Negative Attitude

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Saturday, August 25, 2012

राजनीतिक गठबंधन मतलब राजनीतिक हनीमून

जैसा की हम सभी जानते हैं की राजनीतिक गठबंधन विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा एक आम राजनीतिक एजेंडे पर चुनाव लड़ने या सामूहिक रूप से चुनाव के बाद सरकार के गठन के लिए पारस्परिक लाभ के प्रयोजनों के लिए एक समझौता है.जब कोई एक राजनीतिक दल को बहुमत प्राप्त नहीं होता तब सरकार गठन करने के लिए कई राजनीतिक दलों का एक साथ मिलना एक राजनीतिक गठबंधन कहा जाता है.समझने में
ये बात तो बहुत ही सहज मालूम पड़ती है पर आज के आधुनिक दौर की राजनितिक परिस्थितियां गठबंधन की कुछ अलग ही परिभाषा वयां करती है.हाल ही में एक गणमान्य राजनेता का एक पत्रिका The Week को दिए साक्षात्कार से गठबंधन शब्द का एक नया अवतार सामने आया है.यह साक्षात्कार (“Once my honeymoon with the BJP is over,I will be free to have alliance with any party that supports my goal of making --- a developed state”) मीडिया एवं राजनितिक दलों को ३-४ दिन तक गरमाए रखा और फिर ताप के चढ़ते पारो को देखते हुए The Week पत्रिका ने इस साक्षात्कार को अपने वेबसाइट से फ़ौरन हटा भी दिया. वही दूसरी तरफ इस साक्षात्कार को पूरी तरह से बेबुनियाद बताया गया.अगर यह सत्य है तो यहाँ न्यूज़ की विश्वश्नियता के लिए मीडिया के ऊपर भी प्रश्न उठनी चाहिए? मतलब चाहे जो भी निकालें साक्षात्कार या साक्षात्कार में वर्णित अंश भारतीय लोकतंत्र में गठबंधन की एक नयी दिशा एवं दशा का इशारा करती है.अब गठबंधन एक आम राजनीतिक एजेंडा नहीं बल्कि लाभ के प्रयोजनों का हनीमून है.गठबंधन के इस नए अवतार के लिए सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के आपस में कमजोर समन्वय ही जिम्मेवार मानी जायेगी.जो बात इनको आपस में बैठ करनी चाहिए वो मीडिया के जरिये कह रहे है.एक गठबंधन को क्या किसी मातहत की जरूरत होनी चाहिए अगर हाँ तो वो गठबंधन नहीं हो सकती? विभिन्न राजनीतिक दलों के लोकतांत्रिक शासन के प्रति समझ की बदलती शैली पांच वर्ष की आयु वाली संसदीय व्यवस्था को तो प्रभावहीन बनाएगा ही साथ साथ १२२ करोड़ हिन्दुस्तानियों के देखभाल का उत्तरदायित्व एक व्यंग्य मात्र रह जाएगा.माफ़ कीजियेगा,अगर एक राजनीतिक गठबंधन हनीमून है तो फिर राजनीतिज्ञों के लिए प्रजातंत्र क्या विलासिता की रसायन मानी जाए? विकास एक अति महत्वपूर्ण मुद्दा के साथ साथ जरूरत भी है पर क्या संबैधानिक भावनाओं के मनोवैज्ञानिक शोषण की कीमत पर? राजनीतिज्ञ उत्तर प्रदेश के विधान सभा के चुनाव परिणाम यानी कमल [राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग)] और हाथ {संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)} पे उठते विश्वास को भूलते नजर आ रहे है? आम आदमी द्वारा क्या राजग क्या संप्रग जैसे कुंठा भरे संबोधन आम आदमी के प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा को कम करता जा रहा है.तत्कालीन परिस्थितियाँ लोकतंत्र को खोखला और जर्जर करती जा रही है,प्रजातंत्र की आधारभूत मान्यता है कि जो भी पार्टी सत्ता में हो उसे देश के मतदाताओं का बहुमत प्राप्त हो पर अपने देश में सत्तासीन होने के लिए केवल सदन के अन्दर सदस्यों का बहुमत जुटा लेना काफी है,सदन के बाहर मतदाताओं के बहुमत कि आवश्यकता नहीं होती और यही कारण है की गठबंधन और हनीमून एक समान हो गया है या फिर कहे की राजनीतिक गठबंधन अब राजनीतिक हनीमून हो गया है? हम अपने संबिधान के लक्ष्यों से कितना भटक गए हैं? और अब यह आवश्यक हो गया है की सारे राजनितिक दल एवं गणमान्य राजनेतागण भारतीय संबिधान की प्रस्तावना को पुनः पढ़ अपने याद्दास्त को ताज़ादम करे.स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेताओं ने एक साथ बैठ कर गहन विचार विमर्श के बाद देश के लिए एक संविधान तैयार किया था,जो कई संशोधनों के साथ आज भी लागू है.आइये एक नजर भारतीय संबिधान की प्रस्तावना पर डालते हैं...

