Negative Attitude

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Thursday, December 20, 2012

पुरुष- पशु या भर्तार?

हाल ही में दिल्ली में चलती बस में फिजियोथेरेपिस्ट के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना हृदय विदारक,शर्मनाक और दुखद है और यह साबित करता है कि हममें इंसानियत का स्तर कितना नीचे गिर चूका है?अब वह समय आ गया है कि हमारे देश में भी सऊदी अरब जैसे कानून लागू किए जाएं। पुरुष स्वभाव से पशु होता है इस वैज्ञानिक सत्य को आज दिल्ली की इस घटना ने प्रमाणित कर दिया है।यह एक सामाजिक आतंकवाद जैसा है जो सड़ी हुई पुरुष प्रधान सोंच से उत्पन्न हुई है और अगर इस पर शीघ्र नकेल नहीं कसी गयी तो यह पुरे समाज को अपनी चपेट में लेकर अघात करता रहेगा और ऐसे लोगो की सजा जैसे को तैसा आधार पे सुनश्चित की जानी चाहिए। मुझमे इस विषय पर इससे अधिक बोलने की हिम्मत नहीं है।

आधुनिकता की अगुआई में आज हमारा भारत कई परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा है। बढती आमदनी,शिक्षा का स्तर,मीडिया का प्रभाव,एवं कठिन होती जीवन यापन की शैली ने लोगो के पास एक ही विकल्प दे रखा है और वो है प्रवर्जन। छोटे शहरों से सार्वलौकिक(Cosmopolitan)शहरों में प्रवर्जन आज के दौर में एक क्रांति है जो नए एवं अत्याधुनिक भारत की एक अलग तस्वीर भी प्रस्तुत करती है वही दूसरी ओर विशाल जनसँख्या होने के नाते सामाजिक विषमताओं का संक्रमण पुरे समाज को बीमार करता जा रहा है। सोंच और शिक्षा आपस में सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा है और परिणामस्वरूप आज मौज-मस्ती,मनोरंजन अपराध का रूप ले रहा है।इस प्रकार की सामाजित विकृति एक ऐसी महामारी है जो विज्ञान के साथ साथ प्रकृति को भी खुलेआम चुनौती दे रहा है एवं स्पष्ट रूप से मनुष्य के अस्तित्व को विनाश की ओर धकेल रहा है। व्यवस्था परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपनी सोच और अपनी शिक्षा के मध्य सामंजस्य का प्रवाह कराना। छोटे शहरों से सार्वलौकिक(Cosmopolitan) शहरों में जब लोग आते है तो उनका सामना एक अपरिचित संस्कृति से होता है। परदे में लिपटे माहौल में पले बढे लोगो के लिए पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित महिलाओं के लिबास और शहर की उदार मानसिकता देख उनके पुरुष प्रधान समाज वाली सड़ी हुई मानसिकता को एक सांस्कृतिक धक्का/झटका लगता है और यह धक्का/झटका/सदमा सोंच और शिक्षा के मध्य सामंजस्य की आभाव वाली मस्तिस्क को अपराधिक सोच में तब्दील कर देती है। इस तरह के एक अपरिचित संस्कृति से उत्पन्न होने वाले संस्कृति सदमे को रोकने के लिए वैज्ञानिक तौर पर कोई ठोस उपाय नहीं है, इसका उपाय सिर्फ और सिर्फ सोंच और शिक्षा का सामंजस्य वाला मस्तिस्क ही हो सकता है जो इस तरह के सांस्कृतिक विरोधाभासों के दुष्प्रभाव को सकारात्मक रूप में स्वीकार कर सके.मैं भी एक छोटे शहर से हूँ फिर भी मुझे इसे लिखते हुए कोई तकलीफ नहीं हो रही है...अगर छोटे शहरों के लोग अपनी इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल सकते तो आप सार्वलौकिक(Cosmopolitan)शहरों में प्रवर्जन ना करें। यह आपके और समस्त समाज के लिए हितकारी होगा। छोटे शहरों के लोगों को यह बात अच्छी नहीं लग रही हो या उनकी भावनाओं को ठेस पंहुचा हो तो मैं क्षमा मांगता हूँ लेकिन सोंच,शिक्षा और मानसिकता की दूरी मिटाए बिना एक सुरक्षित समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता और इस बात से आप सभी को सहमत भी होनी चाहिए।

