Negative Attitude

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Tuesday, October 23, 2012

मां दुर्गा पूजा एवं दशहरा

हमारे देश में त्यौहारों का विशेष महत्व है.इनका जन-जीवन,रहन-सहन,संस्कृति एवं सामाजिक रीति रिवाज़ के साथ गहरा सम्बन्ध भी है.आज नौ दिनों से चल रहे शारदीय नवरात्र का नौवां दिन यानि महानवमी है.मां दुर्गा के नौ रूपों में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री की पूजा आराधना,प्रतिप्रदा से नवमी तक की जाती है. नौ शक्ति रूपों के पूजन के कारण ही इन दिनों को नवरात्र काल कहा गया है.नवरात्रि... नव का अर्थ नौ होता है तो रात्रि अर्थात रातें. ये नौ दिन शक्ति रूपा माता के नौ रूपों को समर्पित होते हैं एवं बुराई पर अच्छाई,अँधेरे पर उजाले तथा झूठ पर सत्य की विजय के प्रतीक माने जाते हैं.दशमी के दिन त्योहार की समाप्ति होती है.इस दिन को विजयादशमी कहते हैं और कल यानी इस मास के शुक्ल पक्ष दशमी तिथि (२४ अक्तूबर २०१२) को विजय पर्व दशहरा,विजयादशमी देश भर में धूमधाम के साथ मनाया जाएगा जिसमें बुराई,असत्य एवं अराजकता के प्रतीक माने जाने वाले रावण एवं उसके भाइयों के पुतले का दहन किया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम ने राक्षस रावण का वध कर माता सीता को उसकी कैद से छुड़ाया था और सारा समाज भयमुक्त हुआ था.रावण को मारने से पूर्व भगवान श्री राम ने मां दुर्गा की आराधना की थी.मां दुर्गा ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें विजय का वरदान दिया था.

