Negative Attitude

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Sunday, January 20, 2013

Its RE-SEARCH(रि-सर्च)-लेडीज एंड जेंटलमेन

एक प्रसिद्ध,पवित्र एवं पूज्यनीय धर्मग्रन्थ बाइबल के अनुसार परमेश्वर ने पुरे ब्रह्माण्ड को सात दिनों में बनाया था और आज मैं इस आलेख का प्रारंभ इसी में वर्णित कुछ अंशों के साथ कर रहा हूँ।
सर्वप्रथम परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया। पृथ्वी बेडौल और सुनसान थी। धरती पर कुछ भी नहीं था। तब परमेश्वर ने कहा उजियाला हो और उजियाला हो गया। फिर परमेश्वर ने उजियाले को अन्धकार से अलग किया और उजियाले को दिन और अंधियारे का नाम रात रखा। शाम हुई और फिर सवेरा हुआ। यह पहला दिन था।
दुसरे दिन परमेश्वर वायुमंडल बनाया और जल को अलग किया,कुछ जल वायुमंडल के ऊपर था और कुछ जल वायुमंडल के निचे। परमेश्वर ने वायुमंडल को आकाश कहा!
तीसरे दिन परमेश्वर ने पृथ्वी के जल को एक जगह इकट्ठा किया जिससे सुखी भूमि दिखाई दे और सुखी भूमि का नाम पृथ्वी रखा और जो जल अलग किया था उसका नाम समुद्र रखा। फिर पृथ्वी घास,पौधे जो अन्न उत्पन्न करते है और फलो के पेड़ उगाये। फलो के पेड़ ऐसे जिनके अन्दर बीज हो और हर एक पौधा अपनी जाती का बीज बनाए।
चौथे दिन परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियाँ बनाई। परमेश्वर ने उनमे से बड़ी ज्योति को दिन पर राज्य करने के लिए बनाया और छोटी ज्योति को रात पर राज्य करने के लिए बनाया और इसके साथ साथ परमेश्वर ने तारे भी बनाए। पांचवे दिन जल के अनेक जलचरो और पक्षियों को उत्पन्न किया और इनको आशीष दिया की बहुत सारे बच्चे उत्पन्न करो।
छठे दिन परमेश्वर ने कहा पृथ्वी हरेक जाती के जीव-जंतु उत्पन्न करे। हर जाती के जानवर और छोटे रेंगने वाले जानवर हो और यह जानवर अपने जाति के अनुसार और जानवर बनाए। तब परमेश्वर ने कहा अब हम मनुष्य बनाएं। हम मनुष्य को अपने स्वरुप के जैसा बनायेंगे और यह हमारी तरह होगा। वह समुद्र की समस्त मछलियों,आकाश के पक्षियों और सभी जानवरों और रेंगने वाले जीवों पर राज करेगा। तब परमेश्वर ने पृथ्वी से धुल उठायी और मनुष्य को बनाया और फिर मनुष्य के नाक में जीवन की सांस फूँकी और इस तरह मनुष्य एक जीवित प्राणी बन गया। फिर परमेश्वर ने अदन नामक जगह में बाग़ बनाया और परमेश्वर ने अपने बनाए मनुष्य को इसी बाग़ में रखा। परमेश्वर ने प्रत्येक सुन्दर पेड़ और भोजन के लिए सभी अच्छे पेड़ों को इस बाग़ में उगाया। इसी बाग़ के मध्य में परमेश्वर ने जीवन के पेड़ को रखा और उस पेड़ को भी रखा जो अछे और बुरे की जानकारी देता है। मनुष्य का काम पेड़-पौधे लगाना और बाग़ की देखभाल करना था। परमेश्वर ने मनुष्य को यह आज्ञां दी की तुम इस बगीचे के सभी पेड़ के फल खा सकते हो लेकिन अछे और बुरे की जानकारी देने वाले पेड़ का फल नहीं खा सकते यदि तुमने इस पेड़ का फल खा लिया तो तुम मर जाओगे। तब परमेश्वर ने माना की मनुष्य का अकेला रहना ठीक नहीं है और कहा की इसके लिए उपयुक्त सहायक बनाऊंगा और फिर परमेश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो रहा था तो परमेश्वर ने मनुष्य के शारीर से एक पसली निकाल ली और फिर इस त्वचा को बंद कर दिया और जहाँ से उसने पसली निकाली थी। और इस तरह मनुष्य के पसली से स्त्री की रचना की और फिर परमेश्वर ने मनुष्य को स्त्री के पास लाया और मनुष्य ने कहा अंततः हमारे सामान एक व्यक्ति। इसकी हड्डियां मेरी हड्डियों से आई,इसका शारीर मेरे शारीर से आया और इसलिए मैं इसे स्त्री कहूँगा। यह छठवां दिन था।
अंततः सातवे दिन परमेश्वर ने अपने काम को पूरा कर विश्राम किया।
स्त्री की उत्पत्ति नहीं हुई वल्कि इसकी रचना की गयी है। इस परिकल्पना को हमारे समाज के अन्य प्रसिद्ध,पवित्र एवं पूज्यनीय धर्मग्रंथो एवं साहित्य ने कुछ ऐसे  ही मिलते जुलते रूप में वर्णन किया है ....
