Negative Attitude

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Tuesday, December 31, 2013

नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष

आप सभी को नव वर्ष 2014 की हार्दिक शुभकामनाएं..

{नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष }

 
उत्सव मना ये साल भी चला जायेगा
प्रज्ज्वलित छोड़ उम्मीद की मशाल को
कैसी रौशनी थी इसकी फिक्र ही क्यों करे
मशाल अभी है जल रहा फिर जिक्र रौशनी की क्यों करे
रीति निभा प्रीति निभा ये साल चला जायेगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष
कल से हर लम्हा नवीन कहलायेगा
नव वर्ष का नव संघर्ष,उम्मीद की मशाल को
प्रज्ज्वलित रहे सदा इस प्रयास में जुट जाएगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष
कल से हर रीति हर प्रीति नवीन होने पर इतराएगा
पुरातन रिवाज पुरा साल नुतन कहलाएगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष

Thursday, December 26, 2013

देवदासी या देवदूतों की दासी

दिव्य शक्तियों के प्रति आस्था के शब्द देवता या भगवान् की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई ‘देवदासी प्रथा’ श्याम एवं स्वेत रूप में भले ही समाप्त हो गई जैसी दिखती हो,लेकिन आर्यावर्त्त में शोषित देवदासियां आज भी हैं। हाल ही में मिलाप (एक गैर सरकारी संस्था) द्वारा आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लेने का मौका मिला। आइये थोडा मिलाप के बारे बता दूँ। मिलाप एक ऐसी संस्था है जो गरीब एवं सामाजिक शोषण के शिकार महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य करती है.मिलाप द्वारा आयोजित इस सेमिनार से मैं यह जानकार बहुत विचलित हुआ की देवदासी प्रथा जैसी कुरीति आज भी धर्म और धार्मिक परम्पराओं के नाम पर पूरी तरह से सार्वजनिक तौर पर हमारे समाज में चल रहा है. देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी महिलाओं को कहते हैं, जिनका विवाह किसी पुरुष से नहीं...जी हाँ किसी पुरुष से नहीं वल्कि मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। इनका काम मंदिरों की देखभाल,नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग के शिकार का धर्माधिकार भी प्राप्त  है। आज जहां महिला अधिकारों को लेकर आंदोलन हो रहे है,महिला अधिकारों को लेकर सरकारें बन रही है,सरकारें गिर भी रही है,नारी शोषण विरोधी ससक्त कानून बने और महिला ससक्तिकरण के लिए अनेक सरकारी योजनाओ के साथ साथ विशेष रूप से महिला बैंक खोले गए बावजूद इसके कर्नाटक,महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं,जहाँ देवदासी प्रथा धर्म और धार्मिक परम्पराओं के छत्रछाया में सेवा के नाम पर विलासिता का साधन बन महिला ससक्तिकरण के नाम पर देश की तमाम मीडिया में हो रहे बहस और जनांदोलन बस औपचारिकता एवं दिखावा सिद्ध करता है.

धर्म के इस रंगीन रिवाज़ में DJ भी है,VJ भी है और आपके सहारे के लिए टु(TOOH) भी है जो आपकी मदहोश गुस्ताखियों का पूरा ख़याल रखता है। है कोई समाजशास्त्री या कानूनविद् जो इस अद्भुत विवाह प्रथा को परिभासित कर आज के युग में समानता और समलैंगिक अधिकारो के बराबर क़ानूनी वजन दिला सके ताकि न्याय मानवीय मूल्यो के रक्षा से ज्यादा ऐतिहासिक होने पर इतराये। संस्कृति और असंख्य परम्पराओं के अभिभावक इतिहास को देखे तो राजाओं और सामंतों के लिए इस तरह का रिवाज भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान था। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण है या यूँ कहे कि फ़िल्म वही है सिर्फ पोस्टर में थोड़ी सी तब्दीली आयी है.

 