प्राचीन काल और आज के समय में कितना अंतर हो गया है.प्राचीन काल में बुरे व्यक्तियों की आसानी से पहचान की जा सकती थी.राक्षस,दैत्यों को ही ले लीजिये.उनके शरीर की संरचना,आकार,रंग,वेशभूषा से समझा जा सकता था की इनकी उत्पत्ति बुरे,असत्य कार्य एवं अराजकता के लिए हुई है और ये जो भी करेंगे बुरा ही करेंगे.परन्तु आज के समय में हम मनुष्यों में छुपे राक्षस को पहचानना कितना कठिन कार्य हो गया है.मानव उत्पत्ति की मुलभुत संरचना से साथ साथ विज्ञानं की प्रगति ने मनुष्य एवं राक्षस को एक समान शक्ल और शारीरिक संरचना के साथ एक कर दिया है.आज मनुष्य में छुपे राक्षस को समझने और पहचानने के लिए क्या क्या उपाय करने पड़ रहे है...नार्को टेस्ट,ब्रेन मैपिंग,पॉलीग्राफ(लाई -डिटेक्टर) इत्यादि इत्यादि,फिर भी हमारा समाज आज भयमुक्त नहीं है.संतान प्राप्ति के लिए शक्ति की अराधना तो करते है लेकिन पसंद की संतान नहीं हुई तो कोंख में ही उसकी हत्या कर देते है...यश प्राप्ति के लिए शक्ति की अराधना करते है लेकिन अपने बुजुर्ग  माता पिता को अकेले जीने को मजबूर कर देते है या फिर उनका भी शोषण करते है...रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो लेकिन उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं.रामायण में राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता". लेकिन आज शक्ति की अराधना करने वाले मनुष्य अपने परिवार,पास पड़ोस की ही आबरू लूटने को आतुर है.सरकारी आंकड़ो की माने तो महिलाओं से जुड़े समस्त आपराध में DOMESTIC VIOLENCE का लगभग ४०-५०% योगदान है? रावण अधर्मी इसलिए बना कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा...लेकिन आज का मनुष्य सर्वश्रेष्ठ अधर्मी बनने के लिए धर्म कर रहा है...धर्म की आड़ में मनुष्य मनुष्य की ही हत्याएं कर रहा है...अच्छाई और बुराई में फर्क महसूस करने का पर्व है दशहरा,बुराई पे अच्छाई की जीत का जश्न है विजयादशमी...शक्ति की अराधना है मां दुर्गा पूजा या नवरात्र ...मां दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं.यह शक्ति परम ब्रह्म की प्रतिरूप है.मां दुर्गा, मनुष्य जाति में कर्म-शक्ति तथा विविध पुरुषार्थ साधना को बल देती है.ब्रह्म से द्वेष रखने वाले नास्तिकों और असुरों का संहार करने के लिए ही परमेश्वर की शक्ति भगवती दुर्गा के रूप में जन्म देती है....लेकिन आज के परिवेश में अच्छाई और बुराई,कर्म-शक्ति या विविध पुरुषार्थ का पैमाना सिर्फ चाणक्य नीति है ना की रामायण की सीख,भगवान् श्री राम एवं रावण के आदर्श,उद्देश्य या मां दुर्गा की अराधना...रावण एवं उसके भाइयों के पुतले का दहन उसके कुकृत्यों के लिए किया जाता है उनके शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादाओं के लिए नहीं...रामायण में रावण एक ऐसा पात्र है, जो भगवान् श्री राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है...शास्त्रों के अनुसार रावण में अवगुण की अपेक्षा गुण अधिक थे...अगर रावण ना होता तो रामायण भी अधुरा रहता और विजयादशमी का जश्न भी...आज मनुष्य को भगवान् श्री राम के आदर्श के साथ साथ रावण से भी सीख लेने की जरूरत है क्योंकि उसमे भी अच्छाई और बुराई महसूस करने की ससक्त समझ थी,अपने जिम्मेदारियों के प्रति अथाह समर्पण थी और ज्ञान का समुद्र यानी महाज्ञानी भी माना जाता था...तभी तो रामायण में "भगवान् श्री राम रावण को देखते ही मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता"..किसी भी कृति में नायक द्वारा प्रतिनायक के लिए ऐसी प्रतिक्रिया प्रतिनायक की महानता को दर्शाता है...अच्छाई और बुराई में फर्क महसूस करने का मतलब अपनी नैतिकताओं को तराशना है,अपने मनुष्यत्व को समझना है ना की रावण की बुराइयों का सिर्फ विश्लेषण करना और तभी मां दुर्गा पूजा,विजयादशमी या दशहरा के सन्देश सही मायने में समाज में प्रवाहित हो पायेंगे...
आप सभी को मां दुर्गा पूजा एवं विजयादशमी की हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं...

Saturday, October 13, 2012

सूचना का अधिकार या व्यक्तिगत आक्रमण का हथियार?

मित्रों कल सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) की सातवी वर्षगाँठ थी.इस विशालकाय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को रोकने और समाप्त करने की दिशा में एक अति महत्वाकांछी कानून जो अपने उद्धेश्यों को पूरा करने की कसौटी पर कितना खरा उतर पाया है इसका आँकलन करना इस कानून से भी अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है.परन्तु अगर इस कानून की प्रतिष्ठा और प्रभावोत्पादकता को और ओजस्वी बनाना है तो सूचना का अधिकार अधिनियम कानून अपने कसौटी पर कितना खरा उतर पाया है इसका आँकलन करना अब अनिवार्य हो गया है? इस चर्चा को आगे बढाने से पहले एक बार फिर इस कानून के बारें में अपनी याद्दास्त को ताजादम कर लेते है...

सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत सरकार द्वारा पारित एक कानून है जो 12 अक्तूबर, 2005 को लागू हुआ था .इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकार्डों और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है.संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है. अनुच्छेद 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति का अधिकार है. 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा है कि लोग कह और अभिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि वो न जानें.इसी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारत एक लोकतंत्र है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी ही देश का असली मालिक होता है. इसलिए लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारें जो उनकी सेवा के लिए हैं,क्या कर रहीं हैं?प्रत्येक नागरिक कर/ टैक्स देता है,यहाँ तक कि एक गली में भीख मांगने वाला भिखारी भी टैक्स देता है जब वो बाज़ार से साबुन खरीदता है(बिक्री कर, उत्पाद शुल्क आदि के रूप में).नागरिकों के पास इस प्रकार यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है.

सूचना का अधिकार अधिनियम हर नागरिक को अधिकार देता है कि वह :-

* सरकार से कोई भी सवाल पूछ सके या कोई भी सूचना ले सके.
* किसी भी सरकारी दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति ले सके.
* किसी भी सरकारी दस्तावेज की जांच कर सके.
* किसी भी सरकारी काम की जांच कर सके.
* किसी भी सरकारी काम में इस्तेमाल सामिग्री का प्रमाणित नमूना ले सके.


जनता इस कानून को किस तरीके से उपयोग करे एवं इस उपयोग से उनको उनके जीवन में कैसे फायदा हो ये गौर करने वाली बात है.अगर सूचना का अधिकार का यथोचित और रचनात्मक इस्तेमाल नहीं किया गया तो फिर यह एक निष्फल कानून बन जाएगा.सूचना का अधिकार और निजता के अधिकार के बीच अनिवार्य संतुलन बनाए रखना ही सूचना का अधिकार का समुचित उपयोग माना जाना चाहिए,क्योंकि निजता का अधिकार भी मानव जीवन की एक मौलिक अधिकार है.इस कानून का इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना करने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.अब तक यह कानून भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में बिलकुल नाकाम रही है? मान लीजिये सूचना के अधिकार के तहत हमें जो सुचना चाहिए थी, प्राप्त हो गयी पर इस सुचना को न्यायतंत्र के साथ कैसे जोड़ा जाये जिससे व्यवस्था में सुधार हो सके और अपराधियों को दंड मिल सके, के लिए कोई सख्त मसविदा नहीं? सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त सूचना की सुरक्षा और गोपनीयता निर्धारित होनी चाहिए ताकि प्राप्त सूचना को अभिलाषित न्याय मिल सके जो की सात वर्षीय अनुभवी यह कानून प्राप्त सूचना की पारदर्शिता के साथ गोपनीयता बनाये रखने में विफल रहा है? अब तक यह कानून एक स्टिंग ऑपरेशन की तरह इस्तेमाल होता आया है,अब तक यह कानून मीडिया के जरिये प्रबंध किया जा रहा है,जो इस कानून की जवाबदेही लिए एक गंभीर खतरा है. आजकल इस कानून को व्यवस्था में सुधार के वजाए व्यक्तिगत हमले के लिए उपयोग किये जा रहे है और वह भी सिर्फ मीडिया के जरिये?मीडिया के लिए सूचना के अधिकार के जरिये प्राप्त सुचना उनके लिए मीडिया सामग्री मात्र है जिसका उपयोग दर्शकों की संख्या में वृद्धि के अलावा और कुछ नहीं माना जाना चाहिए.क्या सिर्फ मीडिया के जरिये इस अधिकार का उपयोग उचित है? यह कानून देश की जनता को सशक्त तो बनाता है परन्तु इसका हो रहे उपयोग का तरीका क्या इस सूचना का अधिकार अधिनियम को कमजोर और प्रभावहीन नहीं बना रहा है?जिस कानून को भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या रोकने और समाप्त करने का उत्तरदायित्व है उसका इतना तुच्छ एवं असंवेदनशील उपयोग निश्चित तौर पर इस कानून को अपने उद्धेश्यों को पूरा करने में बाधा पैदा करेगा?सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए जिस तरह मसविदा तैयार किया गया है ठीक उसी तरह सूचना प्राप्त होने के बाद इसके उपयोग और उपयोग के तरीके का भी सख्त मसविदा तैयार होना चाहिए ताकि इसके उपयोग और दुरूपयोग दोनों की संभावनाओं को समझकर न्यायतंत्र के साथ जोड़ा जा सके वर्ना यह कानून सिर्फ मीडिया प्रचार-साधन रह जाएगा.हिन्दुस्तान जैसे विशालकाय लोकतंत्र में सिर्फ कानून बनाने से नहीं चलेगा,कानून प्रभावशाली और इसके उद्देश्य कैसे पूरा हो, इसको सुनिश्चित करने की प्रणाली भी विकसित करने की आवश्यकता है...हमारे संबिधान में कानून तो हर अपराध के लिए है परन्तु अपराध कमने के वजाय,निरंतर बढ़ते ही जा रहे है? मतलब स्पष्ट है की सिर्फ नाम का कानून नहीं, एक प्रभावशाली एवं जिम्मेदार कानून की आवश्यकता है और तभी वांक्षित परिणाम प्राप्त हो सकेंगे....शुभ रात्रि...