  • जाओ वैदेही तुम मुझ से मुक्त हो, जो करना है मैंने किया, मैंने रावण से युद्ध अपने राज्य और शासन से कलंक मिटाने के लिए किया। मुझे पतिरूप में पाकर तुम ज़राग्रस्त न हो इसीलिये मैंने रावण का वध किया, मेरे जैसा धर्म बुद्धि संपन्न व्यक्ति दूसरे के हाथ में आई स्त्री को एक क्षण के लिए भी कैसे ग्रहण कर पायेगा। तुम सच्चरित्र हो या दुश्चरित्र मैं तुम्हारा भोग नहीं कर सकता मैथिलि। { रामायण - राम सीता संवाद - ३/२७५/१०-१३}
मैथिली शरण गुप्त ने लिखा था कि:
  • अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
पवित्र क़ुरान में लिखा है :-
  • मनुष्य को चाहत की चीज़ों से प्रेम शोभायमान प्रतीत होता है कि वे स्त्रियां, बेटे, सोने-चांदी के ढेर और निशान लगे हुए घोड़े हैं और चौपाए और खेती. यह सब सांसारिक जीवन की सामग्री है...[कुरआन 3:4]
" भोजन खाकर स्त्री को जूठा देना" { गृहसूत्र १/४/११} { यह प्रथा बंगाल में आज भी है }

मतलब बिलकुल स्पष्ट है इस ब्रह्माण्ड की रचना ही पितृसत्तात्मक समाज से हुई है जिसमे मानव समूदायों का नेतृत्व पुरुष करता है। सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। और शायद यही वो कारण जिसने स्त्रियों को समाज में ऐसे जगह पे रखा हुआ है। साहित्य को और खंगालने पर कुछ ऐसे ही और प्रमाण मिलते है जो पितृसत्तात्मक समाज की मनमानियां वयां करती है। कहते है शब्द ही ब्रह्म है और ये शब्द भी कम अपराधी नहीं है जिसने साहित्यकारों को स्त्रियों को एक पूर्ति साधन वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने में बढ़ चढ़ कर मदद की। स्त्री को भिन्न भिन्न शब्दों से संबोधन एवं वर्गों में बांटा जाना उसके पतन और शोषण नहीं तो क्या है....
नारी - नारी शब्द नृ अथवा नर शब्द से बना है......
पुत्री- यह पुत्र शब्द का स्त्रीलिंग रूप है पुत्रका या पुत्रिका प्रयोग भी कही-कहीं मिलता है ।
सुता- पुत्री को सुता भी कहते है सु धातु से क्त प्रत्यय करने पर सुता रूप बनता है जिसका अर्थ है उत्पादित या पैदा किया गया
बाला - सोलह वर्ष से कम आयु की युवती को बाला कहते हैं यह शब्द भी कन्या का प्रर्याय है बाला का एक अर्थ अवयस्का या तरूणी भी होता है बाला को बालिका भी कहते हैं
युवती - वह स्त्री जिसे यौवन प्राप्त हो। तुलसी ने कहा है दीप सिखा सम जुवती तन......
