Negative Attitude

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Sunday, February 24, 2013

महाराष्ट्र भयंकर सूखे की चपेट में...

महाराष्ट्र 40 वर्षों के सबसे भयंकर सूखे की चपेट में है। इस भयंकर सूखे ने मराठवाड़ा के बहुत से किसानों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। नया फसल फिर से खड़ा करने के लिए ना तो उनके पास पैसा है और न पानी। अगर किसान को समय चलते मदद नही मिली तो वो कर्ज और आर्थिक नुकसान के बोझ के तले दिन-ब-दिन दबते चले जायेंगे। यह वही मराठवाडा है जहाँ से पुरे देश में मोसंमी और अनार की आपूर्ति होती है। एक अनुमान के मुताबिक इस साल सिर्फ मराठवाड़ा में सूखे की वजह से करीब 3 हजार करोड़ का नुकसान होने की आशंका है।

प्रकृति जब अप्रसन्न होती है, तो उसके कोप से जूझने की हमारी तमाम तैयारी अक्सर कम पड़ जाती है। बाढ़, सूखा और अकाल इसी की परिणति हैं। दूसरी तरफ, प्रकृति जब कुछ देना चाहती है,तो हमारे पात्र छोटे पड़ जाते हैं और हम उस उपहार को समेट नहीं पाते। इस साल अपेक्षा से कई गुना बेहतर बारिश प्रकृति का पृथ्वी के लिए एक उपहार बनकर आई। लेकिन इसकी नियति अब तक भाप बनकर उड़ जाने या समुद्र में मिल जाने की रही है।

पुराने जमाने में देश के जिस हिस्से में पानी की जितनी दिक्कत थी,वर्षा जल संचयन का वहां उतना ही पुख्ता इंतजाम होता था। इसीलिए देश के हर इलाके में पानी के संचयन और सदुपयोग की एक से एक बेहतरीन स्थानीय व्यवस्थाएं रही हैं। पहले जितने धार्मिक,सामाजिक स्थान विकसित किए गए,सभी जगह तालाब या बड़े कुंड का निर्माण कराया गया। लेकिन यांत्रिक गति से बढ़ी विकास की रफ्तार ने प्रकृति से लेने के लिए तो हजार तर्क बना लिए, लेकिन उसे लौटाने की व्यवस्था न तो सामाजिक स्तर पर,और न ही सरकारी तौर पर प्रभावी हो पाई। प्रकृति पुनः चक्रित सिद्धांत पे चलती। मतलब जो चीज प्रकृति हमें देती है उन्हें हमें किसी न किसी रूप में बापस लौटाना भी होता है। उदाहरणस्वरुप हम प्रकृति के दिए हुए अनाज खाते है,पानी पीते है या कोई भी चीज हम आहार के रूप में उपभोग करते है उसे पुनः हम लौटाते है..कैसे मलमूत्र के जरिये...ताकि फिर संसार के किसी अन्य प्रयोजनों में इस्तेमाल की जा सके। विकास के नए तौर-तरीकों में पानी के इस्तेमाल के बीच हम यह भूलते जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में पानी आएगा कहां से। लगातार हैंडपंप पर हैंडपंप,हैंडपंप पर हैंडपंप लगाते जाने से तात्कालिक समस्या तो दूर हो जाएगी, लेकिन इसी रास्ते भूजल स्तर के और नीचे चले जाने की एक बड़ी तबाही भी हमारे सामने आती है। भूमिगत जल को बाहर निकालने की आवश्यकता तो है लेकिन जिस स्रोत से दोहन किया जा रहा है उस स्त्रोत में वापस जल का उसी मात्रा में पहुँचना भी तो आवश्यक है। इस स्रोत को तकनीकी भाषा में भूमिगत जलाशय कहा जाता है, का आवश्यकता से अधिक दोहन करने पर या तो ये पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं या इनमें जल संग्रह क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। मानव जीवन के लिए भूमिगत जल,सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण है। भारत के लगभग 80 प्रतिशत गाँव,कृषि एवं पेयजल के लिये भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं और दुःख की बात यह है कि विश्व में भूमिगत जल अपना अस्तित्व तेजी से समेट रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अन्वेषणों के अनुसार भारत के भूमिगत जल स्तर में 20 सेंटी मीटर प्रतिवर्ष की औसत दर से कमी हो रही है, जो हमारी विशाल जनसंख्या की ज़रूरतों को देखते हुए गहन चिंता का विषय है।

