Negative Attitude

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Saturday, August 11, 2012

मेरा नाम जोकर- TO -विक्की डोनर(आइ हार्डली नो यू....)

चलचित्र,चित्रपट,फिल्म्स आधुनिक उपन्यास की तरह यह मनुष्य की भौतिक क्रियाओं को उसके अंतर्मन से जोड़ता है.फिल्में सांस्कृतिक कलाकृतियां है जो कई विशिष्ट संस्कृतियों को प्रतिबिंबित कर बनाई जाती है.फिल्म मनोरंजन के एक लोकप्रिय साधन के साथ साथ लोगो को अलग अलग संस्कृतियों और विषयों के बारे में शिक्षित करने का एक शक्तिशाली स्रोत भी माना जाता है.उपरोक्त सारी बातों से भला कौन अवगत नहीं है.फिर प्रश्न यहाँ यह उठता है की मैं ये यहाँ उल्लेख क्यों कर रहा हूँ ? फिल्मो के बारे में लोगों की अपनी अलग अलग राय होती है और अक्सर लोग इसे जिंदगी की परिपक्वता से जोड़ कर देखते है.फिल्में सिर्फ परिपक्व आत्माओं को ही देखना चाहिए.ऐसा मैं इसलिए बोल रहा हूँ की मेरी कॉलेज लाइफ के दरम्यान फिल्मे लोग चोरी छुपे देखते थे और अगर कोई सिनेमा हॉल में देख लेता था तो उसकी बड़ी जग हँसाई होती थी. उम्र के साथ साथ ज्ञान की लम्बाई का निर्धारण महत्वपूर्ण है लेकिन इसकी समीक्षा बदलते समय के अनुसार जरूर होनी चाहिए. फ़िल्मी दुनिया हमारी इस सोच से बिलकुल जुदा है.पिछले पचास वर्षो में अलग अलग समयों पर निर्मित फिल्मों का विश्लेषण करे तो आपको स्वयं ज्ञात हो जाएगा की फिल्मों और दर्शको की सोच में कितना बड़ा फासला है. इतना बड़ा अंतर फिल्मो के बहुआयामी उद्देश्य हमारी समाज या हमारी सोच पर कोई प्रभाव नहीं डाल पायेगा.आज भी अति सुशिक्षित लोग यही लोकोक्ति का इस्तेमाल करते है की फिल्म और रियल लाइफ एक नहीं होते.किन्तु मेरा मानना है की फिल्म और रियल लाइफ अलग भी नहीं होता.अंतर सिर्फ यह है की फिल्मो में रियल लाइफ के साथ मनोरंजन समूहों में देखते है जबकि रियल लाइफ में मनोरंजन बिलकुल व्यक्तिगत होता है.४२ साल पुरानी फिल्म मेरा नाम जोकर,एक जोकर है,जो अपने ही दुखो के कीमत पर अपने दर्शकों को हंसाने के लिए कटिबद्ध है साथ साथ यह भी इशारा करता है की इंसानी जिंदगी की प्रकृति क्या है,सोच क्या है.शायद वैज्ञानिको को वाहन का आविष्कार करते समय वाहन में गिअर और एक्सेलेरेटर की आवश्यकता इंसान की इसी मनोवैज्ञानिक प्रतिच्छाया को संकल्पित कर महसूस किया होगा.इस फिल्म की स्पष्टवादी नाम और रोमांटिक गानों के अलावा रियल लाइफ से किस चीज में ये फिल्म अलग है? हमलोग अगर अपनी रूढ़िवादी (यहाँ रूढ़िवादी से मेरा मतलब है अपनी निजी सोच से अलग) नजरियों से अलग हो कर सोचे तो उत्तर स्वयं मिल जाएगा.अगर इससे आप अभी तक नहीं संतुष्ट हो पाए है तो आइये आज के दौर के सब से हाल की फिल्म विक्की डोनर की करते है.पर इस पर चर्चा करने से पहले इससे कुछ व्यापक हो कर सोचते है.विश्व मे भारत के अतिरिक्त किसी भी देश मे जातिवाद नही है.भारत मे जातिवाद का लगभग ६ठी शताब्दी से ही चली आ रही है.मोटे मोटे तौर पे यह हम सभी जानते है की 'जातिवाद' को कुछ मानवो ने समाज मे अपनी विचारधाराओ को थोपा है और इसके फलस्वरूप आज तक भारतीय समाज मे जातिगत विभाजन देखने को मिलता है.आइये अब फिल्म विक्की डोनर की चर्चा को आगे बढ़ाते है यह फिल्म शुक्राणु दान के विषय पर आधारित है.रक्तदान और शुक्राणु दान में फर्क क्या है? जब किसी इंसान की जिंदगी बचाने के लिए रक्त की जरूरत होती है उस वक़्त हम ये नहीं देखते की ये किसका है,किस जाति या धर्म के मनुष्य का है.ठीक उसी तरह शुक्राणु दान भी एक चिकित्सा संकट है पर हम मनुष्य इसको भावनात्मक और फिर सामाजिक विकृति मान लेते है.यह इसी वजह से है की हम अपने मनोविज्ञान से अभी तक जातिवाद नहीं निकाल पायें है.जातिवाद एक ऐसी मानसिक विकृति है जो मानव समाज को दिन प्रतिदिन संकुचित करती जा रही है.आरक्षण भी जातिवाद की ही देन है.क्या यह नही ज्ञात होता है की आरक्षण की बढती पैठ मानव जीवन की गलियारों को और संकरी करती जा रही है.अगर हम आज नहीं समझ पा रहे है तो कोई बात नहीं लेकिन इसके दुरागामी परिणाम अति दुखदायी प्रतीत होने वाली है.मानव जीवन से जुड़े इन्ही पहलुओ को फिल्म विक्की डोनर पुनः सोचने को प्रेरित करता है.चलचित्र,चित्रपट,फिल्म्स समाज की कई अज्ञात संस्कृतियों और अनछुए पहलुओ से समय - समय पर रू-ब-रू कराती रहती है एवं मनुष्य के रियल लाइफ से बिलकुल भी अलग नहीं होती.इसके मनोरंजन को संयोजित करने वजाए हमें इसमें प्रतिबिंबित किये संदेशो को संयोजित कर जिंदगी को परिवर्तित करने की कोशिश करनी चाहिए.इसी सकारात्मक सोच से फिल्मों और हम दर्शको की सोच का फासला कम हो सकता है.फिल्म बनाने वाले का मकसद सिर्फ पैसा कमाने का नहीं होता,इनका असली मकसद सुपरहिट होने का होता है.और सुपरहिट अर्थात आप पर अमिट प्रभाव छोड़ना.भारतीय कला उद्योग को इन्ही निरंतर प्रयासों के लिए मेरा सलाम!!! समय और परिवर्तन एक साथ चलती है तो हम मनुष्य क्यों नहीं?..हैव ए लवली वीकेंड..

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