Negative Attitude

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Tuesday, December 31, 2013

नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष

आप सभी को नव वर्ष 2014 की हार्दिक शुभकामनाएं..

{नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष }

 
उत्सव मना ये साल भी चला जायेगा
प्रज्ज्वलित छोड़ उम्मीद की मशाल को
कैसी रौशनी थी इसकी फिक्र ही क्यों करे
मशाल अभी है जल रहा फिर जिक्र रौशनी की क्यों करे
रीति निभा प्रीति निभा ये साल चला जायेगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष
कल से हर लम्हा नवीन कहलायेगा
नव वर्ष का नव संघर्ष,उम्मीद की मशाल को
प्रज्ज्वलित रहे सदा इस प्रयास में जुट जाएगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष
कल से हर रीति हर प्रीति नवीन होने पर इतराएगा
पुरातन रिवाज पुरा साल नुतन कहलाएगा
नव वर्ष का स्पर्श,नव वर्ष का ये हर्ष

Thursday, December 26, 2013

देवदासी या देवदूतों की दासी

दिव्य शक्तियों के प्रति आस्था के शब्द देवता या भगवान् की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई ‘देवदासी प्रथा’ श्याम एवं स्वेत रूप में भले ही समाप्त हो गई जैसी दिखती हो,लेकिन आर्यावर्त्त में शोषित देवदासियां आज भी हैं। हाल ही में मिलाप (एक गैर सरकारी संस्था) द्वारा आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लेने का मौका मिला। आइये थोडा मिलाप के बारे बता दूँ। मिलाप एक ऐसी संस्था है जो गरीब एवं सामाजिक शोषण के शिकार महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य करती है.मिलाप द्वारा आयोजित इस सेमिनार से मैं यह जानकार बहुत विचलित हुआ की देवदासी प्रथा जैसी कुरीति आज भी धर्म और धार्मिक परम्पराओं के नाम पर पूरी तरह से सार्वजनिक तौर पर हमारे समाज में चल रहा है. देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी महिलाओं को कहते हैं, जिनका विवाह किसी पुरुष से नहीं...जी हाँ किसी पुरुष से नहीं वल्कि मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। इनका काम मंदिरों की देखभाल,नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग के शिकार का धर्माधिकार भी प्राप्त  है। आज जहां महिला अधिकारों को लेकर आंदोलन हो रहे है,महिला अधिकारों को लेकर सरकारें बन रही है,सरकारें गिर भी रही है,नारी शोषण विरोधी ससक्त कानून बने और महिला ससक्तिकरण के लिए अनेक सरकारी योजनाओ के साथ साथ विशेष रूप से महिला बैंक खोले गए बावजूद इसके कर्नाटक,महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं,जहाँ देवदासी प्रथा धर्म और धार्मिक परम्पराओं के छत्रछाया में सेवा के नाम पर विलासिता का साधन बन महिला ससक्तिकरण के नाम पर देश की तमाम मीडिया में हो रहे बहस और जनांदोलन बस औपचारिकता एवं दिखावा सिद्ध करता है.

धर्म के इस रंगीन रिवाज़ में DJ भी है,VJ भी है और आपके सहारे के लिए टु(TOOH) भी है जो आपकी मदहोश गुस्ताखियों का पूरा ख़याल रखता है। है कोई समाजशास्त्री या कानूनविद् जो इस अद्भुत विवाह प्रथा को परिभासित कर आज के युग में समानता और समलैंगिक अधिकारो के बराबर क़ानूनी वजन दिला सके ताकि न्याय मानवीय मूल्यो के रक्षा से ज्यादा ऐतिहासिक होने पर इतराये। संस्कृति और असंख्य परम्पराओं के अभिभावक इतिहास को देखे तो राजाओं और सामंतों के लिए इस तरह का रिवाज भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान था। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण है या यूँ कहे कि फ़िल्म वही है सिर्फ पोस्टर में थोड़ी सी तब्दीली आयी है.

 

है कोई धर्मगुरु जो अपने धर्म सम्मेलनो में धर्म के इस रंगीन रिवाज़ का विरोध कर इसके लिए कार्य करे? कैसे विरोध करेंगे-धर्म के व्यापारी बने ब्रह्मचारियों को इन रिवाजो के जरिये मनोरंजित होने का धार्मिक विशेषाधिकार जो प्राप्त है.हाल ही में समलैंगिक अधिकारो को लेकर न्यायालय से लेकर संसद तक इस मामले को ऐतिहासिक बनाने में व्यस्त दिखा लेकिन इस प्रकार के धर्म  के नाम पर ब्रांडेड शोषण को मानवीय मूल्यो से जोड़ने की न कोई सोचता है और न ही इनके लिए किसी की संवेदना पीड़ा में बदल पाती है... देवदासियों को तो ऐतिहासिक होने का तमग़ा सदियों से है ही.…फिर कोई भी मीडिया इस मुद्दा को क्यूँ अपनाएगा ? इस कुरीति का ना तो नागरिक शास्त्र में जगह है और न ही समाजशास्त्र में,बस एक इतिहास ही है जो आज तक इस कुरीति को इस इस आस में ढो रहा है की कब कोई तारणहार मिले और इस घिनौनी रवायत से शोषित स्त्रियो को आजाद कराये। इनके मानवीय मूल्यो और अधिकारो का ऐतिहासिक होने से ज्यादा सामाजिक होना जरुरी है ताकि ये भी एक आम सामाजिक प्राणी जैसा जीवन व्यतीत सके.मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग से लैस भारतीय प्रजातंत्र में इस तरह के रिवाजो की विद्यमानता इस बात का प्रमाण है की मानवीय अधिकारो की रक्षा के लिए बने ना ना प्रकार के संस्थाएं राजनीती और धर्म के कुचक्र के आगे इतने मजबूर है की मानवाधिकारो का सार्वजनिक एवं ब्रांडेड हनन भी इनको दिखाई नहीं देता ?
सदियों से चली आ रही देवदासी प्रथा धर्म के नाम पर हमारे इतिहास और संस्कृति का एक पुराना और घिनौना अध्याय है और अब इसका क्रिया कर्म होना बहुत ही जरुरी है वर्ना महिला ससक्तिकरण के तमाम सरकारी दावो की विश्वसनीयता सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में दिखेगी?

Thursday, December 12, 2013

परिवर्तन की आशा बना तमाशा

दिल्ली में परिवर्तन की राजनीति की  ऐसी दुर्दशा होगी किसको पता था... संबिधान भी मजबूर...और विधि का विधान भी...किसको पता था की परिवर्तन की आशा एक तमाशा के रूप में उभरेगा? लोकशाही का ये तमाशा हमें ये सोचने पर मजबूर का रहा है कि विकास का मुद्दा का विकास अब रुक गया है.… या यूँ कहे कि भारतीय राजनीती में विकास एक सोफिस्टिकेटेड मुद्दा हो चला है जिसमे भारतीय जनसँख्या का वही १५-२०% अपमार्केट लोग है जो इस मुद्दे से अपने आप को जोड़ पाते है या कही ऐसा तो नहीं कि भारतीय राजनीती में सत्ता को फैंटसी मानने वाले लोग देश की तमाम मीडिया का दुरूपयोग कर विकास को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत कर महंगाई के सामने विकास को ही भारत के विकास के आगे दोषी मान देश को गुमराह कर रहे है क्योंकि सत्ता का मुख्य ईंधन अर्थशास्त्र यह कहता है कि महंगाई विकास का साइड इफ़ेक्ट है और विकास होगी तो महँगाई बढ़ेगी ही. मोटे मोटे तौर पर ये कहे कि पेट्रोलियम उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारो से जोड़ना और सब्सिडी को समाप्त कर आधार योजना के जरिये DBT (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर) सरीखे योजनाओ से उपभोग की विशुद्धता बढ़ाने का प्रयास विकास के इसी साइड इफेक्ट्स का सुधारक उपाय ही तो है तो गलत नहीं होगा।

बचपन में हमारे बुजुर्गों से जब विदेश जाने से सम्बंधित कोई वार्तालाप होती थी तो यही कहते थे अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो बम्बई में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यह कुछ और नहीं बम्बई के विकसित होने का प्रमाण था.लेकिन आज के हालत में यहाँ कि स्थिति ऐसी है जैसी पाव(पाव बोले तो पावरोटी) के बीच में चटनी के साथ वडा का होता है… ऊपर से प्रतिष्ठा और विरासत और निचे से तेज रफ़्तार जिंदगी का लाइसेंस और बीच में बड़ा जो बड़ी इज्जत से बेसन के लेप के साथ फ्राई होकर भूख की मजबूरी को इज्जत प्रदान कर रहा होता और अब तो प्रतियोगिता ऐसी की यह जंबो के नाम से भी जाना जाने लगा है... हो भी क्यों न सब चीज विकास के दौड़ में है तो फिर मज़बूरी भी पीछे क्यों रहे... मज़बूरी भी अब जंबो हो गया लेकिन विदेश वाली धारणा या अग्रेजी में स्टेटस बोल लीजिये चाहे फीलिंग यह जंबो नहीं बन पाया।

पर आज हमारे अनुज विदेश जाने से सम्बंधित मुद्दे पर सलाह मांगे तो उन्हें यही बोलूंगा अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो दिल्ली में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। आज की तारीख में दिल्ली में वो तमाम संसाधन है जो विदेशो में होता है.रही बात महंगाई की भारत के प्राचीन विदेश के मुक़ाबले भारत के नए विदेश मे सब कुछ सस्ता है.…बिजली का बिल,पेट्रोल से लेकर डीजल तक.…रही बात भ्रष्टाचार की यह मुद्दा भी है और मानसिकता भी और इसके लिए सिर्फ सियासी संस्थाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता...मौका मिलने पर हम सभी इस पर NOTA का विरोध करेंगे। दिल्ली में जो विकास हुआ है वो भारत के किसी भी शहर के मुक़ाबले अद्वितीय है और इसका नायक कोई और नहीं श्रीमती शीला दीक्षित है.…विकास का जज्बा किसी सियासी संस्था या चुनावी मैनिफेस्टो (जिसका महत्व चुनाव में संबिधान से कम नहीं होता है) में नहीं होता। यह तो किसी व्यक्ति विशेष का जूनून होता जिसकी प्रजाति हमारे हिंदुस्तान की सत्तातंत्र में दुर्लभ ही है।

चमत्कार होगा जरूर यह परिवर्तन रूपी एक टोटका है जो ज्यादातर सत्य नहीं होगा यह तो कन्फर्म है परन्तु सत्य ही होगा ये निश्चित तौर पर IRCTC के प्रतीक्षा सूची जैसा है जिसमे ये खतरा सदैब बना रहता है कि कही यात्रा के ऐन वक़्त पर विदाऊट टिकट न हो जाऊ. चुनाव के बाद भी सरकार न बन सके यह संवैधानिक संकट अपरिपक्व लोकतंत्र के संकेत है जिसमें बहुमत में बदलाव की भावना अभी भी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है.पांच साल में एक बार से ज्यादा चुनाव होना देश के अर्थ तंत्र पर एक थोपी हुई मजबुरी है जो किसी भी दृष्टिकोण से न राष्ट्र के हित में है और न ही जनता जनार्दन के हित में. गुस्सा के आगोश में निर्णय सदैब घातक होता है और दिल्ली भी इसी खुन्नस में आज न हार से दुखी है और न जीत से सुखी? वर्त्तमान भुतकाल हो जाने से या भुतकाल वर्त्तमान हो जाने से सब कुछ अचानक से ठीक हो जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है...जो दीखता है वो थोड़ा ज्यादा बिकता है पर टिकता कितना है वह भी सोचना जरुरी है…अगर आप इसको बायस्ड सोच मानते है तो NOTA वाला लोटा भी देखिये पानी से लबालब मिलेगा..