Saturday, October 6, 2012

कामुक सब्सिडी

आजकल सब्सिडी के नाम पर पुरे देश में हंगामा मचा हुआ है.देश का प्रत्येक राजनीतिज्ञ सब्सिडी की सुन्दरता को अपने अपने तरीके से वयां करने में मशरूफ है.स्वतंत्रता के बाद जो भी सरकार सत्ता में आयी,सब्सिडी देती आ रही है.लेकिन सोचने बाली बात ये है की क्या सब्सिडी सच में गरीब जनता का बोझ कम कर रही है? आज तक हमारी सरकार गरीबो की परिभाषा या यूँ कहे हमारे देश की गरीबी तय नहीं कर पायी है तो फिर ये विशालकाय सब्सिडी किस मापदंड पर निर्धारित की जा जाती है.पेट्रोल,डीजल और अन्य संसाधन का दाम बढ़ाये जाने पर हर बार सरकार सब्सिडी के वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान का रोना रोती है और मूल्य वृद्धि को जायज ठहराती है.जहा तक सरकार का कहना है,पेट्रोल डीजल एवं अन्य प्रकृतिक संसाधन का लगभग 70-75% आयात करना पडता है और सरकार इन पर सब्सिडी देती है [सही है] ताकि गरीब जनता के उपर ज्यादा बोझ ना पड़े.परंतु जो आर्थिक सहायता या अनुदान सरकार गरीब जनता के नाम पर दे रही है जिसे सरकार सब्सिडी कहती है क्या उसका लाभ सचमुच मे गरीबो को ही मिल रहा है ? क्या संपन्न-अमीर लोग गरीब जनता के नाम पर सब्सिडी का लाभ नही ले रहे ? 