भारतीय संबिधान की प्रस्तावना में कहा गया है

  • “हम भारत के लोग, भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न सामाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को समाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वाश, धर्म और उपासना की स्वंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा सभी के लिए व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए, द्रढ संकल्प हो कर, एतद द्वारा इस संबिधान को अंगीकृत और आत्मार्पित करते हैं"

उपरोक्त लक्ष्यों को और भी स्पष्ट करते हुए, संविधान के निर्देशक सिद्धांतों में भी कहा गया है:


  • राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और केवल व्यक्तियों के बीच नहीं बल्कि विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा, और सभी लोगों के पोषाहार और जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के साथ ही लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्य मानेगा

भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी राज्य के दो प्रमुख कर्तव्य हैं,


  • १) सभी के लिए न्याय तथा उनके बीच अवसरों और सुविधाओं की समानता सुनिश्चित करना
  • २) लोकतंत्र को मजबूत बनाना

संबिधान के लागू होने के 65 वर्षों बाद भी संबिधान के लक्ष्यों को प्राप्त करने में हमें कितनी सफलता मिली है??? हाल ही के मुंबई के आज़ाद मैदान की घटना,असम में जारी हिंसा,देश के विभिन्न शहरो से पूर्वोत्तर के लोगो का पलायन,असंख्य गावं आज भी पक्की सड़कों से नहीं जुड पाऐ हैं,असंख्य गावं आज भी बिजली और पानी जैसी सुविधाओं के लिए मोहताज है इत्यादि - क्या हमारे विकाश के शौर्यगाथा की परिचय के लिए यह पर्याप्त नहीं है??? आज भारत दो खंडो में बंट चूका है,एक शहरी भारत और दूसरा ग्रामीण भारत,शहरी भारत प्रगति की ओर बढ़ रहा है वहीँ ग्रामीण भारत गर्क और बदहाली की ओर.अनुभव करना है तो बिहार जाकर देखें,उत्तर प्रदेश जाकर देखें, पशिम बंगाल जाकर देखें.हाल ही में पशिम बंगाल के 24 Pargana(साउथ) जिला भ्रमण करने का मौका मिला जो कोलकाता सिटी से महज ६०-७० किलोमीटर की दुरी पर है.यहाँ का हाल यह है जैसे मानो लोग मनुष्य की जिंदगी नहीं वल्कि जानवरों से भी बदतर जिंदगी जी रहे हो.सरकारी सुविधाएं मानों इनके लिए स्वप्न हो.ये तो एक सुक्ष्म उदाहरण है तह तक जायेंगे तो अपने आप को भारतीय बताने में संकोच होने लगेगा.अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बड़ा ही यादगार महीना रहा है,भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता दिवस तक,अगस्त का महीना इन सभी ऐतिहासिक लम्हों का गवाह रहा है.परन्तु अगस्त महीने की ये घटना जिसमे राजनितिक स्वरुप एवं  इसके  बदलते मायने इस महीने की विरासत पर एक तीक्ष्ण अघात है.हर वर्ष अगस्त आते ही पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मनाना शुरू कर देता है.पर सवाल यह है आज़ाद भारत से आबाद और खुशहाल भारत बनने में और कितने वर्ष लगेंगे?  भारतीय संबिधान की प्रस्तावना में वर्णित एक-एक लफ्ज़ हकीक़त में कब तब्दील होगी? चंद योजनाओं का हवाला दे असंख्य तड़पते मनुष्य की उपेक्षा विकसीत नहीं वल्कि खोखली,जर्जर राजनितिक एवं सामाजिक व्यवस्था दर्शाता है.हनीमून,पक्ष और विपक्ष से ऊपर उठकर राजनीती करनी होगी वर्ना हमारी यह संबिधान कही टुकडो में न बट जाएँ,प्रजातंत्र का कोई नया नामांकरण या नयी परिभाषा न हो जाए? कैसी भी राजनीती हो परन्तु जनहित से परे एवं संबैधानिक मर्यादाओं/कटिबद्धताओं का बलात्कार कर नहीं.व्यवस्था परिवर्तन से ज्यादा जरूरी है संबिधान के प्रति भारतीय राजनीती का परिपक्व,संवेदनशील और पेशेवर होना.वगैर इसके प्रगतिशील,खुशहाल देश की कल्पना नहीं की जा सकती....जागो भारत जागो....भूल चुक लेनी देनी...:-)