लोकतंत्र में क्रांति प्रतिशोधात्मक नहीं होनी चाहिए…क्रांति हो तो ऐसी हो जो अवगुण के विरोध के साथ सदगुण का सम्मान भी करे…वर्ना कही ऐसा न हो कि शकुनि के प्रतिशोध के महाभारत युद्ध की तरह सबकुछ समाप्त हो जाए और अवशेष के रूप में बचे तो महाभारत की किताब जिसमे धर्म और अधर्म आज भी यही उधेड़बुन में हो कि आखर इस महाभारत में विजयी कौन हुआ ?

Saturday, December 7, 2013

दिल्ली मतगणना विशेष-आज का राशिफल

AAP आयें है इस बगिया में,फूल खिले है गुलशन गुलशन
[मेष (च, चू, चे, ला, ली, लू, ले, लो, अ, आ)]
आज आप अंतर्मुखी और शांत रहेंगे। आज आपके मित्र व संबंधी आपके गांभीर्य के संबंध में जान पाएंगे। आप किसी की ज़रूरत में सहायता कर सकते हैं। किसी मेहमान के साथ सुबह या रात के भोजन की जिम्मेदारी आप पर आने के योग हैं।

Be-JayPee
[धनु (ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे)]
संभव है कि आज आप उस समस्या का सामना करें जो पिछले कई वर्षो से सर उठा रही है। आज आप उस समस्या को सफलतापूर्वक समाप्त कर सकेंगे। ये भी संभावना है कि आज आपके आस पास के लोग आपके विश्वास को अर्जित कर अपने व्यावसायिक या व्यक्तिगत गुप्त तथ्यों को आपके साथ बांटे।

Kaun-Greyss
[मिथुन (क, की, कु, घ, ङ, छ, के, को, हा)]
आज संभव है कि आपके अधिकारी आपके समक्ष किसी जटिल समस्या का समाधान खोजने को कहें। अपने काम के प्रति समर्पित व लक्ष्य के प्रति जागरूक होने के कारण आप इसका हल आसानी से निकाल लेंगे। ये भी हो सकता है कि कोई प्रभावी मित्र आपकी मदद कर सके।...

फैसला आपका सर आँखों पर जनता जनार्दन

बेचैन आँखों में अटकलों का वो मंजर दीखता है
खंजर कहीं न बन जाए जीत का ये जिद्द 
आज की रात ख़त्म ही न हो यही दुआ कर रहा हूँ
बबंडर कहीं न बन जाए जीत का ये जिद्द
लूट खसोट,वादाखिलाफी काश समय रहते आँख खुल गयी होती
भयंकर सा लगने लगा है अब जीत का जिद्द
कभी तख़्त तो कभी जमानत जब्त,क्या कहुँ
बेअसर सा लग रहा है जीत का ये ज़िद्द
लेख तो सही था पर किरदार वार कर गया
कल कही कहर न बरपाये जीत का ये ज़िद्द
फैसला आपका सर आँखों पर जनता जनार्दन
आपका प्रीत फिर लौटाएगा जीत का ये ज़िद्द..

Friday, December 6, 2013

एक बार फिर…चंद शब्द ऐंवे ही

एक संत,रंगभेद विरोध के प्रणेता नेल्सन मंडेला अब हमारे बीच नहीं रहे.…नेल्सन मंडेला .…एक ऐसी शख्सियत, जिसने दुनियाभर में रंगभेद के विरोध में आवाज को बुलंद किया. हालांकि मंडेला एक सम्मानित कबीले थेंबू से आते थे, पर उन्होंने बचपन से ही देखा था कि कैसे अश्वेतों के साथ अन्याय किया जाता है. भारतीय होने के नाते मुझे यह बहुत विचित्र लगता है कि उन्होंने रोल मॉडल के रूप में महात्मा गांधी जी को नहीं, नेहरु जी को स्वीकार किया। उन्होंने यह भी साफ़ तौर पर कहा था कि अहिंसा को उन्होंने नीति के रूप में स्वीकार किया,सिद्धांत के रूप में नहीं। वैसे हम भारतीय भी भेद को हलके तरीक़े से नहीं देखते ,हमारे यहाँ तो यह विकाशशील होने के ठप्पे के साथ विकास कि राजनीती का आँवला है जिसके फ़ायदे हजार है और रख रखाव पे खर्च न के बराबर। देखिये न कैसा विचित्र संयोग है दुनिया के भेद से लड़ने वाला एक महान नेता का आज निधन और 21 साल पहले आज ही के दिन अयोध्या में एक और ऐतिहासिक भेद का भूमिपूजन किया गया था.भेद क्या है? मेरी नजर में यह एक असुरक्षित मानसिकता है जो हर समय अपना वर्चस्व कायम रखने के फ़िराक़ में लगा रहता है और यही मानसिकता आकर्षित करती है उन सियासी लोगो को जो जनमत के ध्रुवीकरण तलाश रहे होते है और फिर इसी से शुरू हो जाती है उत्थान और पतन का विपणन। जातिवाद का भेद,प्रांतवाद का भेद,भाषा कि राजनीती,भीतरी रेखा परमिट से लेकर अभी के समय की बहुचर्चित धारा 370। सियासी लोगों केलिए ये इतना मायने रखता है कि इन सब से हम तमाम भारतीयों को रु ब रु कराने,समझाने के लिए प्रज्ज्वलित टैगलाइन के साथ रैलियों में करोडो फुक देते है और हम बिना कुछ सोच विचार किये उसी चोले में सज बलबूता नहीं तो लात जूता का सूत्र अपना मानवता के शोषण में जी जान से जुट जाते है.जिसे सियासी लोग मुद्दे कहते है असल में वो सामाजिक समस्याएं है और मुद्दों पर तो सियासत हो जाती है परन्तु समस्यायों पर सियासत हो नहीं सकती तो फिर अपनाने कि बारी हो या गोद लेने कि बारी हो समस्यायों को कौन पूछने वाला है,मुद्दे ही अपनी आइटम अच्छी होयेंगी न भाई ! इतिहास साक्षी है,जब मुद्दा एक था तो क्रांतिकारियों कि कतार लगी थी और दुर्भाग्य आज विकास के नाम पर मुद्दो कि तादाद बढ़ी है तो क्रातिकारियों कि आकाल पड़ी है और हो भी क्यों न मुद्दे भी तो किसी न किसी तरह के भेद से संक्रमित हो गए है और इस संक्रमण में पड़ना भी नहीं चाहिए…हमें इसका पक्षधर होने में कोई संकोच नहीं होता। मुद्दो का एकीकरण महत्वपूर्ण है और जब तक मुद्दे वहुवचन से एकवचन नहीं हो जाते जन क्रांति का अलख नहीं जगेगा और ना ही महात्मा गांधी मिलेंगे…ना ही नेल्सन मंडेला…मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है... हम सब भूलने लगे है इस बात को... ऐसा प्रतीत होता है?

Wednesday, November 27, 2013

तहलका

मामला तहलका के तेजपाल का हो या तेजपाल के तहलका का, तहलका तो होना ही था.सत्ता के प्रभावरूपी चादर से सुचना नियंत्रण या इसको छिपाना कोई नयी बात नहीं है और घोडा जैसे घास से दोस्ती नहीं कर सकता तो सत्ता तहलका यानि सुचना बम से कैसे दोस्ती कर सकता है? कहते है एक स्त्री के लिए महाभारत जैसा विशाल युद्ध हुआ था जिसमे धर्म को भी अपनी वजूद और महत्ता सिद्ध करने के लिए कई बार शोषित और शर्मशार होना पड़ा था. सत्ता और इससे जुड़े प्रपंच में विजयी भवः होने  के लिए सदियों से स्त्रियों की सम्मोहन शक्ति का उपयोग बिना तपस्या वाली ब्रह्मास्त्र के रूप में किया जाता रहा है और फिर गोआ तो  विश्व की प्रमुख पर्यटन स्थल में शुमार है जहाँ न तो इंद्र कि कमी है और न ही उसकी अपसराओं क़ी.THINK FEST जैसी वैचारिक मंथन के नाम पर सत्ता का मतलब और सत्ता के मायने का विपणन हेतु गोआ जैसे पर्यटन स्थल से माक़ूल स्थान हो ही नहीं सकता है और जिस तरह से पूरा प्रकरण मीडिया और राजनितिक गलियारो में हर दिन एक नयी ऊर्जा प्राप्त कर रहा है मानो कोई एक दुर्लभ ज्योतिषीय विशिष्टता वाली घटना घटित हुई हो.नर शोषण हो या नारी शोषण, निश्चित तौर पर यह घृणित अपराध है किन्तु जिस प्रकार से इस शोषण को दर्शाया जा रहा है वो कही न कही वैचारिक खोखलेपन का भी संकेत देता है जिसमे कही कोई अदृश्य शक्ति इस नारी शक्ति का इस्तेमाल कर फिर से उस काल्पनिक दौर में ले जा रहा है जहाँ स्त्रियों को भगवान् तो मानते भी थे लेकिन जरूरत पड़ने पर स्त्रीत्व कि अग्नि परीक्षा भी लेते थे. नारी शोषण पर सजग होना हमारे समाज के लिए अत्यंत सकारात्मक सन्देश है लेकिन इसका वर्गीकरण इसी नारी को न्याय के तराजू में दो बटखरे से तौले जाने पर मजबूर करता है. आज के दौर क़ी शिक्षित और कामकाजी स्त्रियाँ इतनी भोली भी नहीं हो सकती क़ी अपने मौलिक अधिकारो और इससे जुड़े क़ानूनी प्रक्रियायों से अनभिज्ञ हो और जिस तरह से किस्तो में इससे सम्बधित घटनाएं मीडिया के जरिये सामने आ रही है वो इन्ही जिम्मेदारियों,भावनाओ को बार बार चोट पहुँचा रही है कि कब तक इस देश कि राजनीती सत्ता,माफिया और सम्मोहन के इस खेल से इंसानियत को मोहरे कि तरह इस्तेमाल कर इंसानियत को ही कटघरे में खड़ा कर लुंगी डांस पर उत्सव मनाता रहेगा। प्रजातंत्र में विपक्ष को मारना मतलब तानाशाह को समर्थन करना है और मीडिया तो प्रजातंत्र में वो व्यवस्था है जो न सिर्फ सिक्के उछालती है वल्कि प्रतियोगी और प्रतियोगिता का तृतीय अंपायर का रोल भी अदा करती है.अपराधी तरुण तेजपाल है ये सिर्फ ब्रेकिंग न्यूज़,FIR और पुलिस के चहलकदमी से सिद्ध नहीं होता.... SU-DOKU का खेल तो पूरा होने दो.... मतलब भी समझ आ जाएगा और मायने भी,तहलका में जो तहलका हुआ है जनाब …

Wednesday, November 13, 2013

ओपिनियन पोल

ओपिनियन पोल है बकवास लेकिन,कोई है ख़ास तो कोई है निराश..
मज़मा यूँ ही नहीं लगता जम्हूरियत में,गुल्लक इकठ्ठा यूँ ही नहीं होता...
तिज़ारत करने वाले जानते है कि बकवास की भी कीमत होती है..
बस समझना ये है कि बेचने वाला या ग्राहक- है कौन ख़ास...
ओपिनियन का बाज़ार,विरोधी है हज़ार,बकवास बिकेगा ऊँची कीमत मे...
देखना क्योंकि जम्हूरियत में नहीं व्यर्थ जाती है आस...
ओपिनियन की जमाखोरी है अभी,बस समय का इन्तेजार है..
है (मज़मा+ओपिनियन पोल)२ का समीकरण और चुनाव है बिलकुल पास...
हल ढूढ़ने में लगा रहे है सभी कयास,यह समीकरण है जो इतना ख़ास..
वाह वाह सुनने के लिए बकवास कहना पड़ता है वर्ना राजनीती में क्या होता है बकवास...
यहाँ होतें सभी ख़ास,न होते है कोई निराश और होते हम आस पास..
इस समीकरण का हल जरुरी है बस यही मज़बूरी है...
जनता को पटाना है,मज़मा भी लगाना है..
कब मौसम बदल जाए, होता नहीं इसका आभास...
कब कहा ओपिनियन पोल है बकवास,बस लोगो को ग़ुमराह करने का है ये प्रयास..

