Negative Attitude

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Saturday, November 17, 2012

अतुल्य भारत की अतुल्य प्राथमिक शिक्षा








'न्यू हैल्थवे , केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) स्कूल की वही पाठ्यपुस्तक है जिसको लेकर आजकल गंभीर विवाद चल रहा है।यह किताब कक्षा छह की पाठयक्रम में शामिल है। इस पाठ्यपुस्तक 'न्यू हैल्थवे : हैल्थ,हाईजीन,फिजियोलॉजी,सेफ्टी,सेक्स एजुकेशन,गेम्स और एक्सरसाइज है' के अनुसार  मांसाहारी लोग आसानी से धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं,वादे भूल जाते हैं,बेईमान होते हैं,चोरी करते हैं,झगड़ते हैं,हिंसक हो जाते हैं और यौन अपराध करते हैं  अतुल्य भारत में आजकल बच्चो को यही शिक्षित किया जा रहा है?

आचार्य चाणक्य ने कहा था दीपक तमको खात है, तो कज्जल उपजाय। अन्न जैसे ही खाय जो, तैसे हि सन्तति पाय। चाणक्य ने इस दोहे में बताया है कि जिस प्रकार दीपक तम यानी अंधेरे को खाता है और काजल पैदा करता है, ठीक इसी प्रकार इंसान भी जैसा अन्न खाता है उसका स्वभाव और संस्कार भी वैसे ही हो जाते हैं। यह उस वक़्त कहा गया था जब लोग अज्ञानता के युग में जी रहे थे और तब लोगो को संतुलित और असंतुलित आहार का बोध नहीं के बराबर था। इतिहास गवाह है की आचार्य चाणक्य के समय लोगो में अराजकता ज्यादा थी,सुखी एक और दुखी लाखो का अनुपात था,शिक्षित एक और अशिक्षित लाखो का अनुपात था। सफलता के एक ही उपाय थे युद्ध और जिसके कारण आये दिन युद्ध हुआ करता था। उग्रवादी सोच और विशाल आर्थिक और सामाजिक विषमता के बारे में लोगों को शिक्षित करने के माध्यम उपलब्ध नहीं थे और इस स्थिति में उस समय के वैज्ञानिक दर्शन के मुताबिक,लोगो की उग्रवादी सोच को नियंत्रित करने के लिए आचार्य चाणक्य जैसे महान व्यक्ति के पास इस तरह के परामर्श देने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रहा होगा।

मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज हमारी आवश्यकताएं हमारे पूर्वजो से भिन्न है इसी तरह हमारे पूर्वजों की आवश्यकताएं भी उनके वंशजों से अवश्य भिन्न रही होंगी। मनुष्य की आदतों और आवश्यकताओं का सामाजिक स्वरुप भी होता है और व्यक्तिगत स्वरुप भी। परन्तु हम क्या कर रहे है?- इस तरह के पाठ्यपुस्तक के माध्यम से जबरन इतिहास को वर्त्तमान के रूप में थोप कर ज्ञान का दायरा घटा रहे? हमलोग अपनी बचपन की प्रसिद्ध सीख 'पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब' अब नयी पीढ़ी को नहीं देना चाहते - क्यों? क्योंकि हम अब जान गए हैं की खेलने कूदने या व्यायाम से न केवल बच्चों की बल्कि बड़ों की बुध्दि और स्मरणशक्ति भी बढ़ती है। और इसके साथ साथ अब खेल-कूद में भविष्य भी है।

शिक्षा का प्रमुख कार्य मनुष्य को उसके वास्तविक रूप में मनुष्य बनाना है। एवं प्राथमिक शिक्षा का व्यक्ति के जीवन में वही स्थान है जो मां का है। यह मनुष्य के जीवन की वह अवस्था है जो संपूर्ण जीवन विकास क्रम को गति प्रदान करती है। इस उम्र की शिक्षा जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा होती है। प्राथमिक शिक्षा बच्चों के शारीरिक, मांसपेशीय,संज्ञानात्मक,बौध्दिक,सृजनात्मक,अभिव्यक्ति और सौंदर्यबोध का विकास के लिए खाद के जैसा कार्य करती है। बच्चे के विकास पर सामाजिक प्रभाव के सक्रिय वाहकों की भूमिका व्यस्क अदा करते है। वे स्वीकृत सामाजिक संरुपों के दायरे में उसके व्यवहार तथा सक्रियता का संगठन करते है।बच्चो की व्यवहार का मनुष्यों के सामाजिक अनुभव के आत्मसात्करण की ओर सक्रिय अभिमुखन ही शिक्षण कहलाता है और इनसे उत्पन्न प्रभावों से ही चरित्र निर्माण होता है। शिक्षा की प्रक्रिया में बालक एक पौधे के सामान होता है। शिक्षक और पाठ्यपुस्तक इस इस पौधे का समुचित विकास करने वाला माली है। पौधे के विकास के लिए खाद,हवा,मिट्टी और रौशनी की आवश्यकता होती है और माली का काम पौधे के विकास के लिए इन उपर्युक्त आवश्यक तत्वों का उपलब्ध कराना है। जब माली ही खोखला होगा को वो पौधे का क्या समुचित विकास कर पायेगा? 'न्यू हैल्थवे - पाठ्यपुस्तक के माध्यम से जो ज्ञान,आदते या कौशल सिखाये जा रहे है क्या वो प्राथमिक शिक्षा के नाम पर कलंक नहीं है? ये बड़ी आश्चर्य की बात है यह पाठ्यपुस्तक काफी समय से इस्तेमाल की जा रही है लेकिन किसी ने पाठ्यक्रम के शुरुआत में ही इस पर प्रश्न क्यों नहीं उठाया? ये इस बात का सूचक है की पाठ्यपुस्तक की गुणवत्ता के साथ साथ शिक्षको की भी गुणवत्ता आजकल कितनी गिर चुकी है? शिक्षा मानव विकास की प्रक्रिया है और यह विकास की प्रक्रिया दो कारको पर निर्भर होती है - सीखना और परिपक्वता.अगर सिखने की सामग्री और प्रक्रिया इतनी तुच्छ एवं निरर्थक होगी तो परिपक्वता कितनी शक्तिशाली होगी इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। क्या इस तरह के शिक्षाप्रणाली से मानव-विकास के लक्ष्य की प्राप्ति संभव है?

सीबीएसई कह रही है कि वह आठवीं के बाद की कक्षाओं के लिए पुस्तकों का निर्घारण करती हैं और इसके पहले की कक्षाओं की जिम्मेदारी उनकी नहीं है। वहीँ देश की शीर्ष शैक्षिक निकाय एनसीईआरटी अभी तक चुप है। एनसीईआरटी की कई गतिविधियों में से एक है कक्षा एक से लेकर कक्षा वारहवी तक की अलग अलग विषयों की पाठ्यपुस्तक प्रकाशित करनाअगर ये सरकारी संस्थाए निजी स्कूलों का संबंधन करती है तो पाठ्यपुस्तक की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से ये कैसे पल्ला झाड़ सकते है? क्या बेलगाम होती शिक्षा प्रणाली पर नकेल कसना इनकी जिम्मेदारी नहीं है?

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