Tuesday, August 14, 2012

13th August 2012 - खादी भगवा समझौता

13th August 2012 (सोमवार) को काले धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ पांच दिन से रामलीला मैदान में अनशन कर रहे योगगुरु बाबा रामदेव के समर्थकों का उन्माद देखकर ऐसा लग रहा था जैसे ये आन्दोलन एक सफल आन्दोलन है और देश के उत्थान के लिए है.लोग,यहाँ तक की मीडिया भी कहने लगी की योगगुरु बाबा रामदेव ने अन्ना हजारे का आन्दोलन हाइजैक कर लिया. विपक्षी पार्टियों के गणमान्य प्रतिनिधियों का एक साथ मंच पे आना,हाथ में हाथ मिला एक साथ ग्रुप फोटो और उनके भाषण के तेवर मानो ऐसे लग रहे जैसे इस आन्दोलन को उन्होंने ने ही अपरोक्ष रूप से संगठित किया हो. अब आन्दोलन के स्वाद की राजनीती का रिवाज़ हो गया है.जो आन्दोलन जितना स्वादिष्ट विपक्षी पार्टियों का उतना ही प्यार, दुलार और समर्थन.अगर आप अन्ना हजारे के आन्दोलन के समय हुए लोकसभा में लोकपाल पर हुए बहस देखे होंगे तो जरूर याद होगा की ये वही विपक्षी पार्टियाँ हैं जिन्होंने लोकपाल बिल की संकल्पना को पास ही होने नहीं दिया.जैसा भी लोकपाल था, एक बार पास हो जाता,उसका कार्यान्वयन होता. तभी तो पता चल पता की उसमें खामियां क्या है? पहले दिन से ससक्त लोकपाल..ससक्त एक शब्द है और इसको इसके उद्देश्यों के मुताबिक परिभाषित किया जा सकता है.अगर हम लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विश्वास रखते है तो एक बार लोकपाल बिल पास कर देते और संशोधन का प्रावधान तो है ही हमारे पास.जरूरी होने पर बेहतरी के लिए समय समय पर सर्वसहमति से संशोधन करते रहते.क्या हम भूल गए है की जरूरतों के अनुसार हमारे संबिधान में समय समय में संशोधन होता आया है??? लेकिन हम लोकपाल और ससक्त लोकपाल की दूरिओं को पाटना ही नहीं चाहते पर यह प्रदर्शित करना चाहते है की लोकपाल चाहिए.इसके लिए नौटंकी तो करनी पड़ेगी-प्रजातंत्र में नौटंकी मतलब रैली/अंदोलन और क्या? हमारे देश में आन्दोलन की सफलता भीड़ से आँकी जाती है.हाँ ये बात अलग है की जनता की भीड़ और जनता का समर्थन दो अलग अलग शब्द है जैसे की भ्रष्टाचार और कला धन.2010 के बिहार विधान सभा में श्री लालू प्रसाद यादव के चुनावी रैलियों में भी जन सैलाव उमड़ा करता था लेकिन इसके परिणाम आप सब देखे ही होंगे, बिहार के शक्तिशाली राजा माने जाने वाले श्री लालू प्रसाद यादव की हालत ठीक वैसी हुई जैसी स्वतंत्रता संग्राम के वक़्त अनगिनत राजाओं और निजामों की हुई थी.भारतीय राजनीती सतरंज का खेल है, दांव/पेंच की परिपक्वता ही विजय या पराजय निर्धारित करती है.इस बार योगगुरु बाबा रामदेव की तैयारियों और परिगणना की दाद देनी होगी.