Monday, November 4, 2013

शर्त लगा बैठा संघर्ष से,हर्ष का क्या

कभी ख़ुशी,कभी गम,कभी आँखें है नम तो कभी है तारा रमपम
ऐ जिंदगी तेरे हर कदम में दीखता कुछ और है
हर बात का अपना इक मिज़ाज़ है और उसी का दमखम है
कभी ख़ुशी,कभी गम,कभी आँखें है नाम तो कभी है तारा रमपम
तेरे मौसम,तेरे रिश्ते,तेरी रवायतें वाह क्या हिज़रत है
उत्सव आने का हर्ष और उत्सव मनाने का संघर्ष
उत्सव के इस मौसम में लगी वही उत्सव की ही शर्त है
तारीखों का ये हिज़रत कल किसी और प्रदेश में
बेताब है उत्सव के इसी शर्त को निभाने में
कभी ख़ुशी,कभी गम,कभी आँखें है नम तो कभी है तारा रमपम
ऐ जिंदगी तेरे हर कदम में दीखता कुछ और है
हर बात का अपना इक मिज़ाज़ है और उसी का दमखम है
पीढ़ियां भी तो हिज़रत ही है जो रवायतों में है दिखती
और इन्ही रवायतों में दीखता है वो गुमां,वो तल्खी
कही इसकी शर्त है,कही इसका हर्ष है और कही संघर्ष
आज हिज़रत पर बंदिशे है बहोत,रवायतें तो कम होंगी ही
शर्त लगा बैठा संघर्ष से,हर्ष का क्या
कभी ख़ुशी,कभी गम,कभी आँखें है नम तो कभी है तारा रमपम
ऐ जिंदगी तेरे हर कदम में दीखता कुछ और है 

हर बात का अपना इक मिज़ाज़ है और उसी का दमखम है..

Saturday, November 2, 2013

शुभ दीपावली

दीपोत्सव की अनंत ज्योति भरी शुभकामनाएँ...शुभ दीपावली..  

Friday, October 18, 2013

दि ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2013 और भारत निर्माण?

दि ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2013 के अनुसार विश्व में अभी तकरीबन 3 करोड़ लोग गुलाम का जीवन जी रहे हैं, इनमें से तकरीबन आधे केवल भारत में हैं.आज़ाद भारतीय गणराज्य में गुलामी/दासता की इतनी बड़ी तादाद इस बात के संकेत है की अंग्रेजो से आजादी हासिल करनी शायद आसान थी परन्तु आज़ादी से आज़ाद होना बहुत कठिन है। या यूँ कहे  की स्वतंत्रता अभी भी कही न कही गुलामी के माहौल में ही है और एक ऐसी समाज, एक ऐसी संबिधान,एक ऐसा तंत्र की तलाश कर रहा है जो मानवीय स्वरुप के बटवारे से मुक्त हो,जहाँ सामाजिक सुरक्षा की औषधि आरक्षण न हो,जहाँ कानून के नियमो के आवाज़ और न्याय एक हो,जहाँ जिंदगी और जिंदगी की गुणवता की परिभाषा की भाषा एक हो,जहाँ धर्म और इसके प्रति निरपेक्ष होने के लिए धर्म को अपराधी न बनाया जाए। सिर्फ लकीरे खींचने से मानवीय मतभेद समाप्त हो जाते तो अब तक दुनिया भर के शब्दकोष में आजादी और गुलामी के अर्थ  बदल जाने चाहिए थे। एक हिन्दुस्तान के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज इसी आज़ाद हिन्दुस्तान के भीतर 28 से ज्यादा सरहदें है। कहीं सवर्ण,कहीं दलित,कहीं महादलित,कहीं अल्संख्यक,कही भाषा,कहीं प्रांतवाद तो कही भीतरी रेखा परमिट। लकीरे खींचते खींचते इंसान यहाँ इतने टुकडो में बँट गया की गुलामो और शोषितों की संख्या में आज हम विश्व में अव्वल नंबर पर है। गुलाम थे तो एक हिस्सेदार था और अब आज़ाद है तो सब हिस्सेदार हो गए। हिस्सेदारों की बढती तादाद,राजयोग का मोह और गहरी लकीरों में बँटी जनता आज़ाद भारत की राजीनीति में इस तरह काबिज है की  संबिधान में हर रोज कई पुराने पन्ने निकाल कर भारत निर्माण के नाम पर कई नए पन्ने जोड़ दिए जाते है ताकि बंटवारे और लकीरों की राजनीती हर दिन नए और कामुक रूप में प्रस्तुत कर क़ानूनी तौर पर जब चाहे तब भुना लिया जाय। भारत निर्माण सिर्फ संसद में प्रस्तावित बिलों का विज्ञापन कर नहीं किया जा सकता,इसके लिए लकीरों पर अंकुश लगाना होगा,इसके लिए मानवीय स्वरूपों के विभाजन और फिर विपणन रोकना होगा। भारत निर्माण तब सफल होगा जब स्वतंत्रता पूरी तरह स्वतंत्र होगी,आजादी शोषित नहीं होगी और राजनीती नस्लबाद और फिर नक्सल्बाद न करे। *भारत में गुलामो की अनुमानित संख्या :- 13,300,000 –14,700,000  है * 32.7% भारतीय अपना जीवन अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा US$1.25/प्रति दिन  के नीचे जीने को मजबूर है -मिलो हम आ गए,मिलो हमें जाना है ??

Thursday, October 10, 2013

आप सबो को दुर्गापूजा की ढेर सारी शुभकामनाएं…

"सर्वमंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके.शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते"

दोस्तों आज महाषष्ठी है यानी शारदीय नवरात्र का छठा दिन। महाषष्ठी के दिन प्रतिमा को पंडाल में लाकर रखा जाता है और शाम को 'बोधन' के साथ माँ दुर्गा के मुख से आवरण हटाया जाता है और इसके साथ ही आज शाम 'लुचि-तरकारी' यानि पूरी सब्ज़ी खाने के इस रस्म के साथ दुर्गोत्सव का जश्न शुरू ...दुर्गा पूजा के ये चार दिन क्या कहने । हर जगह खुशी और उल्लास। लोगों का  हर रोज़ सुबह उपवास रख माँ दुर्गा के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करने दुर्गा पंडाल जाने के लिए घर में भागमभाग और पुष्पांजलि का कभी भी निर्धारित समय पर न हो पाना आदि इस दुर्गोत्सव के जश्न का हिस्सा होता है। लोगों की भीड़ और धूप बाती की आध्यात्मिक गंध के साथ ढाक (ढोल) की आवाज़,धूनुचि नाच और शंख वादन पूरे वातावरण को पवित्र कर रही होती है। तो अब देर किस बात की....दोपहर अब बस संध्या में तब्दील होने ही वाला है…आगाज़ हो इस महाजश्न का…आगाज़ हो दुर्गोत्सव का…आगाज़ हो इस महोत्सव का…आप सबो को दुर्गापूजा की ढेर सारी शुभकामनाएं…:)





Friday, August 23, 2013

गैंगरेप-गैंगरेप-गैंगरेप...

गैंगरेप-गैंगरेप-गैंगरेप। इस बार देश की आर्थिक राजधानी,मैक्सिमम सिटी और महिलाओं के लिए सुरक्षित कही जाने वाली मुंबई के परेल इलाके में बीती रात एक महिला फोटोग्राफर के साथ हुई है। मेरे मन में बार बार एक की सवाल उठता है की एक इंसान की क्या मजबूरी हो सकती है जिसके चलते वह गैंगरेप या बलात्कार जैसी अमानवीय हरकत करने को आमादा हो जाए? हमारा समाज अब महाभारत के युग वाला अविकसित समाज नहीं है। विकास के दृष्टिकोण से काफी परिवर्तित हो चूका है आर्यावर्त,शिक्षितों की संख्या अब पहले के मुकाबले कही ज्यादा है,आर्थिक तौर पर लोग मजबूत हुए है,अब गरीब की कीमत और गिनती है हमारे पास इत्यादि इत्यादि लेकिन क्या समाज और शिक्षित बना सामाजिक प्राणी परिवर्तित हुआ है? या फिर शिक्षित होकर भी शिक्षित होने के उद्देश्य को समझना अभी बाकी है? आर्यावर्त के इतिहास में गैंगरेप या बलात्कार कोई नयी बात नहीं,इस प्रकार की कुंठित मानसिकता की झलक हमारे पौराणिक ग्रंथो में भी मिलती है। उदहारणस्वरुप द्वापर में दुस्सासन ने द्रौपदी का चीर हरण समूचे राजसभा के समक्ष किया था। ये राजसभा कोई और नहीं उस वक़्त का प्रतिष्ठित समाज था? खैर,जब भी कोई ऐसी घटना होती है हम शासन और प्रशासन को दोषी ठहराने में मशरूफ हो जाते है और फिर वर्तमान भूतकाल होते ही शांत हो जाता है परन्तु हमारा विकसित समाज इसकी कभी जिम्मेदारी नहीं लेता? गैंगरेप या बलात्कार पर आज (यानि स्वतंत्रता के 66 -67 साल बाद) हम सख्त कानून के प्रति जागृत हुए है,मतलब स्पष्ट है की कही न कही समाज इन कुकित्यों के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाता रहा है। क्या यह इस बात का  घोतक नहीं है की इस तरह की मानसिकता को आत्मबल देने में हमारा समाज का खोखला संविधान भी जिम्मेदार है,हमारे समाज का राजतन्त्र भी जिम्मेदार है? महिला शोषण,गैंगरेप या बलात्कार जैसी घटनाएं एक खोखली और कमजोर समाज में ही हो सकती है।

महिला शोषण,गैंगरेप या बलात्कार यानी विकृति भी है और कुंठित यौन मानसिकता भी। जिसे रोकने के लिये कानून और मानसिक बदलाव दोनों की आवश्यकता है। पुलिस की कुछ सीमाएं भी है। पुलिस कितनी ही तत्पर,कितना ही कठोर हो परन्तु अकेले पुलिस और दंड का प्रावधान कुछ भय पैदा कर सकते है परन्तु अपराध नहीं रोक सकते। अपराधों को रोकने के लिये हमें यानी समाज के सामाजिक प्राणियों के अंदर के कोंस्टेबल  को सक्रिय करना होगा। हर समाज और सामाजिक प्राणियों को अपने अंदर के सदगुणों को  विकसित करना होगा। जब तक समाज अपने खोखली संविधान और राजतन्त्र में सकारात्मक और स्वस्थ सोंच को स्थान नहीं देगा तब तक बलात्कार जैसी घटना होती रहेंगी और कानून एक कठपुतली की तरह होगा जिसका हर स्तर पर दुरुपयोग किया जायेगा.जैसा की आज सुरक्षा के लिए बने तमाम कानून के साथ हो रहा है। 

मुंबई के राजे-रजवाड़े आज पता नहीं कहाँ दुबक गए है लेकिन मोमबत्ती वाला मोर्चा और हमें न्याय दो  का नारा मुंबई की सडको पर जरुर गूंजने वाला है,बलात्कार के बाद का रिवाज जो निभाना है?

