के द्वार पर भारी मात्रा में संतरियों की तैनाती आदि) को आपातकाल जैसे शब्द के साथ मीडिया को अपना घड़ियाली आंशु दिखाते है तो ऐसे में हमें महाभारत का एक श्लोक याद आता है ‘अनीशेन हि राज्ञैषा पणे न्यस्ता’अर्थात् राजा युधिष्ठिर ने खुद को जुए में हारकर द्रौपदी को दांव पर लगाया.किसे ज्ञात नहीं की द्रोपदी का चीर हरण पुरे राजसभा के समक्ष एवं प्रतिष्ठित कौरवो और पांडवो के समस्त परिवार के माजूदगी में हुआ था पर इसको रोकने के लिए किसी भी योद्धा की शक्ति आगे नहीं आयी.याद कीजिये महाभारत का वो अध्याय जब विदुर द्वारा द्रौपदी को राजसभा में लाने से साफ मना कर देने पर दुर्योधन ने अपने एक दूत प्रातिकामी को द्रौपदी को राजसभा में लाने का आदेश दिया था। प्रातिकामी तीन बार गया परन्तु द्रौपदी ने हर बार उसे एक-एक सवाल पूछकर वापस भेज दिया। पहली बार का सवाल था,‘जाकर उस जुआरी महाराज से पूछो कि वे पहले खुद हारे थे या पहले मुझे हारे थे? और युधिष्ठिर कोई उत्तर नहीं भिजवा पाए थे । दूसरी बार द्रौपदी का सवाल कुरुवंशियों से था, ‘कुरुवंशियों से जाकर पूछो कि मुझे क्या करना चाहिए? वे जैसा आदेश देंगे, मैं वैसा करूंगी। सवाल सीधा धृतराष्ट्र और भीष्म सरीखे कुरुवंशियों से था और आदेश भी उन्हीं से मांगा जा रहा था, पर वे सब सिर नीचा किए रहे और उनके मुंह सिले रहे।हर युग के इतिहासकारों की जमात ने द्रौपदी पर आरोप लगाया की वह पांच पुरुषों की पत्नी है और इसलिए दुश्चरित्र है। परन्तु  पांच पतियों की अकेली पत्नी के रूप में द्रौपदी का आचरण् इतना आदर्श और अनुकरणीय माना गया की महाभारतकार ने उसके इस पत्नी रूप को दैवी गरिमा प्रदान कर दी और कई ऐसी कथाओं-उपकथाओं की सृष्टि अपने प्रबंधकाव्य में की जिससे द्रौपदी का जीवन दिव्य वरदानों का परिणाम नजर आए। जैसे कुन्ती के प्रणीत पुत्रों को देवताओं का आशीर्वाद बताकर गौरव से भर दिया गया, वैसे ही द्रौपदी के पांच पुरुषों (बेशक पांचों भाइयों) की पत्नी होने को भी तपस्या और वरदान का नतीजा बताकर उसे आभा से भर दिया गया। महाभारतकार और इतिहास का द्रौपदी के प्रति इससे बड़ा श्रध्दावदान और क्या हो सकता है?

आज संसद का हाल भी द्रौपदी के जैसा हो चला है,भारतीय लोकतंत्र में सत्ता रूपी जुए में पराजित या पराजित होने के भय से असुरक्षित प्रत्येक धर्मराज आज अपनी जरुरत के अनुसार संसद को दांव पर लगा अपनी राजनीति चमकाना चाहता है.अलग तेलंगाना राज्य की मंजूरी या यूँ कहे की सीमांध्र से तेलंगाना क़े तलाक पर लोकसभा कार्यवाही का सीधा प्रसारण पर अल्पकालिक रोक और बिजली गुल होना द्रौपदी के प्रश्न - मैं धर्म के अनुसार जीती गई हूं या नहीं? और इस पर भीष्म का जवाब जिसमें भीष्म बोले कि धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण मैं कुछ बता नहीं सकता का याद दिलाता है.विपक्षी पार्टियां तेलंगाना मुद्दे पर संसद की कल की घटना पर सत्ताधारी दल की तीखी आलोचना भी कर रहे है तथा राजनीति धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण संसद के अंदर तेलंगाना के इस प्रश्न मैं धर्म के अनुसार जीती गई हूं या नहीं? का कोई उत्तर देना नहीं चाहते !! लेकिन तेलंगाना पर धर्मराज युधिस्ठिर बन यही सन्देश देना चाहते है की अगर तुम रजस्वला और एकवस्त्र होने के बावजूद राजसभा में आओगी तो सभी सभासद मन ही मन दुर्योधन की निन्दा करेंगे। परन्तु चीरहरण तो अटल है,इसको कोई कैसे टाल या विरोध कर सकता है? क्यों नहीं समझते तेलंगाना के मुद्दे पर राजनीति का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है यहाँ!!

Thursday, January 9, 2014

क्षमाप्रार्थी

आप के वयार में हम संभलने लगे
सोहबत में आप के हम निखरने लगे
इस कदर आप से हमको मोहब्बत हुई
टूटके हाथ में बिखरने लगे

आप जो इस तरह से आगे बढ़ जायेंगे 
ऐसे आलम में पागल हम हो जायेंगे
वो मिल गया जिसकी हमें कबसे तलाश थी
बैचैनी इस सांसों में सिर्फ़ नमो नाम की थी
सड़को से संसद में हम अब विचरने लगे
इस कदर आप से हमको मोहब्बत हुई
टूटके हाथ में बिखरने लगे 

सत्ता की ताप से तन पिघल जायेगा
हाथ लग जायेगी मन मचल जायेगा
जलवा दिखा जो दिल्ली के वोट से
चिंगारियां उड़ने लगी प्रजा के शोर से
हम सनम हद से आगे गुजरने लगे
इस कदर आप से हमको मोहब्बत हुई
टूटके हाथ में बिखरने लगे ...:)



[उद्धरण:-हिंदी फ़िल्म-राज़]