मृदा [धरती की ऊपरी सतह] की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में छिपा आज सबसे कीमती खजाना है- भूमिगत जल। बारिश का पानी,अपनी क्षमताओं और गुणों के अनुरूप,मिट्टी पहले तो स्वयं सोख लेती है और जब वह तृप्त हो जाती है तो इसी रास्ते,पानी उन चट्टानों तक पहुँचने लगता है जो मृदा की परतों के नीचे अवस्थित हैं। वर्षा का ज्यादातर पानी सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों से मिल कर सागर में मिल जाता है। वर्षा का यह बहुमूल्य शुद्ध जल यदि भूमि के भीतर पहुँच पाए तो बैंकिंग प्रणाली की तरह यह कारगर होगा यानी कि निवेश पर ब्याज का लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है। भूमिगत जल मानसून के बाद भी मृदा की नमी बनाये रखते हुए अपना व्याज निरंतर अदा करता रहता है साथ ही कुएँ और नलकूप आदि साधनों द्वारा खोती के काम आता है और जनमानस की प्यास भी बुझाता रहता है। इसे प्राकृतिक जल संचयन स्टोरेज टैंक भी कहा जा सकता है।

पर्यावरण का हमारे जीवन में अत्यंत महत्व है। शुद्ध हवा,पानी,रहने के लिए भूमि और भोजन सभी कुछ हमें पर्यावरण से मिलता है। सभी प्राकृतिक संसाधन इसी पर्यावरण में पाए जाते हैं। जनसंख्या बढ़ने से लोगों की आवश्यकता भी बढ़ी है। और उसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए लगातार प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन हो रहा है। हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और संरक्षण कैसे करें, इस पर हमारी उलझाऊ नीतियों की मुश्किलें एक बार फिर कटघरे में हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सरकार कृषि सम्बन्धी योजनायें तो बनाती है लेकिन यह कोई काम की नहीं जब हम कोई आपात स्थिति में अपने आप को असहाय महसूस करें। सिंचाई के मद्देनज़र नदियों को आपस में जोड़ने की योजना के साथ साथ पुरे देश में जल संरक्षण के लिए भी विशेष व्यवस्थ होनी चाहिए ताकि सूखे की स्थिति में भी लोग असुरक्षित और असहाय महसूस न करें। किसानो का कर्ज माफ़ी और मुआवजा मात्र ही इस समस्या का निवारण नहीं है,हमें प्रकृति को थोड़ी इज्जत भी देनी होगी क्योंकि प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है और अगर इसके संसाधनों का अनुशाषित तरीके से इस्तेमाल नहीं किया तो इसका परिणाम ठीक वैसा ही होगा जैसे एक समय पर दुनिया पर अधिकार रखने वाले डायनासोर भोजन की कमी के कारण समाप्त हो गये थे, कहीं एक दिन मनुष्य भी बिना पानी के समाप्त न हो जाएँ?

वैसे तो मानवाधिकार वाले इस युग में इंसानों की जान की कीमत मुआवज़े के रूप में चंद लाख रुपयों में तय की जाती है और किसान जो हमारे देश के स्तम्भ है अगर उनकी इस दुर्दशा का अच्छी तरह से ख्याल नहीं रखा गया तो कहीं विदर्भ की तरह मराठवाडा का किसान भी आत्महत्या की राह चुनता नजर आया तो उसमे हैरानी की कोई बात नही होनी चाहिए.उम्मीद है की सरकार द्वारा किसानो को ठोस सहायता प्रदान की जायेगी और महाराष्ट् के इस सूखे को आगामी लोकसभा चुनाव की लोक लुभावन राजनीती के पाकविधि में शामिल कर मुआवजे के तड़के में किसान आत्महत्या को चुनावी मुद्दे के मेनू लिस्ट में स्वादिष्ट तरीके से पेश कर भुनाया नहीं जाएगा,राजनीती होगी तो सिर्फ और सिर्फ राहत और पुनर्वास के लिए...


Wednesday, February 20, 2013

हड़ताल- जनाधिकार या जनता के लिए परेशानी

भारतीय मज़दूर संघ और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जरिए बुलाई गई दो दिन की हड़ताल आज से शुरू हो गयी है। मैं भी ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल का पुरा समर्थन करता हूं । लोकतान्त्रिक ढाँचे में हड़ताल भी अभिव्यक्ति की आजादी जैसा है तब जब लोकशाही बधिरशाही हो जाए। यह भी एक जनहित याचिका के जैसा ही है,बस हड़ताल और जनहित याचिका में एक ही अंतर है,हड़ताल आपात स्थिति है और जनहित याचिका पंचवर्षीय योजना। मुंबई छोड़ लगभग पूरा भारत इस ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल के जरिये अपनी व्यथा सरकार तक पहुंचाने में मशरूफ है। मुंबई क्यों नहीं?