सरकार के लिए संसद का मोंसून सत्र का संचालन एवं स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों एवं सफल क्रियान्वयन का दवाब - हुआ ना योगगुरु बाबा रामदेव का मौके पे चौका.वही दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियों का दुसरे के कंधे पे बन्दूक रख गोली चलाना लोकोक्ति का अनुसरण - बनी बनायी मंच,मानी मनाई भीड़,सजी सजाई शय्या और समां बाँधते योगगुरु बाबा रामदेव - भीड़ जुटाने में मृत हुए आत्मविश्वास वाली विपक्षी पार्टियों के लिए लाभ की रोटी सेकने और सत्ता पक्ष पे हमला करने का  इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है.योगगुरु बाबा रामदेव का तीन दिन का सांकेतिक अनशन पांच दिन तक दिल्ली को गरमाए रखा.ये काला धन का जनांदोलन नहीं वल्कि खादी का भगवा में विलय है.खादी का भगवा के साथ एक गुप्त समझौता है.एक जनांदोलन दुसरे जनांदोलन की महत्ता को कम करे वो आन्दोलन हो सकता है जनांदोलन नहीं.उद्द्देश्य का चरम तो दोनों का भ्रष्टाचार ही था.अगर विपक्षी पार्टियाँ कमजोर एवं खोखले हो तो ऐसा ही होगा.अन्ना हजारे के आन्दोलन में भीड़ कम थी इसलिए वो आन्दोलन फेल वही योगगुरु बाबा रामदेव के आन्दोलन में भीड़ तो आन्दोलन सफल.शाम होते ही जैसे सरकार ने कला धन पे संसद में बहस का एलान किया तो मीडिया ने इस न्यूज़ को ब्रेकिंग न्यूज़ का दर्जा दे न्यूज़ के पहले वाक्य में आन्दोलन के आगे झुकी सरकार और दुसरे वाक्य में संसद में काले धन पे कल बहस होगी.मैंगो मैन के मुकाबले मीडिया तो राजनितिक बारीकियां और पैतरेबाजी  समझने में निपुण है फिर उपरोक्त ब्रेकिंग न्यूज़ का क्या मतलब है.आन्दोलन की सफलता बताना या सरकार मजबूर है ये दर्शाना? अगर स्वाद और भीड़ वाली आन्दोलन की राजनीती होने लगेगी तो सरकार चाहे किसी की भी हो लोकतंत्र कभी भी लोकतंत्र की परिकल्पना के अनुसार नहीं चलेगा.पांच वर्ष की आयु वाली संसद की रुकावट बनकर रह गयी है ये जनांदोलन.हर आदमी अब प्रजातंत्र को अपने अपने मुद्दे पे चलाना चाहता है.मैंगो मैन तो सिर्फ मैंगो ही बनकर रह गया है.हमारे देश में पहले से ही बहुत सारी चुनौतियां(जैसे भूख,गरीबी,रोजगार,बिजली,शिक्षा,नक्सलवाद,जनविनाशवाद आदि ) है जिनका हल तालाशना कला धन से ज्यादा महत्वपूर्ण है.अगर जनांदोलन हो तो इनके लिए हो जिससे आम आदमी से अब मैंगो मैन पुकारी जाने वाली जनता का हित हो सके.वैसे 13th August 2012 का दिन एक ऐतिहासिक दिन था.13th August 2012 खादी भगवा समझौता/ खादी का भगवा में विलय के लिए भारतीय राजनीती के इतिहास में याद किया जायेगा.कल छेयासठ्वा स्वतंत्रता दिवस है ६६ वर्ष बुजुर्ग हो चुके स्वतंत्र भारत को ये सोचने की जरूरत है क्यों असंख्य भारतवासी अभी भी भूख,गरीबी,रोजगार जैसे जीवन की बुनियादी सुविधाओ से महरूम है?आजाद भारत आबाद भारत कब बनेगा?...Happy Independence Day..Jai Hind...