Wednesday, June 12, 2013

बाँट चुट खाए गंगा नहाए

आज के दौर में राजनितिक गठबंधन का मतलब लिव इन रिलेशनशिप जैसा है जिसमे दिनचर्या  पति पत्नी जैसा होता है परन्तु कानून अभी भी पेशो पेश में है की इस रिलेशनशिप को पति पत्नी माने या नहीं? केंद्र और राज्य की राजनीती की संगीत की धुन सदैब अलग अलग होती है और अगर इसमें मनभेद हो जाए तो राजनितिक केन्द्रविंदु उतनी प्रभावित नहीं होती लेकिन अगर मतभेद हो जाए तो दूरियां बनाने से अच्छा कोई मार्ग नहीं हो सकता। हर राज्य की अलग अलग समस्याएं होती है और इसी आधार पर राजनीती की दिशा और दशा भी तय होनी चाहिए। और अगर आपमें आत्मविश्वास है की जनता आपके साथ है तो इतनी संवाद की क्या आवश्यकता है? चुनाव का इंतज़ार करें...जनता आपकी ओर से संवाद करेगी।

गठबंधन का मतलब सर्वजन- हिताय:सर्व- जन सुखाय बिलकुल नहीं माना जाना चाहिए वल्कि इसका मतलब होता है बाँट चुट खाए गंगा नहाए। केंद्र और
राज्य की राजनीती में गठबंधन कमजोर बहुमत और फिर अपनी वजूद बरक़रार रखने के लिहाज़ से अपनी पार्टी को SALE पर लगाने के अतिरिक्त और कोई दूसरा अर्थ नहीं निकलता। भारतीय राजनीती में गठबंधन का सूत्र संवैधानिक संकट है जिसमें शामिल प्रत्येक पार्टी अपने आप को प्रजातंत्र के प्रति कम जिम्मेदार मानने लगती है जो जनता के वोट और पांच वर्षीय संसदीय प्रणाली में मान्यताप्राप्त छलावा है। गठबंधन की राजनीती जब तक चलेगी तब तक बाँट चुट खाए गंगा नहाए भी चलता रहेगा। राष्ट्रीय पार्टी राष्ट्रीय हैसियत से चुनाव में उतरे और क्षेत्रीय पार्टी क्षेत्रीय हैसियत से चुनाव में उतरे तभी जनता समझ पाएगी की राष्ट्रीय हित के लिए किसको जिम्मेदार माना जाए और क्षेत्रीय हित के लिए किसको जिम्मेदार माना जाए? अभी का हाल ऐसा है की गठबंधन यानी व्हिस्की में बियर का कॉकटेल। हैंगओवर होने पर आप समझ ही न पाए की डिहाइड्रेशन हुआ तो किसकी वजह से बियर से या व्हिस्की से या फिर दोनों से?

मल्टी टियर डेमोक्रेटिक सिस्टम में प्रयेक सिस्टम की जिम्मेदारी की अनुसार से ही जनता को मतदान करनी चाहिए मतलब राज्य के लिए राज्य के अनुसार और केंद्र के लिए केंद्र के अनुसार और तभी आप इस व्यवस्था
से कुछ उम्मीद भी कर सकते है और दूसरी तरफ एक मतदाता प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का छुपा रुस्तम मालिक होता है और आपके मतदान के नजरिये में परिवर्तन से ही केंद्र,राज्य और फिर गठबंधन जैसे राजनितिक फोर्मुले को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होगा। नहीं तो आप यही सोचते रहेंगे की हैंगओवर हुआ किस वजह से?

जहाँ तक नितीश कुमार की बात है,एक बात तो माननी पड़ेगी की जो प्रजातंत्र पिछले 20 -25 वर्ष में बिहार के लिए कुछ कर नहीं पाया वो कम से कम नितीश कुमार की सरकार ने कर दिखाया है,उनके रिश्ते किससे अच्छे है या उनकी विचारधारा किससे नहीं मिलती ये एक पार्टी और उसके नेतृत्व का आतंरिक मुआमला होनी चाहिए और जनता के लिए तो सिर्फ राजनीतिज्ञों की जनहित से जुडी गतिविधियों से ही मतलब है। वर्ना फिर आप यही सोचेंगे की हैंगओवर हुआ किस वजह से?

अंत में राजनितिक गठबंधन के लिए एक गीत तो बनता है मित्रो और इसी बहाने आप भी इस गीत को गुनगुना
इस बदलते ग़ज़लनुमा मौसम का आनंद उठायें...

थोड़ी थोड़ी गुजरे पकड़ कभी ताजा सी हवाएं
सटे सटे से ये रिश्ते अपनी बांह को फैलाएं
मेरा मन तो बस गुनगुनाना चाहें
उसका मन,खुलके गीत गाना चाहें
है जिद्दी ये भी बड़ी मजबूरियाँ भी
दूरियां भी है ज़रूरी,भी है ज़रूरी
ज़रूरी है ये दूरियां...:)

Monday, June 10, 2013

सट्टा और सत्ता

सट्टा और सत्ता...जरा गौर से इन शब्दों को समझने की कोशिश करें तो आपको प्रतीत होगा की जिसकी जुबान में थोड़ी तुतलाहट होगी उसके लिए सट्टा और सत्ता के उचारण में कोई ख़ास अंतर नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में जहाँ लोगो को मताधिकार का प्रयोग करने के लिए जागरूक करना पड़ता है और आजादी के ६५ वर्ष बाद आज भी 74% शिक्षित भारतीय में से औसतन 60 % ही मतदान करते है। लेकिन बात जब क्रिकेट की आती है तो यह हमारे देश में किसी जनसांख्यिकीय विशिष्टता की मोहताज नहीं है। भारत में लोगो को मताधिकार के प्रति संवेदनशीलता हो या न हो लेकिन क्रिकेट के सारे घटनाक्रम की जानकारी होती है।हमारे देश में क्रिकेट महज एक खेल नहीं है वल्कि सत्ता के गलियारे की वह रौशनी है जिससे राजनीतिज्ञों की सफलता की मापदंड तय की जाती है,अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बिगड़ते राजनितिक रिश्तो में क्षति नियंत्रण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। 

मैं इन बातो का अपने आलेख में इसलिए जिक्र कर रहा हूँ की आज कल समूचा देश सट्टेबाजी पर चिल्ला रहा है,वह भी क्रिकेट के खेल की खेल जैसी मासूम सट्टेबाजी पर बेचारे और बहुत सीधे साधे दिखने-लगने वाले चेहरे बड़े दुर्दान्त अपराधियों और पापियों की तरह प्रस्तुत किये जा रहे हैं. राज कुंद्रा से पुलिस पूछताछ कर चुकी है और उसके बाद BCCI ने उन्हें निलंबित भी कर दिया है और अब सटोरिये इस बात पर सट्टा लगा रहे होंगे कि उसकी गिरफ्तारी होगी या नहीं! क्रिकेट में सट्टेबाजी एक गुनाह है लेकिन BCCI द्वारा अनुबंधित खिलाड़िओं की बोली लगाकर मालिकाना हक हासिल किया जा सकता है मतलब BCCI अपनी छत्रछाया में एक खिलाडी को एक से ज्यादा बार SALE में लगा सकता है तो कोई गलत बात नहीं है और यह क़ानूनी रूप से वैध भी है...हो भी क्यों न भारतीय टैक्स प्रणाली में भी तो एक ही प्रोडक्ट पर कई बार टैक्स वसूला जाता है फिर BCCI इसमें क्यों चुके? अगर अनुबंधित खिलाड़िओं को भी कई बार SALE पर लगाया जा सकता है तो फिर सट्टेबाजी कैसे एक अपराध हो सकता है?

जिस देश की पूरी अर्थव्यवस्था सट्टेबाजी के इर्द गिर्द घूम रही हो,राजनीति सट्टेबाजी की शरण में हो,समूचा धर्मतंत्र सट्टेबाजी कर रहा हो,वहां सिर्फ क्रिकेट के सट्टे पर विलाप करना सचमुच आश्चर्यचकित करता है। अर्थशास्त्र के महाराजो की बात छोड़ दीजिए, जब बड़ी-बड़ी मालदार कंपनियां ग्राहकों को अपना माल खरीदने के लिए बहलाती-फुसलाती है, अपने शेयरों में निवेश के लिए ऊंचे-ऊंचे बुर्ज खलीफा निवेशकों के आगे बनाती हैं और अर्थ विशेषज्ञ इसमें पैसा निवेश की सलाह देते नजर आते हैं, तब आदमी को किस चीज के लिए उकसाया जाता है. ये लोग भी तो वही करते हैं, जो सट्टेबाज करते हैं-आओ, यहां पैसा लगाओ और रातोरात मालामाल हो जाओ!

अब जरा सट्टा से हट सत्ता में इसका प्रभाव देखते है। किसी भी चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र और उनके नेतागण जो बड़े-बड़े वादे करते हैं, लोगों को मनचाहा भविष्य देने की शेरशाह शूरी मार्ग जैसी लम्बी घोषणाएं करते हैं, जनता को अपने पक्ष में लाने के लिए हजार तरह के झूठे-सच्चे प्रलोभन देते हैं, वह सब क्या है? चुनाव हो जाते हैं,सरकारें बदल जाती हैं,लेकिन जनता की स्थिति यथावत बनी रहती है- आम जनता के साथ यह ठगी सीधे-सीधे सट्टेबाजी नहीं तो और क्या है? यह सट्टेबाजी भ्रष्टाचार का एक रंगीन अधोवस्त्र है जो सिर्फ दिखाने से दीखता है और अगर दिखाया नहीं गया तो यह भ्रष्टाचार की खुबसूरती में स्क्रैच कार्ड की तरह कार्य करता है।

अगर वाकई में सट्टा और सत्ता भ्रष्टाचार का रंगीन अधोवस्त्र है तो इस पर नैतिकता या कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट को दोषी ठहराने के वजाए सट्टा को क़ानूनी रूप से व्यस्क घोषित करना होगा ताकि सट्टा सार्वजानिक अधोवस्त्र हो और इसका इस्तेमाल आधिकारिक तौर पर हर खास ओ आम कर सके। क़ानूनी अमली
जामा पहनने के बाद यह अधोवस्त्र(यानी सट्टा) नैतिक भी होगा एवं सरकारी खजाने की शोभा भी बढ़ाएगा …:)

Wednesday, June 5, 2013

चंद शब्द-ऐंवे ही...जारी है!