मेरे ख्याल में हिंदुस्तान का मध्यम वर्गीय समाज सबसे कायर है। वह खुद तो संकोच/भय मे जिता हीं है,दुसरे को भी बाध्य करता है जिने के लिये। मध्यम वर्गीय समाज मुंबई में भी एक विशाल तबका है जो भय पर विजयी होना तो चाहता है लेकिन आगे आकर नहीं? यहाँ की जनता पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के सांठगाँठ से इस तरह संतुष्ट है जैसे की जनमानस से इनका कोई सम्बन्ध ही न हो। लोकशाही बधिरशाही इसलिय बन गयी है क्योंकी इनकी नीतियाँ वाणिज्य एवं अर्थशास्त्र के हितार्थ ही बनती है और इसका फायदा सीधे तौर पे पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के संघटन को ही होता है। इन नीतियों से शाही के समक्ष लोक की ऐसी दशा होती है मानो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विपदाओं के यही मुख्य आरोपी है। हड़ताल लोकतंत्र में एक ऐसा अधिकार है जिसमे जनता की धवनि बहुत ऊँचे स्वर में होती है और जो जनमानस के लिए आपातस्थिति स्तर के समाधान की जरूरत के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश करती है।


राजनीतिक एनेस्थीसिया(anesthesia) के व्यसन से मूर्छित सरकार यह भूल गयी है की इस देश में आज भी 70 करोड लोग गरीबी की रेखा से नीचे है। 37 फिसदी बच्चे स्कूल जा नहीं पाते और ऐसे में वाणिज्य को इतनी आसानी से अर्थशास्त्र के साथ पाणीकरण संस्कार करना आम जनता के कठिन जीवन की अग्नि को और प्रज्ज्वलित करना है। लगभग 2 करोड़ संतुष्ट या भयभीत या संकुचित मुबईकर्स अगर इस हड़ताल में आगे आना समय की फिजूलखर्ची समझते है तो कोई बात नहीं लेकिन किसी जनकल्याण से जुड़े आन्दोलन का प्रोत्साहन करना भी आन्दोलन से जुड़ना माना जाएगा,मीडिया भी किसी आन्दोलन में अपनी मौजूदगी इसी तरह दर्ज कराती है।सरकार के खजाने में मुबईकर्स के करानुदान का भारी भरकम हिस्सा होता है और यह मुबईकर्स का हक है की सरकार की मलाई पनीर वाली आर्थिक निति निर्धारण में इनके आवाज़ के लिए भी स्थान आरक्षित हो। कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक उस देश का एक व्यक्ति भी भुखमरी से अपनी जान गंवाए.सीमित/तंग आमदनी और असंतुलित एवं निरंतर महंगाई इन 70 करोड लोग जो गरीबी की रेखा से नीचे जीने को विवश है उनका क्या होगा? जनता भी अगर जनता की हित का ख़याल रखना शुरू कर दे तो हड़ताल जैसे अभिव्यक्ति की आजादी जनकल्याण के प्रयासों में वरदान सिद्ध होगा!!! जनाधिकारों के सदुपयोग से अधिकारों का भी सम्मान होता है वर्ना इसका हाल पुराने नोटों में RBI Governor के हस्ताक्षर के जैसा होगा???


Tuesday, February 19, 2013

त्रिआयामी इच्छा

समय के साथ मानव जीवन में भी बहुत से बदलाव हुए और उनमे से एक महत्वपूर्ण बदलाव जो देखने को मिला वह चित्र/छवि देखने की त्रिआयामी- 3D फार्मूला का.परिवर्तन से हुए अनुभवों से हम इंसानों ने भी समझा की किसी चित्र/छवि को साधारण नजरिये से देखकर अब उसकी पारदर्शिता या उसमे छुपी गहराई का अंदाजा लगाना कठिन हो गया है। क्यों न इसके देखने की अभियान्त्रिकी में बदलाव लाया जाए और वो बदलाव हमें 3D-त्रिआयामी चलचित्र के रूप में  मिला। 3D-त्रिआयामी चलचित्र  में तीसरा आयाम जोड़ने के लिए उसमें अतिरिक्त गहराई जोडने की आवश्यकता पड़ती है। 3D-त्रिआयामी फिल्म के फिल्मांकन के लिए प्रायः ९० डिग्री पर स्थित दो कैमरों के प्रयोग के साथ साथ दर्पण का भी प्रयोग किया जाता है। दर्शक थ्री-डी चश्मे के साथ दो चित्रों को एक ही महसूस करते हैं और वह उन्हें त्रि-आयामी लगती है। ऐसी फिल्में देखने के लिए वर्तमान उपलब्ध तकनीक में एक खास तरीके के चश्मे को पहनने की आवश्यकता होती है।