है कोई धर्मगुरु जो अपने धर्म सम्मेलनो में धर्म के इस रंगीन रिवाज़ का विरोध कर इसके लिए कार्य करे? कैसे विरोध करेंगे-धर्म के व्यापारी बने ब्रह्मचारियों को इन रिवाजो के जरिये मनोरंजित होने का धार्मिक विशेषाधिकार जो प्राप्त है.हाल ही में समलैंगिक अधिकारो को लेकर न्यायालय से लेकर संसद तक इस मामले को ऐतिहासिक बनाने में व्यस्त दिखा लेकिन इस प्रकार के धर्म  के नाम पर ब्रांडेड शोषण को मानवीय मूल्यो से जोड़ने की न कोई सोचता है और न ही इनके लिए किसी की संवेदना पीड़ा में बदल पाती है... देवदासियों को तो ऐतिहासिक होने का तमग़ा सदियों से है ही.…फिर कोई भी मीडिया इस मुद्दा को क्यूँ अपनाएगा ? इस कुरीति का ना तो नागरिक शास्त्र में जगह है और न ही समाजशास्त्र में,बस एक इतिहास ही है जो आज तक इस कुरीति को इस इस आस में ढो रहा है की कब कोई तारणहार मिले और इस घिनौनी रवायत से शोषित स्त्रियो को आजाद कराये। इनके मानवीय मूल्यो और अधिकारो का ऐतिहासिक होने से ज्यादा सामाजिक होना जरुरी है ताकि ये भी एक आम सामाजिक प्राणी जैसा जीवन व्यतीत सके.मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग से लैस भारतीय प्रजातंत्र में इस तरह के रिवाजो की विद्यमानता इस बात का प्रमाण है की मानवीय अधिकारो की रक्षा के लिए बने ना ना प्रकार के संस्थाएं राजनीती और धर्म के कुचक्र के आगे इतने मजबूर है की मानवाधिकारो का सार्वजनिक एवं ब्रांडेड हनन भी इनको दिखाई नहीं देता ?
सदियों से चली आ रही देवदासी प्रथा धर्म के नाम पर हमारे इतिहास और संस्कृति का एक पुराना और घिनौना अध्याय है और अब इसका क्रिया कर्म होना बहुत ही जरुरी है वर्ना महिला ससक्तिकरण के तमाम सरकारी दावो की विश्वसनीयता सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में दिखेगी?

Thursday, December 12, 2013

परिवर्तन की आशा बना तमाशा

दिल्ली में परिवर्तन की राजनीति की  ऐसी दुर्दशा होगी किसको पता था... संबिधान भी मजबूर...और विधि का विधान भी...किसको पता था की परिवर्तन की आशा एक तमाशा के रूप में उभरेगा? लोकशाही का ये तमाशा हमें ये सोचने पर मजबूर का रहा है कि विकास का मुद्दा का विकास अब रुक गया है.… या यूँ कहे कि भारतीय राजनीती में विकास एक सोफिस्टिकेटेड मुद्दा हो चला है जिसमे भारतीय जनसँख्या का वही १५-२०% अपमार्केट लोग है जो इस मुद्दे से अपने आप को जोड़ पाते है या कही ऐसा तो नहीं कि भारतीय राजनीती में सत्ता को फैंटसी मानने वाले लोग देश की तमाम मीडिया का दुरूपयोग कर विकास को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत कर महंगाई के सामने विकास को ही भारत के विकास के आगे दोषी मान देश को गुमराह कर रहे है क्योंकि सत्ता का मुख्य ईंधन अर्थशास्त्र यह कहता है कि महंगाई विकास का साइड इफ़ेक्ट है और विकास होगी तो महँगाई बढ़ेगी ही. मोटे मोटे तौर पर ये कहे कि पेट्रोलियम उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारो से जोड़ना और सब्सिडी को समाप्त कर आधार योजना के जरिये DBT (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर) सरीखे योजनाओ से उपभोग की विशुद्धता बढ़ाने का प्रयास विकास के इसी साइड इफेक्ट्स का सुधारक उपाय ही तो है तो गलत नहीं होगा।

बचपन में हमारे बुजुर्गों से जब विदेश जाने से सम्बंधित कोई वार्तालाप होती थी तो यही कहते थे अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो बम्बई में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यह कुछ और नहीं बम्बई के विकसित होने का प्रमाण था.लेकिन आज के हालत में यहाँ कि स्थिति ऐसी है जैसी पाव(पाव बोले तो पावरोटी) के बीच में चटनी के साथ वडा का होता है… ऊपर से प्रतिष्ठा और विरासत और निचे से तेज रफ़्तार जिंदगी का लाइसेंस और बीच में बड़ा जो बड़ी इज्जत से बेसन के लेप के साथ फ्राई होकर भूख की मजबूरी को इज्जत प्रदान कर रहा होता और अब तो प्रतियोगिता ऐसी की यह जंबो के नाम से भी जाना जाने लगा है... हो भी क्यों न सब चीज विकास के दौड़ में है तो फिर मज़बूरी भी पीछे क्यों रहे... मज़बूरी भी अब जंबो हो गया लेकिन विदेश वाली धारणा या अग्रेजी में स्टेटस बोल लीजिये चाहे फीलिंग यह जंबो नहीं बन पाया।