प्रयास...प्रायः आस...शब्द बनाने वाले की सोच और समझ के पीछे कोई दैविक शक्ति जरुर होगी...हमें ऐसा लगता है पता नहीं आपको लगता है की नहीं? प्रयास करते रहने का मतलब यह नहीं की सभी व्यक्ति अपनी सोच के मुताबिक सफल हो जाएँ लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं की हम प्रयास करें ही ना...प्रयास एक मार्ग है जिस पर आप चलकर ही प्रायः आस कर सकते है। प्रयास मार्ग के जरिये ही आपके प्रायः आस की सफलता की परिभाषा और समझ बहुत मायने रखती है...आपके सोच के मुताबिक सफलता और आपकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम सफलता की समझ में ना ही आपको प्रयास मदद कर सकती है और ना ही प्रायः आस...इसका वास्तुकार आपको खुद ही बनना पड़ेगा। मनुष्य के प्रजनन प्रणाली का प्रत्येक शुक्राणु जीवन प्राप्त करने योग्य है और लाखों की तादाद में शुक्राणु जीवन प्राप्त करने की एक साथ रेस लगाते है परन्तु कुछ ही जीवन में तब्दील हो पाते है। ये प्रकृति है,विधि का विधान है की प्रयास में हर कोई सफल नहीं होता और यह भी सत्य है की सफलता का मतलब सिर्फ अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार का डायलाग ही नहीं है। अब ये मत पूछिए की दीवार का डायलाग क्या था...जानने का प्रयास कीजिये इसमें आपको सफलता जरुर मिलेगी!! चलिए बता ही देते है ..मेरे पास गाडी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है.तुम्हारे पास क्या है? अब आप इस डायलाग को पूरा करें:)

प्रयास...प्रायः आस...साथ साथ आपके लिए सफलता के क्या मायने है इसको आपको ही परिभाषित करना होगा और तभी सफलता के साथ संतुष्टि को समायोजित कर जीवन जीने की प्रक्रिया को गतिशील रखा जा सकता है। सत्य तो यह है की इस धरातल का प्रत्येक इंसान मरने के लिए ही जीता है। लोग शादी करते है मुख्यरूप से बुढ़ापे के लिए,लोग बच्चे पैदा करते है मुख्यरूप से बुढ़ापे के लिए,लोग बचत करते है मुख्यरूप से बुढ़ापे के लिए इत्यादि इत्यादि...क्यों?...ताकि उनकी मौत किसी के लिए बोझ न हो...ताकि वे शुकून से इस दुनिया से रुखसत हो सकें...

अगर मरने के लिए हम सभी जी रहे है तो मौत को इतना तवज्जो क्यों दिया जाये…वजाए इसके जीवन में सफलता के अर्थ को ऐसे परिभाषित करें की जिंदगी और मौत के बीच कोई दुरी न रह सके...

मेरे पास गाडी है, बंगला है,बैंक बैलेंस है वाली सफलता का मंत्र तो आत्म-संतुष्टि से समाज-संतुष्टि में तब्दील मानसिकता है जिसमे इसको हासिल करने की अंधी दौड़ में हर वक़्त पीछे छुट जाने का भय व्याप्त रहता है… सफलता को परिभाषित करने से पहले जीवन की जरूरतें,प्रयास और फिर प्रायः आस के समीकरण को समझना ज्यादा जरुरी है और तभी एक सफल सोच का निर्माण हो पायेगा ...सफलता तो इसके बाद आती है!!!

जीवन को क्रियाशील बनाये रखती है हमारी प्रयास...प्रायः आस...निरंतर आस ना की निराश...निराश हुए तो न जिंदगी साथ देती है और न ही मौत ???

Tuesday, June 4, 2013

चंद शब्द…ऐंवे ही

अभिनेत्री जिया खान का इतनी कम उम्र में मृत्यु को गले लगा लेना बहुत दुखदायक है और यह इस बात का घोतक है की वंशवाद से ग्रसित फिल्म उद्योग में कैरियर बनाना और इसके प्रतियोगिता में सफल होना दो अलग अलग बातें है जो योग्यता और प्रतियोगिता को हमेशा छलती रहती है और अब फिल्म जगत को ये सोचना होगा की किसी भी तरह की प्रतिभा कभी भी इस तरह अपनी आत्महत्या न करे… परवरदिगार अभिनेत्री जिया खान की आत्मा को शांति प्रदान करे…
{मित्रो...संघर्ष को अपना शत्रु न समझे और प्रयास के साथ साथ जिंदगी में अपनी बारी की प्रतीक्षा करें}..

गर टूटना होता तो कब का टूट गया होता
पर मरने की चाह टूटने नहीं देती
गर बिखरना होता तो कब का बिखर गया होता
पर मरने की राह बिखरने नहीं देती
गर डूबना होता तो कब का डूब गया होता
पर सागर पार करने को बेपरवाह,डूबने नहीं देती
गर झुकना होता तो कब का झुक गया होता
पर श्याह रात की थाह झुकने नहीं देती
जिंदगी है तो मौत है
और मौत है तो जिंदगी
बस इतनी सी बात हमें रुकने नहीं देती
गर रुकना होता तो कब का रुक गया होता
गर रुकना होता तो कब का रुक गया होता...

Thursday, May 16, 2013

IPL मैच फिक्सिंग स्पेशल......{इशारों इशारों में मैच फिक्स करने वाले}

इशारों इशारों में मैच फिक्स करने वाले
बता ये हुनर तुने सिखा कहा से
निगाहों निगाहों में पैसे कमाना 

मेरी जान सिखा हैं तुम ने जहा से
फ़िक्सर को तुम भा गए,क्या थी BCCI की इस में खता
क्रिकेट को तुमने जिस तरह डुबो दिया,
क्या यही है वो जालिम अदा
ये तौलिया दिखाना,खुजली का बहाना
जिंदगी ही हो गयी
है अब तुम से खफा
क्रिकेट से मोहब्बत जो करते हैं वो,क्रिकेट को डुबाते नहीं
अपनी इज्जत कभी, इस तरह लुटाते नहीं 
मजा क्या रहा जब खिलाडी ही कर रहे हो खेल को बदनाम
IPL का ही कर दिया बीच बाजार में नीलाम
माना के जाना-ए-जहा लाखों में तुम ही तीन हो
दिल्ली पुलिस की निगाहों की भी कुछ तो मगर दाद दो
क्रिकेट को नाज जिस फूल पर था
वही फूल ने क्रिकेट का कर दिया क़त्ल-ए-आम...

Tuesday, May 14, 2013

सुमधुरभाषिणीम्

मैं ये लेख लिखना नहीं चाहता था पर अपने आप को रोक नहीं पाया। भारत में आम आदमी के अभिव्यक्ति की आजादी कितनी सुरक्षित है इसका एक उदाहरण (मुंबई की फेसबुक वाली घटना) हम सब भूले तो नहीं ही होंगे.दिवंगत श्री बाला साहब ठाकरे के निधन पर एक फेसबुक यूजर ने फेसबुक स्टेटस लिखा और उसकी दोस्त ने उसे शेयर कर दिया और एक राजनितिक पार्टी के कार्यकर्ताओं की शिकायत पर दो युवतियों को अपनी निर्दोष भावना व्यक्त करने पर पुलिस ने अतिशय तेजी दिखाते हुए रात मे ही गिरफ्तार कर लिया था।

हाल ही में बसपा के सांसद शफीकर्रहमान बर्क ने देश की संसद में....जी हाँ संसद में..इन्टरनेट पर नहीं...वन्देमातरम का बहिष्कार करके साबित किया है कि ये लोग वोट बैंक के लालच में तुष्टिकरण के लिये किसी भी हद तक जा सकते है। वन्देमातरम जो माँ की आराधना का गान है आजादी की लड़ाई का मूल मंत्र रहा है उसका खुला विरोध करके क्या सांसद महोदय ने लोकतंत्र का अपमान नही किया है?

राजनेताओं के ऊपर की गई आम आदमी(जो मतदाता भी है) की टिप्पणी पर तो पुलिस बहुत तेजी से गिरफ्तारी की कार्यवाही करती है लेकिन जब कोई नेता या रसूखदार व्यक्ति सरेआम अभद्रता करते हैं तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नही होती। संसद जो लोकतंत्र की मंदिर मानी जाती है,में एक सांसद द्वारा ही समस्त सांसदों की उपस्थिति में देश की भावनाओं का बलात्कार किया जाता है और इस बलात्कार पर कोई भी राजनितिक पार्टी गंभीर नहीं दिखाई देती... बसपा सुप्रीमो मायावती ने तो इस मामले पर मौनव्रत ही धारण कर लिया है। देश की मीडिया ने भी इस विषय पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया। कुछ बहस हुई और बात ख़त्म...अब इस इंधन,इस उर्जा की क्या आवश्यकता? आजादी मिलने तक ही इसकी उपयोगिता थी।
क्या ये यह संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का सरेआम उल्लंघन नहीं है? यह सही है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की भी अपनी सीमायें और मर्यादा है। लेकिन इसकी कर्त्तव्यपरायणता में तो कोई आरक्षण नहीं होनी चाहिये... कोई धर्मभेद नहीं होनी चाहिए...क्या वन्देमातरम के बहिष्कार से देश की भावनाओं को क्षति नहीं पहुंचा है? क्या IT ACT और इस कानून के तर्क इन सांसदों पे लागु नहीं होता है?

 

{...वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्, [यानि साफ स्वव्छ जल ,अच्छे मीठे फल और शीतल हवाएं देने देने वाली ]
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् .. [ चारो ओर हरियाली है]
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,[ जिसकी चांदनी धवल फैली / में रात मतवाली है ]
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,[जहाँ डाल डाल फूल खिले / कमलों की लाली है ]
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,[जिसका हृदय है हास्य पूर्ण / मीठी जिसकी बोली है]
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ...


इन पंक्तियों में है देश की खुशहाली
कई होली और है कई दिवाली
है ईद की खुशियाँ और शब्-ए-बरात की कव्वाली
धर्मो का भण्डार है ये और है राष्ट्रधर्म की बोली
इन पंक्तियों में देश है बसता
शहीदों की है ये रंगोली
कहाँ करती अट्हास है किसको 
और किसको करती है ये ठिठोली
इन पंक्तियों में है देश की खुशहाली
कई होली और है कई दिवाली...} 


 

भारतीय लोकतंत्र की एक बदकिस्मती है की लोकतंत्र का चोला पहन इसके ही नुमाइन्दे वोट बैंक की खातिर इसकी अस्मत लुटने को आतुर है। भ्रस्टाचार,चीन या पकिस्तान के मुद्दे पे बोलने की बात आती है तो ये पूरी इमानदारी से प्रतिक्रिया देने में जुट जाते है लेकिन अफ़सोस इस मुद्दे पे देश के दीवानों की आकाल पड़ी है???