एक ओर जहाँ इंसान इतने टुकडो में बँट चूका है की मतभेद और मनभेद में भी अब इंसानी जिंदगी के उत्थान की उम्मीद दिखती है। ऐसे जटिल/विकृत मानव समाज में हम इंसानों के चेहरे भी कई परतो में लिपटे मालूम होते है। कर्म का चेहरा कुछ और
,उत्सव का चेहरा कुछ और,और शोक का चेहरा कुछ और। हम इंसानों ने ही खुद से अपने आप को बहुरुपिया बना लिया है। माना की जिंदगी की विभिन्न दौर में इसकी आवश्यकताएं भी है लेकिन इसके निरंतर उपयोग हम इंसानों को इसका व्यसनी बना देता है।
काश 3D-त्रिआयामी चलचित्र देखने में इस्तेमाल होने वाले चश्मे के तरह कई परतो में लिपटे इंसानी चेहरे को भी देखने/समझने के लिए कोई चश्में का इजाद हो जाये ताकि हम इंसान पुरे आत्मविश्वाश के साथ अपने बहुरूपी चेहरे का एक वैधानिक चेतावनी के साथ विपणन कर सके..

Monday, February 18, 2013

Microsoft Windows-8

ये Windows-8 के विज्ञापन में इस्तेमाल हुए गीत की कुछ पंक्तियाँ है। कड़ी प्रतोयोगिता और निरंतर हो रहे आविष्कार नें Microsoft जैसी कंपनी को भी भावनात्मक अपील करने को विवश कर दिया है। यह वही Microsoft है जिसने हमें कंप्यूटर बिना सीखे कैसे चलाया जाता है सिखाया था,इसी Microsoft नें हमें कंप्यूटर की लत भी लगाया और परिणामस्वरूप आज कंप्यूटर हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चूका है। Windows -8 के विज्ञापन में ऐसा कुछ भी बताने की कोशिश नहीं की गयी है जो आमतौर पे किसी उत्पाद के विज्ञापन में बताने की कोशिश की जाती है। यह विज्ञापन नहीं उपभोक्ताओं से एक भावनात्मक अपील है जो Microsoft जैसी पुरानी,प्रतिष्ठित और विशाल कंपनी की विश्वास की गिरती साख में उर्वरक डालने की प्रभावशाली कोशिश है। आज के Something Different मानसिकता वाली युग में एक प्रतिष्ठित कंपनी के लिए अपने उपभोक्ताओं को जोड़कर रखने में कामयाब होने के लिए इससे अच्छा और कारगर उपाय हो ही नहीं सकता है। इस तरह के विज्ञापन उत्पाद बेचने से कही ज्यादा उपभोक्ताओं से जुड़कर रहने की जिज्ञासा का इजहार करती है। यह भी एक INNOVATION है और उम्मीद है की IT कम्पनियों की Product Innovation Team,Marketing and Advertising Team एवं Consumer Insights Team Microsoft की उपभोक्ताओं से जुड़कर रहने की जिज्ञासा के इस नायाब प्रयास को जरूर सराहेंगे और इससे सिखने की कोशिश भी करेंगे। Well done Microsoft Windows-8 team...:)

Take a chance, take a chance
Yeah yeah.. check it
Take a chance, take a chance

क्यूँ डरता है तू यार मुझपे दांव लगा
गर हिम्मत है दिलदार मुझपे दांव लगा
दांव लगाले सैयां अपना बनाले
आ कर ले दो को चार मुझपे दांव लगा
क्यूँ डरता है तू यार मुझपे दांव लगा
Take a chance, take a chance
कोई मतवाला बड़े दिलवाला
ओ दिन रात ढूंढूं जाने है कहाँ
जो मेरे खातिर,जमीं पे आया
ओ रब का बंदा मिलेगा कहाँ
सब छडके हाथ फडके मैंने संग उड़ जाना
मौके पे चौका मार मुझपे दांव लगा
क्यूँ डरता है तू यार मुझपे दांव लगा
Take a chance, take a chance
दांव लगाले,दांव लगाले
क्यूँ डरता है तू यार मुझपे दांव लगा...