पर आज हमारे अनुज विदेश जाने से सम्बंधित मुद्दे पर सलाह मांगे तो उन्हें यही बोलूंगा अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो दिल्ली में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। आज की तारीख में दिल्ली में वो तमाम संसाधन है जो विदेशो में होता है.रही बात महंगाई की भारत के प्राचीन विदेश के मुक़ाबले भारत के नए विदेश मे सब कुछ सस्ता है.…बिजली का बिल,पेट्रोल से लेकर डीजल तक.…रही बात भ्रष्टाचार की यह मुद्दा भी है और मानसिकता भी और इसके लिए सिर्फ सियासी संस्थाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता...मौका मिलने पर हम सभी इस पर NOTA का विरोध करेंगे। दिल्ली में जो विकास हुआ है वो भारत के किसी भी शहर के मुक़ाबले अद्वितीय है और इसका नायक कोई और नहीं श्रीमती शीला दीक्षित है.…विकास का जज्बा किसी सियासी संस्था या चुनावी मैनिफेस्टो (जिसका महत्व चुनाव में संबिधान से कम नहीं होता है) में नहीं होता। यह तो किसी व्यक्ति विशेष का जूनून होता जिसकी प्रजाति हमारे हिंदुस्तान की सत्तातंत्र में दुर्लभ ही है।

चमत्कार होगा जरूर यह परिवर्तन रूपी एक टोटका है जो ज्यादातर सत्य नहीं होगा यह तो कन्फर्म है परन्तु सत्य ही होगा ये निश्चित तौर पर IRCTC के प्रतीक्षा सूची जैसा है जिसमे ये खतरा सदैब बना रहता है कि कही यात्रा के ऐन वक़्त पर विदाऊट टिकट न हो जाऊ. चुनाव के बाद भी सरकार न बन सके यह संवैधानिक संकट अपरिपक्व लोकतंत्र के संकेत है जिसमें बहुमत में बदलाव की भावना अभी भी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है.पांच साल में एक बार से ज्यादा चुनाव होना देश के अर्थ तंत्र पर एक थोपी हुई मजबुरी है जो किसी भी दृष्टिकोण से न राष्ट्र के हित में है और न ही जनता जनार्दन के हित में. गुस्सा के आगोश में निर्णय सदैब घातक होता है और दिल्ली भी इसी खुन्नस में आज न हार से दुखी है और न जीत से सुखी? वर्त्तमान भुतकाल हो जाने से या भुतकाल वर्त्तमान हो जाने से सब कुछ अचानक से ठीक हो जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है...जो दीखता है वो थोड़ा ज्यादा बिकता है पर टिकता कितना है वह भी सोचना जरुरी है…अगर आप इसको बायस्ड सोच मानते है तो NOTA वाला लोटा भी देखिये पानी से लबालब मिलेगा..

लोकतंत्र में क्रांति प्रतिशोधात्मक नहीं होनी चाहिए…क्रांति हो तो ऐसी हो जो अवगुण के विरोध के साथ सदगुण का सम्मान भी करे…वर्ना कही ऐसा न हो कि शकुनि के प्रतिशोध के महाभारत युद्ध की तरह सबकुछ समाप्त हो जाए और अवशेष के रूप में बचे तो महाभारत की किताब जिसमे धर्म और अधर्म आज भी यही उधेड़बुन में हो कि आखर इस महाभारत में विजयी कौन हुआ ?

Saturday, December 7, 2013

दिल्ली मतगणना विशेष-आज का राशिफल

AAP आयें है इस बगिया में,फूल खिले है गुलशन गुलशन
[मेष (च, चू, चे, ला, ली, लू, ले, लो, अ, आ)]
आज आप अंतर्मुखी और शांत रहेंगे। आज आपके मित्र व संबंधी आपके गांभीर्य के संबंध में जान पाएंगे। आप किसी की ज़रूरत में सहायता कर सकते हैं। किसी मेहमान के साथ सुबह या रात के भोजन की जिम्मेदारी आप पर आने के योग हैं।

Be-JayPee
[धनु (ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे)]
संभव है कि आज आप उस समस्या का सामना करें जो पिछले कई वर्षो से सर उठा रही है। आज आप उस समस्या को सफलतापूर्वक समाप्त कर सकेंगे। ये भी संभावना है कि आज आपके आस पास के लोग आपके विश्वास को अर्जित कर अपने व्यावसायिक या व्यक्तिगत गुप्त तथ्यों को आपके साथ बांटे।

Kaun-Greyss
[मिथुन (क, की, कु, घ, ङ, छ, के, को, हा)]
आज संभव है कि आपके अधिकारी आपके समक्ष किसी जटिल समस्या का समाधान खोजने को कहें। अपने काम के प्रति समर्पित व लक्ष्य के प्रति जागरूक होने के कारण आप इसका हल आसानी से निकाल लेंगे। ये भी हो सकता है कि कोई प्रभावी मित्र आपकी मदद कर सके।...