आश्चर्य है… भारत में आम आदमी के अभिव्यक्ति की आजादी कानून के दायरे में होनी चाहिए और राजनेताओं की अभिव्यक्ति की आजादी पर कानून लागु ही नहीं होता
है???

Saturday, May 11, 2013

संसद- Sine Die

भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया तो सभी देना चाहते है लेकिन मौका मिले तो इसका सम्पूर्ण आनंद उठाने में लोगो को तानिक भी देर नहीं लगती। ये एक ऐसी सच्चाई है जिसका हर व्यक्ति अनुसरण करना चाहता है,विरोध तो सिर्फ आगे बढ़ने के लिए एफ्रोडीजिआक के तौर पर किया जाता है.इसका उपयोग राजनीती के पॉवर प्ले का पूरा पूरा लाभ उठाने के मकसद हेतु होता है। संसद बिना कोई ठोश काम काज के भ्रष्टाचार के मार से एक बार फिर अनिश्चितकालिन (SINE DIE) पस्त हो गया.विपक्षी पार्टिया अब ये पीठ थपथपा रही है की उनकी इस्तीफे की मांग जायज़ थी,अगर सरकार उनकी मांग मान लेती तो संसद का कार्य नहीं रुकता। बात भ्रष्टाचार या मंत्रियों की इस्तीफे की नहीं है बात तो ये है की इस धमा चौकड़ी का असली मकसद तो यही था की संसद चलने न पाए ताकि सत्ताधारी दल अपनी उपलब्धियों की सूचि में कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने में असफल हो। खाद्य सुरक्षा बिल ,भूमि अधिग्रहण बिल जैसे कई अति महत्वपूर्ण बिल पर कोई कार्य नहीं हो सका और आश्चर्य इस बात की है की इसका मलाल लगभग पूरी राजनितिक जमात को नहीं है। ये एक गैर जिम्मेदार लोकतंत्र के संकेत है जहाँ जनता को लेकर पूरा लोकतंत्र ,पूरी राजनितिक जमात इस तरह निश्चिंत है मानो आम जनता के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी बनती ही नहीं है।

अगर आप संसदीय ढांचे और उसके कार्य करने के तरीके को देखे की तो आपको हमारा संसद लगभग 802 (250 राज्य सभा + 552 लोक सभा) सदस्यों वाली एक पार्टनरशिप वाली कंपनी की तरह कार्य करती मालूम पड़ेगी जिसमे कंपनी की शटर की चाभी कुछ गिने चुने व्यक्तियों के पास ही है जो अपने दलगत नफ़ा नुकसान के हिसाब से जब चाहे शटर डाउन कर सकते है। अगर निर्णय इन्ही गिने चुने व्यक्तियों को लेना देना है फिर सांसदों के इतने भारी भरकम हुजूम किस काम का?


विश्व के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं, जो रोजाना 1.25 डालर (करीब 65 रुपये) से कम में जीवन-यापन करते हैं। ये क्या इस बात के साक्ष्य नहीं है की हमारी विशालकाय संसदीय लोकतंत्र आम जनता के प्रति कितनी बेफिक्र है की खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अति गंभीर मुद्दे पे बिना कोई चर्चा के संसद का शटर डाउन कर दिया गया। आज अगर शोर है तो सिर्फ और सिर्फ दो मंत्रियों की इस्तीफे की,कब तक विपक्ष+मीडिया के चक्रव्यूह में आम लोगो की समस्याए जमींदोज होती रहेंगी। विपक्ष के लिए तो बस सत्ता के खक्खन के आगे समस्यों को हल करने की गति धीमी रहनी चाहिए ताकि आम जनता के अन्य समस्याओं के लिए राजनीतिज्ञों को ज्यादा जिम्मेदार न माना जा सके और उनके लिए मुद्दे रेडीमेड रूप में दोषारोपण के लिए सदैब उपलब्ध रह सके। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। वजह सिर्फ एक ही था आपसी फुट,आपसी कलह। आज भी हम इसी राह पर चल रहे है पहले आपसी लड़ाइ में किताब का कोई सहारा न था और आज जब इसका सहारा मिला है तो हम इसका उपयोग मात्र सत्ता के लिए कर रहे है पहले इस लड़ाई का उपयोग परदेशी उठाते है और आज घर के ही लोग उठा रहे है, इस अफरा-तफरी,इस बेचैनी,इस उहा पोह से गैर जिम्मेदार वातावरण का निर्माण हो रहा है जो व्यवस्था के हर हिस्से को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है चाहे वो मीडिया हो,व्यापारी वर्ग हो या प्रशासन...सब बीमार हो रहे है!!!


भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था है। इसी माध्‍यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्‍यक्‍ति मिलती है। ‘संसदीय’ शब्‍द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्‍मक राजनीतिक व्‍यवस्‍था है जहां सर्वोच्‍च शक्‍ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद’ कहते हैं। यह वह धुरी है,जो देश के शासन की नींव है। जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था होने के नाते इसकी कार्य प्रणाली जिम्मेदार होनी चाहिए जिससे देशहित और आम जनता के उत्थान के लिए कार्य हो सके, ऐसा बिलकुल न हो की दलगत राजनीती और सत्ता प्रेम के लिए जब चाहे संसद का शटर डाउन कर दे। संसद को पार्टनरशिप कंपनी न बनने दे...वन्दे मातरम...

Friday, May 10, 2013

मामा भांजा स्पेशल...

पुराणों के अनुसार द्वापर युग के बारे में कहा गया है की इस युग में पृथ्वी पर पाप कर्म बढ़ गए थे और भगवान श्री कृष्ण का अवतार एवं महाभारत का युद्ध भी इसी युग में हुआ था। हमारे आर्यावर्त के इतिहास में मामा भांजा के रिश्ते हमेशा से ही लोभ,लालच और पारिवारिक भ्रष्टाचार की प्रतिक मानी जाती रही है। महाभारत में शकुनि मामा का जलवा किसको ज्ञात नहीं है जिन्होंने धर्म और अधर्म के चौसर में भ्रष्टाचार को इतना भावुक रूप दिया की करुक्षेत्र की मिटटी आज तक लहू लुहान है। पुराण के द्वापर युग और आज के वन्दे मातरम युग में अंतर मात्र इतना है की आज धर्म की सम्पूर्णता का आंकलन करने वाला कोई नहीं है सब करुक्षेत्र की मिटटी बन चुके है तो अधर्म के दुष्परिणाम की प्रत्याशा कौन करेगा। भ्रष्टाचार तो बस अधर्म का एहसान और रवायत का बड़ी शिद्दत से निर्वाह कर रहा है,नारायणी सेना भी साथ है।

रेल घुंस काण्ड भी इसी इसी परंपरा की झलक है जो दर्शाती है की भ्रस्टाचार का जन्म घर में होता है और राजनीती में आकर जवां होती है। जैसे शीला की जवानी के मजे सपरिवार उठाते है वैसे ही इसकी जवानी के भी लुत्फ़ उठाये,हर्ज़ क्या है ? बुद्धिजीवियों के खेल शतरंज में प्यादा की स्थिति यथावत ही है सिर्फ बुद्धिजीवियों की पीढियाँ बदली है...चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शारीर, पर लोभ से लक्ष्मी बढे, कहाँ गए अब दास कबीर..:-)

Friday, May 3, 2013

क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर

क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो आंशु  बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो सिर्फ सुपुर्द ए खाक होने 
क्या अब हममे इतनी ही शक्ति बची है की अपनों के अर्थियों का सहारा बन सके
क्या चुक हुई जो राजनीती हत्यारा बन गया
क्या चुक हुई जो इंसानियत दर्द का पिटारा बन गया
सरहदों को क्या मालूम रक्त का व्यवसाय होता है वहां
सरहदों को क्या मालूम जिंदगी असहाय होता है वहां
सरहदों को क्या मालूम छल की रवायत है वहां
सरहदों को क्या मालूम जिंदगी के आगे जिंदगी दम तोडती है वहां
क्या चुक हुई जो जय हिन्द की उर्जा काम न आई
क्या चुक हुई जो वन्दे मातरम बेसहारा बन गया
२५ साल कितनी मंडली आई कितनी मंडली गयी
अगर यह निर्दोष था क्यों इसे बचाया न गया
राजकीय शोक से फिर छुपाया जा रहा है राजनीती के इस अपराध को
क्या चुक हुई जो राजनीती से मौत के खेल को हटाया न गया
अगर मलिन हो चुकी है राजनीती तो ख़त्म करो इस रिश्ते को
अगर दीन हो चुकी है कूटनीति तो दफ़्न करो दिखावे के इस गुलदस्ते को
मौत पे रोने की परंपरा है पर आँखों को क्या पता इस अनर्थ का 
आंशुओं को क्या पता की किस बूंद में गम की पीड़ा है और किस बूंद में दिखावा
जुटेंगे लोग मिटटी को मिटटी में मिलाने को
एक और अपराध,एक और कत्ल दफनाने को
बोलियाँ फिर लगेंगी कल से सत्ता के सुनहरे बाजार में इंसानों की
बंदरबांट में जुटे यहाँ किसको चिंता है भारत/भारती के संतानों की
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो आंशु  बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो सिर्फ सुपुर्द ए खाक होने...

Thursday, May 2, 2013

परिवर्तन है चीत्कार कर रहा

बार बार कोंख क्यों है शर्मशार हो रहा
अजन्मी बेटियों पे वार बारम्बार हो रहा
ममता की अस्मत तार तार हो रहा
क्या हो गया है इस संसार को
इंसानियत क्यों है बीमार हो रहा
बार बार कोंख क्यों है शर्मशार हो रहा
अजन्मी बेटियों पे वार बारम्बार हो रहा
क्यों देखती है आँखें इनको अलग थलग
जन्म देने वाला ही मौत का क्यों पैकार बन रहा
और जो बेटियाँ है इस जहां में
क्यों इनपे इतना है अत्याचार हो रहा
रिश्तो की डोर से बंधे इस समाज को
रिश्तो से ही क्यों अब सरोकार न रहा
क्या हो गया है इस समाज को
इंसानियत है क्यों नीलाम हो रहा
वक़्त है एक सच्ची आवाज़ की
स्वस्थ रिश्तों की आगाज़ की
बेटियों के तख्तोताज की
एक जिम्मेदार समाज की
परिवर्तन है चीत्कार कर रहा
परिवर्तन है चीत्कार कर रहा...