तरुणी- जवान स्त्री को तरूणी कहते हैं,
मध्यमिका -विवाह योग्य वयस्क कन्या को मध्यमिका या मध्यमा कहते हैं
दुहिता - कन्या को दुहिता भी कहा जाता है एंगलो सेक्शन का दोहतार,अंग्रेजी का डाटर,जर्मन का तोखतर,ग्रीक का धुगदर ये सभी शब्द किसी न किसी रूप मे नाता रखते हैं।बेटी का नाता अंतरर्राष्ट्रीय है....माता की तरह ही...दुहिता वह भी है...जिसे दुतकारा जाए।
अबला- इस शब्द की रचना नारी के शारीरिक बल को ध्यान मे रख कर की गई है क्यो कि स्त्री मे पुरूष जैसा बल नहीं होता है।
मोहिनी - मन को हरने वाली स्त्री को मोहिनी कहते हैं...समुद्र मंथन में मिले अमृत के लिए जब युद्ध हुआ तो राक्षसों को ठगने के लिए विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया था।
पत्नी –पत्नी के लिए सहचरी, सखी ,सहचारिणी सहधर्मिणी शब्द का भी व्यवहार मिलता है। पत्नी सुख दुख की साथी होती है इसलिए सखी है जीवन के हर डगर पर
पुरूष के साथ चलने वाली है इसलिए सहचरी है पुरूष के धर्म कर्म मे साझेदार है इसलिए सहधर्मिणी है।
गृहणी - पत्नी घर के कार्यभार सभालती है इसलिए गृहणी है गृहणी यानी घरनी....किसी ने कहा है...बिन घरनी घर भूत का डेरा ।
प्रियतमा ,प्रेयसी - पत्नी पुरूष को प्रिय होती है इसलिए उसे प्रियतमा या प्रेयसी का सम्बोधन भी मिलता है।
वधु,वधूका,वधू ,वधूरी-स्त्री पिता के घर से मान सम्मान,धन सम्पति का पति गृह तक वहन करती है, इसलिए वघू कहलाती है । वघू शब्द पत्नी ,पुत्रवधू ,युवती इन सभी अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । वघूरी शब्द का प्रयोग तरूणी स्त्री के लिए होता है।
महिला- इस शब्द मह का अर्थ पूजा है..यह शब्द स्त्री की महिमा दर्शाता है। महानता, महान, महीयसी, महा, महत्तर जैसे तमाम प्रधानता स्थापित करनेवाले भावों के समेटे हुए शब्दों का जन्म भी उसी मह् से हुआ है जिससे महिला शब्द बना है। इसी शब्द में उस युग की छाया नजर आती है जब पृथ्वी पर मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी  थी।
धर्मग्रन्थ,साहित्य से हटकर अब थोडा विज्ञान और मनोविज्ञान की नजर में पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री को देखने की कोशिश करते है। मनुष्य यौन क्रियाओं द्वारा खुद को पुनः उत्पन्न करता है। पर जब बात सेक्स मतभेद पर आती है तो महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं और पुरुषों प्रजनन में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं, और यह सिर्फ एक शारीरिक बात नहीं है.प्रजनन की सामाजिक लागत दोनों महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग अलग हैं, और मानव जाति के विकास के दौरान इन्ही कारको ने पुरुषों और महिलाओं में एक लाभ भरा सोच, बर्ताव और महसूस करने के विभिन्न तरीकों को विकसित किया।परिणामस्वरूप पुरुषो ने अपने जीन(Gene) को कायम रखने की प्रयास के कई पैमाने रखे जिनमे से शादी के लिए रंग रूप के साथ साथ अपने से कम उम्र की महिला प्रमुख है।यह कोई विशेष सामाजिक मज़बूरी या अनिवार्यता नहीं है बल्कि कम उम्र स्त्री के स्वस्थ प्रजनन क्षमता के आशुलिपि संकेतक है ताकि उनका आने वाला वारिस स्वस्थ हो। पुरुषो की तरह स्त्रियों ने भी अस्तित्व की सुरक्षा के ध्यान में रखते हुए अपने भावी पति के कुछ पैमाने रखे जिसमे रंग,रूप और शारीरिक पुष्टता से ज्यादा तबज्जो अर्थ-धन को दी गयी है।इस सोच के कई तर्क और कारण है और इन्ही में एक है संभावित जीवन साथी और उनके वंश के लिए प्रजनन में गर्भावस्था के नौ महीने में महिलाओं के उनके हिस्से के लिए समय और प्रयास के निवेश की अधिकता और यही वजह है महिलाएं खुद की तुलना में अमीर जीवन साथी पसंद करते हैं.