फैसला आपका सर आँखों पर जनता जनार्दन

बेचैन आँखों में अटकलों का वो मंजर दीखता है
खंजर कहीं न बन जाए जीत का ये जिद्द 
आज की रात ख़त्म ही न हो यही दुआ कर रहा हूँ
बबंडर कहीं न बन जाए जीत का ये जिद्द
लूट खसोट,वादाखिलाफी काश समय रहते आँख खुल गयी होती
भयंकर सा लगने लगा है अब जीत का जिद्द
कभी तख़्त तो कभी जमानत जब्त,क्या कहुँ
बेअसर सा लग रहा है जीत का ये ज़िद्द
लेख तो सही था पर किरदार वार कर गया
कल कही कहर न बरपाये जीत का ये ज़िद्द
फैसला आपका सर आँखों पर जनता जनार्दन
आपका प्रीत फिर लौटाएगा जीत का ये ज़िद्द..

Friday, December 6, 2013

एक बार फिर…चंद शब्द ऐंवे ही

एक संत,रंगभेद विरोध के प्रणेता नेल्सन मंडेला अब हमारे बीच नहीं रहे.…नेल्सन मंडेला .…एक ऐसी शख्सियत, जिसने दुनियाभर में रंगभेद के विरोध में आवाज को बुलंद किया. हालांकि मंडेला एक सम्मानित कबीले थेंबू से आते थे, पर उन्होंने बचपन से ही देखा था कि कैसे अश्वेतों के साथ अन्याय किया जाता है. भारतीय होने के नाते मुझे यह बहुत विचित्र लगता है कि उन्होंने रोल मॉडल के रूप में महात्मा गांधी जी को नहीं, नेहरु जी को स्वीकार किया। उन्होंने यह भी साफ़ तौर पर कहा था कि अहिंसा को उन्होंने नीति के रूप में स्वीकार किया,सिद्धांत के रूप में नहीं। वैसे हम भारतीय भी भेद को हलके तरीक़े से नहीं देखते ,हमारे यहाँ तो यह विकाशशील होने के ठप्पे के साथ विकास कि राजनीती का आँवला है जिसके फ़ायदे हजार है और रख रखाव पे खर्च न के बराबर। देखिये न कैसा विचित्र संयोग है दुनिया के भेद से लड़ने वाला एक महान नेता का आज निधन और 21 साल पहले आज ही के दिन अयोध्या में एक और ऐतिहासिक भेद का भूमिपूजन किया गया था.भेद क्या है? मेरी नजर में यह एक असुरक्षित मानसिकता है जो हर समय अपना वर्चस्व कायम रखने के फ़िराक़ में लगा रहता है और यही मानसिकता आकर्षित करती है उन सियासी लोगो को जो जनमत के ध्रुवीकरण तलाश रहे होते है और फिर इसी से शुरू हो जाती है उत्थान और पतन का विपणन। जातिवाद का भेद,प्रांतवाद का भेद,भाषा कि राजनीती,भीतरी रेखा परमिट से लेकर अभी के समय की बहुचर्चित धारा 370। सियासी लोगों केलिए ये इतना मायने रखता है कि इन सब से हम तमाम भारतीयों को रु ब रु कराने,समझाने के लिए प्रज्ज्वलित टैगलाइन के साथ रैलियों में करोडो फुक देते है और हम बिना कुछ सोच विचार किये उसी चोले में सज बलबूता नहीं तो लात जूता का सूत्र अपना मानवता के शोषण में जी जान से जुट जाते है.जिसे सियासी लोग मुद्दे कहते है असल में वो सामाजिक समस्याएं है और मुद्दों पर तो सियासत हो जाती है परन्तु समस्यायों पर सियासत हो नहीं सकती तो फिर अपनाने कि बारी हो या गोद लेने कि बारी हो समस्यायों को कौन पूछने वाला है,मुद्दे ही अपनी आइटम अच्छी होयेंगी न भाई ! इतिहास साक्षी है,जब मुद्दा एक था तो क्रांतिकारियों कि कतार लगी थी और दुर्भाग्य आज विकास के नाम पर मुद्दो कि तादाद बढ़ी है तो क्रातिकारियों कि आकाल पड़ी है और हो भी क्यों न मुद्दे भी तो किसी न किसी तरह के भेद से संक्रमित हो गए है और इस संक्रमण में पड़ना भी नहीं चाहिए…हमें इसका पक्षधर होने में कोई संकोच नहीं होता। मुद्दो का एकीकरण महत्वपूर्ण है और जब तक मुद्दे वहुवचन से एकवचन नहीं हो जाते जन क्रांति का अलख नहीं जगेगा और ना ही महात्मा गांधी मिलेंगे…ना ही नेल्सन मंडेला…मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है... हम सब भूलने लगे है इस बात को... ऐसा प्रतीत होता है?