आज हमारे देश मे सवा अरब की जनता मे लगभग 35 से 45 करोड़ लोग संपन्न हैं,क्या इन्हे सब्सिडी जायज है ? सरकार अगर गरीबी नही तय कर सकती तो अमीरी तो तय कर सकती है? सरकारी आकड़ो के अनुसार सब्सिडी के ऊपर वर्ष 2006-07 में लगभग 57,125 करोड़ रुपये के मुकाबले वर्ष 2011 -12 यही लगभग 2.16 लाख करोड़ रुपये खर्च किये गए.अब जरा सोचिये सब्सिडी के वृद्धि के साथ महंगाई थोड़ी बहुत नियंत्रित रहनी चाहिए थी परन्तु महंगाई दिन ब दिन बढती ही जा रही है.मतलब यह बात तो स्पष्ट है की सब्सिडी पे निर्भर होकर महंगाई पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता? बाजार जो कीमत तय करती है उसपर सब्सिडी कोई सार्थक प्रभाव नहीं ड़ाल सकती है.तो फिर प्रश्न यह उठता है की इसका हल क्या है? हमारी राय में इसका हल है सब्सिडी की जरूरतों का वर्गीकरण करना जो कोई भी सरकार आज तक स्वीकार नहीं कर पायी है क्योंकी किसी ने सच ही कहा था,किसी झूठ को जोर से और बार-बार बोलो तो वह सत्य लगने लगता है.सब्सिडी भी भारतीय राजनीती में जनता के लिए वैसा ही सत्य लगने वाला झूठ है या यूँ कहे की सब्सिडी भारतीय राजनीती की रखैल है जो जब चाहे अपने लाभ के इस्तेमाल कर सकता है? भारतीय लोकतंत्र में राजनीती अगर व्यवसाय हो गया है तो सब्सिडी भारतीय राजनीती का प्रोडक्ट है और देश की हर राजनितिक पार्टियाँ सब्सिडी को अपने लाभ के लिए जनता के समक्ष अच्छी तरह से इसका विपणन करती आ रही है.चुनावी घोषणा पत्र क्या है,सब्सिडी के बदौलत ही तो जनता को रिझाये जाते है? कोई लैपटॉप देने का वायदा,कोई अनाधिकृत जमीन को अधिकृत करने का वायदा तो कोई अल्पसंख्यको के विकास के लिए अतिरिक्त पॅकेज का वायदा इत्यादि इत्यादि...देश की हर पार्टी अपने अपने प्रतियोगियों की तुलना में रचनात्मक चुनावी घोषणा पत्र के जरिये जनता को लुभाती है..कैसे?...अपनी वही रखैल(सब्सिडी) के बदौलत....कोई भी पार्टी आज तक राजकीय कोष का न्यायसंगत इस्तेमाल नहीं कर पायी है और न ही करने का इरादा रखती है...इस देश में राजनीती से जुडा हर सख्श  गरीब आदमी के नाम पर सब्सिडी का विपणन करने में लगा है...अगर सब्सिडी इतनी कारगर होती तो गरीबो की तादाद कम होनी चाहिए थी लेकिन संपन्न लोगो के मुकाबले गरीबों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती चली जा रही है? आजादी के ६५ वर्ष बाद भी हर राजनितिक पार्टी जन वितरण प्रणाली को दुरुश्त करने में नाकाम रही है,इस जन वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों को बुनियादी आवश्यकताएँ मुहैया करने के नाम पर सब्सिडी से हजारो करोड़ रुपये की हर साल लूट होती है लेकिन गरीबों को क्या मिलता है...सिर्फ और सिर्फ ठेंगा??? 

हमारी राय में सब्सिडी की परिकल्पना को पुनः परिभाषित करने की जरूरत है? सब्सिडी को जरूरतों के मुताबिक वर्गीकरण करना होगा? नहीं तो सरकार सब्सिडी के नाम पर जो टैक्स की लूट मचा रखी है वो कभी बंद नहीं होगी...अगर तिरोभूत टैक्स देखे तो हमारे देश में इसका मकड़ जाल है जो सरकार सिर्फ इस तर्क पे वसूलती है की हमारे पास सब्सिडी का बोझ है?? निर्माता की लागत और उपभोक्ता कीमतों को पूरी तरह से बाजार को सौप दिया जाना चाहिए...बाजार को ही कीमत तय करने दे...हमारे देश में सब्सिडी जब तक रहेगी विकाशशील से विकसित कभी नहीं हो पायेंगे...सब्सिडी जब तक रहेगा राजनितिक पार्टियाँ कभी भी देशहित या जनहित के लिए अच्छा एवं रचनात्मक कार्य नहीं करेंगी...राजनीतिज्ञों को उनके भविष्य सुरक्षित करने के लिए सब्सिडी है ना...जनता के समक्ष राजनीतिज्ञ समय समय पर सब्सिडी को कामुक अंदाज में पेश एवं विपणन करती रहेंगी...गरीबों या देश की किसको पड़ी है?


सब्सिडी..हलकट जवानी


अरे! बस्ती में डेली बवाल करे..
हाए..नेताओं की नीयत हलाल करे..
आईटम बना के रख ले...
चखना बना के चख ले...
मीठा यह नमकीन पानी..
यह हलकट जवानी,यह हलकट जवानी...