दूसरी तरफ आज की गैर जिम्मेदार फिल्म्स भी सोंच,शिक्षा और मानसिकता की विकृति में अग्नि उद्दीपन का कार्य कर रही है । आज समाज में फैल रही अश्लीलता और अपराध को सर्वाधिक रास्ता दिखा रहा है यह गैरजिम्मेदार फिल्म्स। इससे युवा पीढ़ी पर होने वाले गलत असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ वर्षो पे निगाह डालें तो आपको पता चलेगा की भारतीय सिनेमा में इस दौरान आइटम गीत या आइटम नंबर (मेड इन इंडिया ओनली) का प्रचलन का खूब प्रचार प्रसार हुआ है। मैं आइटम गीत या आइटम नंबर की इस लिए चर्चा कर रहा हूँ की फिल्मों में आइटम गीत या आइटम नंबर रखने का एक ही मकसद होता है...महिलाओं को आगे कर संगीत के जरिये यौन उत्तेजक भावनाओं का प्रदर्शन करना। या फिर दुसरे शब्दों में कहें तो महिलाओं को अश्लीलता के श्रृंगार में मनोरंजन के रूप में परोसना। इससे मनोरंजन कितना होता है ये तो मुझे समझ नहीं आता लेकिन यह समाज में महिलाओं की हैसियत कमजोर जरूर करती है और साथ साथ लोगो को महिलाओं के अस्तित्व को लेकर गलत सन्देश भी देती है। अक्सर आइटम गीत या आइटम नंबर का सिनेमा के कथानक से कोई सम्बन्ध नहीं होता इससे तो बस अश्लीलता परोसकर सिनेमा की विक्रय क्षमता को बढ़ाना होता है। इस तरह के सिनेमा को U/A प्रमाणपत्र तो दे दिया जाता है लेकिन महिलाओं के अस्मिता की खुलेआम प्रदर्शनी किसी को भी नजर नहीं आती? आइटम गीत या आइटम नंबर को लेकर भी कुछ सख्त नियम होने चाहिए जैसे जिस भी फिल्म में अगर यौन उत्तेजक भावनाओं से ओत प्रोत आइटम गीत हो तो उसे A फिल्म प्रमाणित किया जाना चाहिए ताकि परिपक्वता पर नियंत्रण रखा जा सके। क्योंकी विज्ञान कहता है की युवा स्त्री के मुख व शरीर से एक प्रकार के फेरोमोंस का स्राव होता है जो पुरुष हार्मोन Androgen के लिए उद्दीपक का काम करता है।ये फेरोमोंस बिना स्पर्श के ही Olfactory(घ्राण ) और Optic (दृष्टि ) तंत्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क को सन्देश पहुचाते हैं।यह सन्देश पिटयुटरी ग्रंथि तक पहुँच कर उसे पुरुष सेक्स हार्मोन Androgen को उत्तेजित करने का आदेश देता है, जिसके फलस्वरूप पुरुष उसके प्रभाव को शांत करने के लिए स्त्री पर अनाधिकार व असामाजिक कृत्य करने पर मजबूर हो जाता है। यह एक स्वाभाविक वैज्ञानिक प्रक्रिया है तो फिर हमारी व्यवस्था,हमारी फिल्म प्रमाणन बोर्ड या हमारा समाज इस कटु सत्य को नजरंदाज क्यों करती है? अब फिल्म उद्योग को भी जिम्मेदार होना पड़ेगा? मनुष्य धरती पर पाया जाने वाला एकमात्र ऐसा जीव है जो प्रकृति द्वारा बनायी हुई रासायनिक, भौतिक, व जैविक नियमों से बंधी हुई स्वचालित मशीन (अर्थात शरीर) को अपनी मनमर्जी के मुताबिक खुद के निर्देशों पर चला सकता है.लेकिन मनुष्य अगर पशुओ जैसा व्यवहार करने लगे तो पशुओं और मनुष्यों की जीवन शैली बिलकुल एक सी हो जायेगी ..जिसमें रिश्ते-नाते,तहज़ीब,संयम और वर्जनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा? हमारे समाज के धर्म गुरु/पंडित चाहे जितना भी कहे की हमारे देश में स्त्रियों का बहुत मान-सम्मान होता है,उनकी पूजा की जाती है इत्यादि लेकिन हकीकत क्या है? हम सब जानते है.. स्त्रियों के प्राकृतिक स्त्र्योचित गुण और उनके मनोविज्ञान के कारण उन्हें हमेशा ही पुरूषों से हीन माना जाता रहा है। हमारे समाज में पुरुष हमेशा ही सीना तान कर चलता है वही स्त्री हमेशा झुककर? किसी ने सत्य ही कहा है की सिर्फ भौतिक समृद्धि से समाज में बराबरी संभव नहीं है, क्योंकि बराबरी के दो हिस्से हैं। एक है इक्वॅलिटी (बराबरी), चाहे वह सामाजिक हिस्सेदारी की हो या कानून की। दूसरी है रिकॉग्निशन (पहचान), जिसे हम सोशल इक्वॅलिटी(सामाजिक बराबरी) या मॉरल इक्वॅलिटी(नैतिक बराबरी) कह सकते हैं। पुरुषों को हमारे समाज ने भर्तार (भर्तार जिसका अर्थ वरण, भरण और तारण है/ हर कन्या के लिए विवाह से पहले उसका पिता और विवाहोपरांत पति भर्तार है) शब्द से नवाजा है और अगर इस प्रतिष्ठा,सम्मान को बचा कर रखना है तो पुरुषों को आत्मनियंत्रण और विज्ञान एवं मनोविज्ञान के महत्त्व को समझकर खुद और समाज के प्रति जिम्मेदार बनना होगा वर्ना अति का अंत सदैव पीड़ादायक होता है?