Saturday, April 27, 2013

M.A.R.D

दिल्ली की ५ वर्ष की बच्ची के बलात्कार का मामला और दिल्ली में ही एक अदालत ने 61 वर्षीय व्यक्ति को अपनी प्रेग्नेंट बहू से जबरन संबंध बनाने और उसे सूइसाइड के लिए उकसाने के आरोप में 10 साल कैद की सजा सुनाई। इस प्रकार के मामले इस बात के घोतक है की बलात्कार के ज्यादातर मामलों में परिचित या रिश्तेदार ही मुख्य भूमिका निभा रहे है, इसलिए यह मामला सिर्फ कानून व्यवस्था को कोसने का ही नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों और संस्कार का भी है। हमारे सामाजिक ढांचे में कोई बुराई जरूर है। जब कोई महिला अपने घर में ही सुरक्षित नहीं तो वह बाहर कैसे सुरक्षित रह पाएगी।
सामाजिक ढांचे से जुडी बलात्कार रूपी कर्क रोग को दुनिया की कोई भी कानून व्यवस्था सुधार नहीं सकती। दिखाई देने वाले जख्म का उपचार किया जा सकता है लेकिन जो जख्म समाज के रंगीन परदे से ढका हो उसका इलाज सिर्फ और सिर्फ स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था ही कर सकता है,इसके लिए पुलिस और कानून व्यवस्था को पूर्ण रूप से दोषी ठहराना एक तरीके से समाज के रंगीन परदे से ढके खोकली मानसिकता का समर्थन करना है.
विकास और आधुनिकता के नशे में धुत हमारी भारतीय समाज आज नेत्रहीन हो चुकी है.महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की बात आज हम सब कर रहे है लेकिन उसी महल में जहाँ शीला की जवानी,मुन्नी को बदनाम होते देखकर और फिर उसके फोटो को अपने दिल में फेविकोल से चिपकाकर सपरिवार मनोरंजित होते है और अगर इससे भी मन नहीं भरा तो फिर आ रे प्रीतम प्यारे बन्दुक में न तो गोली मेरे, सब आग तो मेरी चोली में रे,जरा हुक्का उठा जरा चिल्लम जला,पल्लू के नीचे छुपा के रखा है,उठा दूं तो हंगामा हो इस उबाऊ जिंदगी को या हमारे सामाजिक समारोहों में चार चाँद तो लगा ही देगा.
आर्यावर्त की संस्कृति और पश्चिमी सभ्यता हमेशा से ही दो अलग मानसिकता रही है और इसका मुख्य कारण है प्रकृति यानि जलवायु ,ऋतु एवं आबोहवा। विकास के फोर्मुले में पाश्चात्यकरण आवश्यक है लेकिन किस हद तक ? पाश्चात्यकरण के बढ़ते प्रभाव व आधुनिकता का भूत आज इस कद्र हावी है कि टेलीविजन में,समारोहों में, फिल्मो में तथा अन्य कार्यक्रमों में महिलाओं को ऐसे अश्लील परिधानों में प्रदर्शित किया जाता है मानो महिलाओं की मानसिक आजादी का मतलब तन को ढकना कम तथा दर्शाना अधिक है। कोई भी विज्ञापन, किसी चैनल की एंकरिंग तथा अन्य कार्यक्रम तब तक पूर्ण नहीं होते, जब तक अश्लील तरीके से तथा अधूरे वस्त्र पहनी हुई लड़कियां उसमें शामिल नहीं होतीं। अब ये लड़कियों व महिलाओं को सोचना चाहिए कि क्या उनकी मान-मर्यादा इतनी सस्ती व बिकाऊ है कि चंद पैसों के लिए उसका हनन हो। महिलाओं को भी ये सोचना होगा की उनका इस्तेमाल किसी वस्तु की तरह न हो। विकास,आधुनिकता एवं पाश्चात्यकरण के त्रिकोणीय समीकरण में स्त्री और स्त्रीत्व का व्यवसायीकरण न हो। कल एक टेलीविजन चैनल पर M.A.R.D {Men Against Rape and Discrimination} नामक महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा से संवंधित सोशल कैम्पेन देखने को मिला। इसका  LOGO है...

इसमें मुछ को मर्द की भावनाओ से जोड़कर एक जागरूकता की अलख जगाने की कोशिश की गयी है. हमारे समाज में मुछ को बड़ी तरजीह दी गयी है और इसको मर्दानगी का प्रतिक माना गया है लेकिन भारत को छोड़ अन्य पश्चिमी देशो में मुछ मर्द का LOGO नहीं है लेकिन वहां महिलाओं की इतनी दुर्गति नहीं है जितनी की हमारे देश में है-क्यों? क्योंकि वहां के कायदे कानून वहां के आबोहवा के अनुसार बनाया गया है. M.A.R.D- ये एक अच्छा प्रयास है लेकिन ये सोशल कैम्पेन सिर्फ मर्दों को जिम्मेदार बना रहा है जबकि हमारी समाजिक संरचना इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है जिसने मुछो को मर्दानगी का थर्मामीटर बनाया है. अगर इस सोशल कैम्पेन का टैगलाइन Society Against Rape and Discrimination(सोसाइटी अगेंस्ट रेप एंड डिस्क्रिमिनेशन ) होता तो शायद समाज को अपनी जिम्मेदारी और बलात्कार जैसे मानवीय अपमान की पीड़ा का एहसास कराने में ज्यादा कारगर सिद्ध होता। किसी भी प्रकार के प्रयास में शुरुआत इसकी दीपक की लौ होती है और इतनी जल्दी रौशनी की आशा भी नहीं करनी चाहिए। विश्व के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं, जो रोजाना 1.25 डालर (करीब 65 रुपये) से कम में जीवन-यापन करते हैं और यहाँ दो टाइप का समाज है एक खाप पंचायत और दूसरा खाक पंचायत। हमारे देश का सामाजिक ढांचा आज तक गरीब भारत,खाप और ख़ाक  के बीच समन्वय नहीं बिठा पाया है और अब यह देखना दिलचस्प होगा की हमारा समाज महिलाओं की दुर्गति जैसे संवेदनशील मुद्दे का हल कितनी परिपक्वता से निकाल पाता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य द्वारा किये गए हर अपराध की जिम्मेदारी पुरे समाज को लेनी पड़ेगी,सिर्फ दिल्ली के पुलिस कमिश्नर,कानून व्यवस्था,नेता या सरकार पर दोष मढ़ संगम स्नान का फल नहीं मिल सकता।

Sunday, March 17, 2013

रविवासरीय

इस वित्त वर्ष में सरकार द्वारा टैक्स की सीमा में छुट तो नहीं मिली लेकिन सेक्स की उम्र सीमा में छूट जरूर मिली है। शादी की योग्यता महिलाओ के लिए 18 वर्ष ,पुरुषो के लिए 21 वर्ष और सहमती से सेक्स के लिए योग्यता 16 वर्ष? ये छूट हमारी संस्कृति में अपराध और अपराधी के बीच चाइनीज खेल सु -डोकु जैसा है। सहमती से सेक्स के लिए योग्यता 16 वर्ष महिलाओं की सुरक्षा कितना सुनिश्चित करेगा ये आने वाला वक़्त ही बतायेगा लेकिन आने वाले चुनावी मुकाबले में मुंह मिया मिट्ठू बनने के लिए ये 16 वर्ष की बाली उमर फिट है बॉस।

सरकार जो एंटी रेप कानून बनाने वाली है वो अपराध और अपराधी दोनों का एक नया चेहरा प्रस्तुत करेगा,अब तक तो अधिकांशतः पुरुष सेक्स मतभेद से जुड़े अपराध में लिप्त पाए जाते रहे है लेकिन अब इस कानून से महिलाए भी चाइनीज खेल सु -डोकु खेलते नजर आने वाले है। इंसान हमेशा निति निर्धारण की आड़ में स्थिति-निर्धारण करता आया है और फिर ये स्थिति तो मौके पे चौक लगाने जैसा है,ये नया वाला लेकिन अस्पष्ट एंटी रेप बिल सेक्स मतभेद में महिलाओं को भी अपराधी बना दे तो इसमें कोई अश्चर्य नहीं होनी चाहिए। नव विभाजित इंडिया और भारत के समाज में अगर सेक्स मतभेद के प्रति सोच अगर यथावत रही तो आप कितनी भी कानून ले आइये कुछ परिवर्तित होने वाला नहीं है।

आइये अब थोडा दुरे विषय पे चर्चा करते है। जैसा की आप सभी देखें ही होंगे ,दिल्ली की रामलीला मैदान आज एक बार फिर लोगो के हुजूम के साथ अस्त व्यस्त दिखा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आज दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में  विशेष राज्य का दर्जा की मांग  के लिए अधिकार रैली किया। रैली के राजनितिक मायने क्या होंगे और इस रैली से विशेष राज्य का दर्जा की मांग का कितना असर होगा ये तो आने वाले लोकसभा चुनाव की ज्यामिति पर निर्भर होगी। लेकिन श्री नितीश कुमार की आज की भाषण से ऐसा लगा की उनकी ये मांग तत्कालीन स्थितियों को भुनाने के लिए नहीं है। पहली बार बिहार के किसी नेता ने सांख्यिकी के गहन अध्यन के साथ और उसका आधार बनाकर अपनी मांग रख रहा है। उनके संबोधन के मुताबिक बिहार में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। विकास के लिए प्रति व्यक्ति खर्च राष्ट्रीय औसत से आधा है। मानवीय विकास सूचकांक में भी बिहार पीछे है।  विकास हर इंसान का  अधिकार है। ऐसी स्थिति में बिहार के लिए केंद्र को विशेष क्यों नहीं सोचना चाहिए? एक जमाने में सत्ता बिहार से चलती थी। जी हाँ चाणक्य तो स्मृति में होंगे ही!

वैसे दोस्तों 
दुनिया भर में जहाँ भी लोकतंत्र है,सभी राजनीतिज्ञ जानते है की लोकतंत्र में आम जनता बड़ी नोट है और इसके खुल्ले कैसे करवाने है। चाहे वो खुल्ला चुनावी घोषणा पत्र के जरिये हो या फिर मीडिया पर सीधी बात नो बकवास के जरिये। पर एक बार अगर बड़ी नोट के खुल्ले हो जाये तो पैसे की क्या हश्र होती है तो ये तो हम जानते ही है। पैसेंजर ट्रेन अचानक राजधानी की गति में तब्दील हो जाती है। आज हमारे देश में संबिधान का भी हाल आम जनता जैसा ही यानी बड़ी नोट हो चला है। हमारे लोकतंत्र का हर राजनीतिज्ञ इस बड़ी नोट के खुल्ले की फिराक में लगा है,सहमती बना ले तो बड़ी नोट थोड़ी बड़ी होकर तो जरूर बच जायेगी।

साहिल की रेत पर यूँ लेहेर उठा ये दिल,सागर में उठनेवाली हर लेहेर को सलाम-सोलह बरस की बाली उम्र को सलाम।।

शुभ रात्रि..:):)


Sunday, February 24, 2013

महाराष्ट्र भयंकर सूखे की चपेट में...