Wednesday, October 3, 2012

गांधी-गीरी

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गाँधी जयंती मनाया गया.हाँ यह बात अलग है की आम आदमी के लिए इसके मायने क्या है? एक महान व्यक्ति को याद कर उनका सम्मान करना या भाग दौड़ भरी जिंदगी में तय एक छुट्टी का दिन.बदलते राजनितिक परिवेश और आधुनिकता के दौर से गुजरते समय में गाँधी जयंती एवं उनके आदर्शो का सम्मान अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.एक संकल्पवान सख्शियत जिनकी अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ आस्था ने आन्दोलन शब्द को एक अलग पहचान दिया,एक चेहरा दिया,हर खाश ओ आम को उनके अपनी आवाज़ की शक्ति का अहसास दिलाया और यह भरोसा जब समूहों में एकत्रित हुआ तो आज़ादी के तख़्त-ओ-ताज  के साथ साथ सरहदों का भी अम्बार लग गया.सच्चे आन्दोलन की ताक़त का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.लेकिन आज हमारे देश में आन्दोलन गांधीगिरी से शरू तो होता है पर बिना परिणाम के इसी गांधीगिरी के बीच तड़पकर दम भी तोड़ देता है.आन्दोलन अब एक व्यवसाय बन चुका है.भ्रस्टाचार,महंगाई,आरक्षण या भारतीय बाजारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा. आन्दोलन करे तो किस चीज के लिए? प्राथमिकता दे तो किसको? राजनीती और राजनितिक मजबुरी के बीच आम आदमी की जरूरत राजनीती के बाजार में बार बार नीलाम होती है.हर पार्टी आम आदमी की जरूरत को अपने अपने चश्मे की लियाकत के अनुसार देखती है.किसी की नजदीक की दृष्टि कमजोर है तो किसी की दूर की दृष्टि.राजनीती का दृष्टि दोष इस विशालकाय प्रजातंत्र को क्या दिशा प्रदान कर पाएगी? राजनीती में या तो उन्नत किस्म के चश्मे की जरूरत है या वैसे व्यक्तियों की जिनको दृष्टि दोष हो ही ना? एक आन्दोलन की कितनी सहजता से मृत्यु हो गयी इसका अंदाजा श्री अरविन्द केजरीवाल की नवगठित पार्टी सम्मलेन में आम आदमी छपी टोपी पहने कार्यकर्ताओं से अब अच्छी तरह लगाया जा सकता है.यही कार्यकर्ता चंद महीने पहले गांधीवादी विचारधारा को सर आँखों पे बिठाकर आन्दोलन की ताक़त प्रदर्शित किया करते थे.गांधीगीरी आज गाँधी के समक्ष ही दम तोडती नजर आ रही है.बाजार में बिचौलिए तो सभी स्वीकार करते है और इसको स्वीकार करने की ठोश वजह भी समझ आती है पर लोकतंत्र में आन्दोलन जो जनता की शक्ति मानी जाती है अगर यह भी बिचौलिए के मोहताज हो जाए तो यह मान लेनी चाहिए की अंग्रेजो से आजादी तो मिल गयी परन्तु राजनितिक आजादी मिलनी अभी बाकी है.अन्ना और केजरीवाल के रिश्तो में दरार एवं एक आन्दोलन की दर्दनाक मृत्यु इसी राजनितिक गुलामी के गवाह है? आईना भले ही खुबसुरत और बदसुरत में फर्क नहीं समझ पता परन्तु हर आईना पीछे से सदैब कोरा ही होता है.प्रतिनिधि लोकतंत्र  प्रणाली में चुनाव का ही महत्व है.जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता के लिए क़ानून बनाते हैं और संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्रियान्वित करने का कार्य करते हैं.2014 के चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है और यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि प्रतिनिधि लोकतंत्र में चुनाव रुपी आईना इस बार मुखौटो और असली चेहरों में फर्क समझ पाती है या नहीं?