Thursday, December 13, 2012

दाढ़ी या लालसा


हाल ही में एक प्रमुख बाजार अनुसंधान एजेंसी द्वारा देश भर में 1000 से अधिक भारतीय महिलाओं पर एक दंपति द्वारा साझा अंतरंगता के स्तर पर शाम की छोटी छोटी दाढ़ी के प्रभाव को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया और इस अध्ययन से पता चला की महिलाएं ऐसे पुरुष को पसंद करते है जो सुबह के साथ शाम में भी शेव करते है। इस अध्यन के परिणाम को आजकल पुरे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन के रूप में चलाया जा रहा है। कुछ समय पहले ऐसा ही एक सर्वेक्षण अमेरिका में भी हुआ था लेकिन वो पुरुषो के ऊपर किया गया था। इस अध्ययन के तहत ये बात सामने आई कि पुरुषो के मूछों का उनकी सैलरी पर बहुत असर पड़ता है। ये अध्ययन अमेरिकन मुस्टैच इंस्टीट्यूट की ओर से आयोजित कराई गई थी। अध्ययन में पता चला था कि मूंछ वाले अमेरिकन 4.3 क्लीन शेव और बिना दाढ़ी वालों से 8.2 फीसदी ज्यादा पैसे कमाते हैं। इस अध्यन से एक और मजेदार सामने आई थी कि जो लोग मूंछ रखते हैं वो बेहद खर्चीले भी होते हैं मतलब की सफाचट पुरुष कंजूस!!! गौरतलब है कि अगर ये अध्यन सही साबित हुई तो हमारे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन की वकालत कर रहे महिलाओं को थोडा तो आघात पहुँचने वाला है।

इस पुरुष प्रधान ब्रह्माण्ड में दाढ़ी, मूंछ पुरुषों की आन और शान का प्रतीक माना जाता रहा है पर आज के आधुनिक युग में इस आन और शान का प्रतीक 
मानो भारत से गायब हो रहे बाघों की तरह आज के चेहरों से विलुप्त होने वाली प्रजाति में शामिल हो चुकी है और अगर समय रहते इसे बचाया न गया तो आपने प्रसिद्ध फिल्म शराबी का वो डाइलोग….. मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वर्ना न हों जैसी दाढ़ी,मूछों की महिमा का गुणगान कौन करेगा?
इतिहास पर अगर नज़र डालें तो शायद सब से पहली मूछ आदि देव शंकर जी को उपलब्ध थी। दाढ़ी,मूछें तो वास्तव में कुछ गिने चुने देवों को ही प्राप्त थी। युग धीरे धीरे बदलता रहा पर दाढ़ी,मूछों की महिमा सदा ही अपना महत्व रखती रही लेकिन आज के आधुनिक युग में इस आन,बान और शान के प्रतिक लालसा के आगे नतमस्तक होने को मजबुर है। जागो मर्दों जागो..धरोहर दांव पे लगी है। मर्दों के आन,बान और शान के प्रतिक के महिमा पर एक कवि की कविता याद आ रही जो आपको सुनाता हूँ ताकि इस धरोहर को संरक्षित करने की उर्जा मिले और इसे विलुप्त होने से बचाया जा सके....

आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,
बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।
जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,
मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,
कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,
सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण।