महाराष्ट्र 40 वर्षों के सबसे भयंकर सूखे की चपेट में है। इस भयंकर सूखे ने मराठवाड़ा के बहुत से किसानों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। नया फसल फिर से खड़ा करने के लिए ना तो उनके पास पैसा है और न पानी। अगर किसान को समय चलते मदद नही मिली तो वो कर्ज और आर्थिक नुकसान के बोझ के तले दिन-ब-दिन दबते चले जायेंगे। यह वही मराठवाडा है जहाँ से पुरे देश में मोसंमी और अनार की आपूर्ति होती है। एक अनुमान के मुताबिक इस साल सिर्फ मराठवाड़ा में सूखे की वजह से करीब 3 हजार करोड़ का नुकसान होने की आशंका है।

प्रकृति जब अप्रसन्न होती है, तो उसके कोप से जूझने की हमारी तमाम तैयारी अक्सर कम पड़ जाती है। बाढ़, सूखा और अकाल इसी की परिणति हैं। दूसरी तरफ, प्रकृति जब कुछ देना चाहती है,तो हमारे पात्र छोटे पड़ जाते हैं और हम उस उपहार को समेट नहीं पाते। इस साल अपेक्षा से कई गुना बेहतर बारिश प्रकृति का पृथ्वी के लिए एक उपहार बनकर आई। लेकिन इसकी नियति अब तक भाप बनकर उड़ जाने या समुद्र में मिल जाने की रही है।

पुराने जमाने में देश के जिस हिस्से में पानी की जितनी दिक्कत थी,वर्षा जल संचयन का वहां उतना ही पुख्ता इंतजाम होता था। इसीलिए देश के हर इलाके में पानी के संचयन और सदुपयोग की एक से एक बेहतरीन स्थानीय व्यवस्थाएं रही हैं। पहले जितने धार्मिक,सामाजिक स्थान विकसित किए गए,सभी जगह तालाब या बड़े कुंड का निर्माण कराया गया। लेकिन यांत्रिक गति से बढ़ी विकास की रफ्तार ने प्रकृति से लेने के लिए तो हजार तर्क बना लिए, लेकिन उसे लौटाने की व्यवस्था न तो सामाजिक स्तर पर,और न ही सरकारी तौर पर प्रभावी हो पाई। प्रकृति पुनः चक्रित सिद्धांत पे चलती। मतलब जो चीज प्रकृति हमें देती है उन्हें हमें किसी न किसी रूप में बापस लौटाना भी होता है। उदाहरणस्वरुप हम प्रकृति के दिए हुए अनाज खाते है,पानी पीते है या कोई भी चीज हम आहार के रूप में उपभोग करते है उसे पुनः हम लौटाते है..कैसे मलमूत्र के जरिये...ताकि फिर संसार के किसी अन्य प्रयोजनों में इस्तेमाल की जा सके। विकास के नए तौर-तरीकों में पानी के इस्तेमाल के बीच हम यह भूलते जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में पानी आएगा कहां से। लगातार हैंडपंप पर हैंडपंप,हैंडपंप पर हैंडपंप लगाते जाने से तात्कालिक समस्या तो दूर हो जाएगी, लेकिन इसी रास्ते भूजल स्तर के और नीचे चले जाने की एक बड़ी तबाही भी हमारे सामने आती है। भूमिगत जल को बाहर निकालने की आवश्यकता तो है लेकिन जिस स्रोत से दोहन किया जा रहा है उस स्त्रोत में वापस जल का उसी मात्रा में पहुँचना भी तो आवश्यक है। इस स्रोत को तकनीकी भाषा में भूमिगत जलाशय कहा जाता है, का आवश्यकता से अधिक दोहन करने पर या तो ये पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं या इनमें जल संग्रह क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। मानव जीवन के लिए भूमिगत जल,सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण है। भारत के लगभग 80 प्रतिशत गाँव,कृषि एवं पेयजल के लिये भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं और दुःख की बात यह है कि विश्व में भूमिगत जल अपना अस्तित्व तेजी से समेट रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अन्वेषणों के अनुसार भारत के भूमिगत जल स्तर में 20 सेंटी मीटर प्रतिवर्ष की औसत दर से कमी हो रही है, जो हमारी विशाल जनसंख्या की ज़रूरतों को देखते हुए गहन चिंता का विषय है।

मृदा [धरती की ऊपरी सतह] की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में छिपा आज सबसे कीमती खजाना है- भूमिगत जल। बारिश का पानी,अपनी क्षमताओं और गुणों के अनुरूप,मिट्टी पहले तो स्वयं सोख लेती है और जब वह तृप्त हो जाती है तो इसी रास्ते,पानी उन चट्टानों तक पहुँचने लगता है जो मृदा की परतों के नीचे अवस्थित हैं। वर्षा का ज्यादातर पानी सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों से मिल कर सागर में मिल जाता है। वर्षा का यह बहुमूल्य शुद्ध जल यदि भूमि के भीतर पहुँच पाए तो बैंकिंग प्रणाली की तरह यह कारगर होगा यानी कि निवेश पर ब्याज का लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है। भूमिगत जल मानसून के बाद भी मृदा की नमी बनाये रखते हुए अपना व्याज निरंतर अदा करता रहता है साथ ही कुएँ और नलकूप आदि साधनों द्वारा खोती के काम आता है और जनमानस की प्यास भी बुझाता रहता है। इसे प्राकृतिक जल संचयन स्टोरेज टैंक भी कहा जा सकता है।

पर्यावरण का हमारे जीवन में अत्यंत महत्व है। शुद्ध हवा,पानी,रहने के लिए भूमि और भोजन सभी कुछ हमें पर्यावरण से मिलता है। सभी प्राकृतिक संसाधन इसी पर्यावरण में पाए जाते हैं। जनसंख्या बढ़ने से लोगों की आवश्यकता भी बढ़ी है। और उसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए लगातार प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन हो रहा है। हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग और संरक्षण कैसे करें, इस पर हमारी उलझाऊ नीतियों की मुश्किलें एक बार फिर कटघरे में हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सरकार कृषि सम्बन्धी योजनायें तो बनाती है लेकिन यह कोई काम की नहीं जब हम कोई आपात स्थिति में अपने आप को असहाय महसूस करें। सिंचाई के मद्देनज़र नदियों को आपस में जोड़ने की योजना के साथ साथ पुरे देश में जल संरक्षण के लिए भी विशेष व्यवस्थ होनी चाहिए ताकि सूखे की स्थिति में भी लोग असुरक्षित और असहाय महसूस न करें। किसानो का कर्ज माफ़ी और मुआवजा मात्र ही इस समस्या का निवारण नहीं है,हमें प्रकृति को थोड़ी इज्जत भी देनी होगी क्योंकि प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है और अगर इसके संसाधनों का अनुशाषित तरीके से इस्तेमाल नहीं किया तो इसका परिणाम ठीक वैसा ही होगा जैसे एक समय पर दुनिया पर अधिकार रखने वाले डायनासोर भोजन की कमी के कारण समाप्त हो गये थे, कहीं एक दिन मनुष्य भी बिना पानी के समाप्त न हो जाएँ?

वैसे तो मानवाधिकार वाले इस युग में इंसानों की जान की कीमत मुआवज़े के रूप में चंद लाख रुपयों में तय की जाती है और किसान जो हमारे देश के स्तम्भ है अगर उनकी इस दुर्दशा का अच्छी तरह से ख्याल नहीं रखा गया तो कहीं विदर्भ की तरह मराठवाडा का किसान भी आत्महत्या की राह चुनता नजर आया तो उसमे हैरानी की कोई बात नही होनी चाहिए.उम्मीद है की सरकार द्वारा किसानो को ठोस सहायता प्रदान की जायेगी और महाराष्ट् के इस सूखे को आगामी लोकसभा चुनाव की लोक लुभावन राजनीती के पाकविधि में शामिल कर मुआवजे के तड़के में किसान आत्महत्या को चुनावी मुद्दे के मेनू लिस्ट में स्वादिष्ट तरीके से पेश कर भुनाया नहीं जाएगा,राजनीती होगी तो सिर्फ और सिर्फ राहत और पुनर्वास के लिए...


Wednesday, February 20, 2013

हड़ताल- जनाधिकार या जनता के लिए परेशानी

भारतीय मज़दूर संघ और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जरिए बुलाई गई दो दिन की हड़ताल आज से शुरू हो गयी है। मैं भी ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल का पुरा समर्थन करता हूं । लोकतान्त्रिक ढाँचे में हड़ताल भी अभिव्यक्ति की आजादी जैसा है तब जब लोकशाही बधिरशाही हो जाए। यह भी एक जनहित याचिका के जैसा ही है,बस हड़ताल और जनहित याचिका में एक ही अंतर है,हड़ताल आपात स्थिति है और जनहित याचिका पंचवर्षीय योजना। मुंबई छोड़ लगभग पूरा भारत इस ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल के जरिये अपनी व्यथा सरकार तक पहुंचाने में मशरूफ है। मुंबई क्यों नहीं?

मेरे ख्याल में हिंदुस्तान का मध्यम वर्गीय समाज सबसे कायर है। वह खुद तो संकोच/भय मे जिता हीं है,दुसरे को भी बाध्य करता है जिने के लिये। मध्यम वर्गीय समाज मुंबई में भी एक विशाल तबका है जो भय पर विजयी होना तो चाहता है लेकिन आगे आकर नहीं? यहाँ की जनता पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के सांठगाँठ से इस तरह संतुष्ट है जैसे की जनमानस से इनका कोई सम्बन्ध ही न हो। लोकशाही बधिरशाही इसलिय बन गयी है क्योंकी इनकी नीतियाँ वाणिज्य एवं अर्थशास्त्र के हितार्थ ही बनती है और इसका फायदा सीधे तौर पे पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के संघटन को ही होता है। इन नीतियों से शाही के समक्ष लोक की ऐसी दशा होती है मानो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विपदाओं के यही मुख्य आरोपी है। हड़ताल लोकतंत्र में एक ऐसा अधिकार है जिसमे जनता की धवनि बहुत ऊँचे स्वर में होती है और जो जनमानस के लिए आपातस्थिति स्तर के समाधान की जरूरत के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश करती है।


राजनीतिक एनेस्थीसिया(anesthesia) के व्यसन से मूर्छित सरकार यह भूल गयी है की इस देश में आज भी 70 करोड लोग गरीबी की रेखा से नीचे है। 37 फिसदी बच्चे स्कूल जा नहीं पाते और ऐसे में वाणिज्य को इतनी आसानी से अर्थशास्त्र के साथ पाणीकरण संस्कार करना आम जनता के कठिन जीवन की अग्नि को और प्रज्ज्वलित करना है। लगभग 2 करोड़ संतुष्ट या भयभीत या संकुचित मुबईकर्स अगर इस हड़ताल में आगे आना समय की फिजूलखर्ची समझते है तो कोई बात नहीं लेकिन किसी जनकल्याण से जुड़े आन्दोलन का प्रोत्साहन करना भी आन्दोलन से जुड़ना माना जाएगा,मीडिया भी किसी आन्दोलन में अपनी मौजूदगी इसी तरह दर्ज कराती है।सरकार के खजाने में मुबईकर्स के करानुदान का भारी भरकम हिस्सा होता है और यह मुबईकर्स का हक है की सरकार की मलाई पनीर वाली आर्थिक निति निर्धारण में इनके आवाज़ के लिए भी स्थान आरक्षित हो। कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक उस देश का एक व्यक्ति भी भुखमरी से अपनी जान गंवाए.सीमित/तंग आमदनी और असंतुलित एवं निरंतर महंगाई इन 70 करोड लोग जो गरीबी की रेखा से नीचे जीने को विवश है उनका क्या होगा? जनता भी अगर जनता की हित का ख़याल रखना शुरू कर दे तो हड़ताल जैसे अभिव्यक्ति की आजादी जनकल्याण के प्रयासों में वरदान सिद्ध होगा!!! जनाधिकारों के सदुपयोग से अधिकारों का भी सम्मान होता है वर्ना इसका हाल पुराने नोटों में RBI Governor के हस्ताक्षर के जैसा होगा???