सामाजिक परिकल्पना वाले व्यवस्था में जीवन साथी शब्द और उसमे उत्पादन,लागत जैसे वाणिज्यिक गतिविधियों का समावेश ने स्वार्थी भाव जैसे एक गंभीर विकृति का जन्म दिया और यही सोच आज तक कायम है जो स्त्री पुरुष के मतभेद और मनभेद दोनों को संजो कर रखे हुए है। यही वो विकृति है जो पितृसत्तात्मक समाज को अपने वजूद की असुरक्षा का भय महिलाओं पर दबंगई दिखाने को मजबूर करता है। बायोलोजिकल व जनेन्द्रियों की भिन्नता तो सर्वविदित है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में इन भिन्नताओं की भुमिका नगण्य है। कुछ फर्क हार्मोन्स का भी रहता है लेकिन हर्मोन्स का अन्तर व्यक्तित्व के संवर्द्धन में नगण्य सा ही भूमिका अदा कर पाता है। महिलाओं को कोमलांगी कहा जाता रहा है। कोमलांगी शब्द पाषाण युग में सही था। क्योंकि उस योग में शारीरिक पुष्टता ही शक्ति का मापदण्ड होती थी। लेकिन आज के इस युग में शक्ति,विकाश,सफलता एवं खुशहाल जिंदगी के मंत्र अलग हो गए है और आज शारीरिक पुष्टता आरक्षण के श्रेणी में महादलित के जैसा है,आज शक्ति का घोतक है आपका ज्ञान,स्वस्थ विकासशील सोच। किसी गुरु की विशिष्टता अथवा किसी पारलौकिक देवी से किसी स्त्री का आवरण बना कर उसे पूज्य बनाना,स्त्री के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना कि "वेश्या के घर की मिटटी मिलाकर दुर्गा की मूर्ति बनती है" पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री के प्रति दोमुही राजनीती एवं छलावा है जो पितृसत्तात्मक संस्कृति के स्त्री की बहुआयामी अस्तित्व और उपयोग का रिवाज प्रस्तुत करती है। आज हमारे समाज को जिस व्याधि से हर रोज शर्मशार होना पड़ रहा है उसको क़ानूनी लफ्जो में हमारे देश में रेप और अमेरिका में फोर्सिबल रेप कहा जाता है,ये दो नाम पितृसत्तात्मक संस्कृति-समाज का हिस्सा है जो इस समाज का तब तक असाध्य रोग बना रहेगा जब तक इसे सत्ता,अधिकार और मिलकियत से जोड़ा जाता रहेगा।
स्त्री शब्द के मूल में संस्कृत की स्त्यै धातु है। यह समूहवाची शब्द है जिसमें ढेर, संचय, घनीभूत, स्थूल आदि भाव शामिल हैं। इसके अलावा कोमल, मृदुल, स्निग्ध आदि भाव भी निहित हैं। गौर करें कि स्त्री ही है जो मानव जीवन को धारण करती है। सूक्ष्म अणुओं को अपनी कोख में धारण करती है। उनका संचय करती है। नर और नारी में केवल नारी के पास ही वह कोश रहता है जहां ईश्वरीय जीवन का सृजन होता है। उसे ही कोख कहते हैं और कोख में ही जीवन के कारक अणुओं का भंडार होता है। वहीं पर वे स्थूल रूप धारण करते हैं। गर्भ में सृष्टि-सृजन का स्निग्ध, मृदुल, कोमल स्पर्श उसे मातृत्व का सुख प्रदान करता है। गौर करें कि संस्कृत में किसी भी जीव के पूरक पात्र अर्थात मादा के लिए स्त्री शब्द है क्योंकि नए जीव की सृष्टि का अनोखा गुण उसी के पास है। इसीलिए वह मातृशक्ति है, इसीलिए वह स्त्री है न की कोई और वजह
कहानियाँ जो भी हो या मतलब जो भी निकाले परन्तु सत्य तो यही है की स्त्री और परुष दोनों ही परमेश्वर की उत्पत्ति है और यह अपने आप में एक दुसरे यानी - इंसानों के प्रति अच्छे रिश्ते के उद्देश्य के लिए हुई है। स्त्री और पुरुषो को एक दुसरे के विपरीत आकर्षण शारीरिक 'भिन्नता' है और 'प्रकृति' भी और यह सत्ता,अधिकार और मिलकियत की मोहताज नहीं है। गौर करे तो आज से एक पीढ़ी पहले तक औसत परिवार का अकार 3 या उससे अधिक हुआ करता था- कारण था सस्ती जीवन यापन और भयानक म्रत्यु दर लेकिन महंगाई में लगातार वृद्धि,कठिन होती जीवन यापन और म्रत्यु दर में सुधार ने औसत परिवार का अकार तक़रीबन 2 तक सीमित कर दिया ठीक इसी तरह समय इस नीरस पितृसत्तात्मक समाज का उपचार भी ढूंढ़ लेगा,यकीं रखे,वो दिन दूर नहीं है जब पितृसत्तात्मक समाज अपने नए अवतार मातृ-पितृसत्तात्मक समाज के रूप में दिखाई देगा।


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