क्लीन शेव के इस ज़माने में दाढ़ी,मूछों का प्रचलन निरंतर घट रहा है लेकिन उपयोगिता और महत्व अपनी जगह बरकरार है ..जैसे.. मेरे अनुमान से मूछें कैटेलिटिक कनवर्टर वाला एयर फ़िल्टर है, इस की मदद से अँधेरे में टटोल कर ही पता कर सकते हैं कि मर्द है कि औरत,मूछें मर्दानगी का थर्मामीटर हैं(???), दाढ़ी,मूछें साहस का संचार करती हैं। आज दाढ़ी,मूंछों को जितनी ज़िल्लत देखनी पड़ी है उतनी किसी युग में नहीं, नए युग के फैशन में जब कन्याएं जींस शर्ट पहनने लगी हैं और क्लीन शेव और लंबे बालों का प्रचलन बढ़ा है …तो देख कर सहज ही ये पहचाना भी मुश्किल हो गया है कि ये आखिर कौन सी योनि के मनुष्य है.:-) दाढ़ी,मूँछों का एक लम्बा इतिहास रहा है। पुराने ज़माने में घनी कड़कदार मूँछे पाली जाती थी जिनको मोम आदि से संवारा और दमदार बनाया जाता था। इतिहासकार बताते हैं कि मूँछों पर निंबू खडा करने की प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं। अब न वैसी मूँछें दिखाई देती हैं न वैसे जवाँ मर्द! इतिहासकार यह भी बताते हैं कि मुस्लिम काल तक भारत में दाढ़ी-मूँछ का चलन अधिक रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ ही हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ पुरुष के चेहरे से दाढ़ी-मूँछ भी गायब होने लगे। तभी तो हैदराबाद के अंग्रेज़ रेसिडेंट किर्कपैट्रिक ने मुस्लिम नवाबों की तरह जब मूँछे रखना शुरू किया तो बात इंग्लैंड तक पहुँच गई कि कहीं वो मुसलमान तो नहीं हो गए हैं और नतीजा यह हुआ कि उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा।फिल्म जगत में भी मुग़लेआज़म की अकबरी मूंछों से लेकर करण दीवान व राजकपूर कट मूँछें प्रसिद्ध हुईं।अब तो दाढ़ी-मूँछ देश या प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर भी जानी जाती हैं; जैसे, फ़्रेच, जर्मन या फिर लिंकन,लेनिन जैसी दाढ़ी।

मुगल शासनकाल के दौरान हेरात से रंगून तक दक्षिण एशिया में अदालत और लोगों के कपड़े पर मुगल पहनावे का प्रभाव था और चमकदार लाल तुर्की टोपी 1950 के दशक तक हॉलीवुड फिल्मों में मुसलिम पहचान का निर्धारक दृश्य हुआ करता था. जब तक कि तुर्की में सुधारवादी मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे मध्यकालीन अतीत का प्रतीक मानते हुए बंद नहीं कर दिया. ब्रिटिश ने हमें पैंट दिया, जिसके लिए मैं खासकर उनका शुक्रगुजार हूं. यह मेरे पूर्वजों की धोती और लुंगी के मुकाबले व्यावसायिक तौर पर काफी आरामदायक है, हालांकि अब मैं एक पीड़ित की पीड़ा वयां कर रहा हूँ। ब्रिटिश ने अपने साम्राज्य और बड़े भू-भाग को ड्रेस कोड दिया. अमरीका ने भोजन दिया.यह फास्ट था,लेकिन फूड था.फास्ट लाइफ की संजीवनी.. यह लोकतंत्र और धनतंत्र के बीच बढती मित्रता का परिणाम है. ऐसा ही ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी दौर के समय था. ब्रिटिश खाने को विरोधाभासी कह भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन यह जठराग्नि के लिए डिजाइन किया गया था, ना कि स्वाद के लिए. दूसरी ओर अमरीकी कपड़े के महत्व को नहीं समझते. जींस को अमरीका का योगदान करार देना इस बात का विज्ञापन करना है लेकिंग मैं इसका प्रसार करूँगा. अमरीका ने ही अपने दौर में मोटापे के लिए दुनिया पर कब्जा करने के लिए बर्गर बनाया.आप यह बर्गर हांगकांग में पार्टी की बैठक या मक्का में हज के बाद या इलाहाबाद में गंगा स्नान के बाद खा सकते हैं. आप जहां भी जायें बर्गर आपका पीछा करता है...बिलकुल फेविकोल टाइप चिपकु ...

स्टाइल की कीमत है, इसे खरीदा जा सकता है परन्तु संस्कृति अनमोल है. संस्कृति मौजूदा आधुनिक जरूरतों, मजबूरियों या आकर्षणों से अधिक गहरी है और इसका उदहारण कोई और नहीं वल्कि हमारा भारत है.आज भी हम ज्यादातर भारतीय अपनी अंगुलियों से ही खाते हैं न की छुरी-कांटे से। दसवें गुरु गोविंद सिंह ने 'खालसा' (शुद्ध) परंपरा की स्थापना की। खालसाओं के पांच अनिवार्य लक्षण निर्धारित किये गये, जिन्हें 'पाँच कक्के' या 'पाँच ककार' कहते हैं, क्योंकि ये पाँचों लक्षण 'क' से शुरू होते हैं, जैसे- केश, कंधा, कड़ा, कच्छा और कृपाण। ये पाँचों लक्षण एक सिक्ख को विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।

क्लीन शेव रखना है या दाढ़ी मूंछ यह अपने अपने सोच पर निर्भर करता है पर लालसा के आगोश में निर्णय लेना खतरों भरा हो सकता है। सावधान..सावधान..सावधान..जागो मर्दों जागो..