Saturday, August 11, 2012

मेरा नाम जोकर- TO -विक्की डोनर(आइ हार्डली नो यू....)

चलचित्र,चित्रपट,फिल्म्स आधुनिक उपन्यास की तरह यह मनुष्य की भौतिक क्रियाओं को उसके अंतर्मन से जोड़ता है.फिल्में सांस्कृतिक कलाकृतियां है जो कई विशिष्ट संस्कृतियों को प्रतिबिंबित कर बनाई जाती है.फिल्म मनोरंजन के एक लोकप्रिय साधन के साथ साथ लोगो को अलग अलग संस्कृतियों और विषयों के बारे में शिक्षित करने का एक शक्तिशाली स्रोत भी माना जाता है.उपरोक्त सारी बातों से भला कौन अवगत नहीं है.फिर प्रश्न यहाँ यह उठता है की मैं ये यहाँ उल्लेख क्यों कर रहा हूँ ? फिल्मो के बारे में लोगों की अपनी अलग अलग राय होती है और अक्सर लोग इसे जिंदगी की परिपक्वता से जोड़ कर देखते है.फिल्में सिर्फ परिपक्व आत्माओं को ही देखना चाहिए.ऐसा मैं इसलिए बोल रहा हूँ की मेरी कॉलेज लाइफ के दरम्यान फिल्मे लोग चोरी छुपे देखते थे और अगर कोई सिनेमा हॉल में देख लेता था तो उसकी बड़ी जग हँसाई होती थी. उम्र के साथ साथ ज्ञान की लम्बाई का निर्धारण महत्वपूर्ण है लेकिन इसकी समीक्षा बदलते समय के अनुसार जरूर होनी चाहिए. फ़िल्मी दुनिया हमारी इस सोच से बिलकुल जुदा है.पिछले पचास वर्षो में अलग अलग समयों पर निर्मित फिल्मों का विश्लेषण करे तो आपको स्वयं ज्ञात हो जाएगा की फिल्मों और दर्शको की सोच में कितना बड़ा फासला है. इतना बड़ा अंतर फिल्मो के बहुआयामी उद्देश्य हमारी समाज या हमारी सोच पर कोई प्रभाव नहीं डाल पायेगा.आज भी अति सुशिक्षित लोग यही लोकोक्ति का इस्तेमाल करते है की फिल्म और रियल लाइफ एक नहीं होते.किन्तु मेरा मानना है की फिल्म और रियल लाइफ अलग भी नहीं होता.अंतर सिर्फ यह है की फिल्मो में रियल लाइफ के साथ मनोरंजन समूहों में देखते है जबकि रियल लाइफ में मनोरंजन बिलकुल व्यक्तिगत होता है.४२ साल पुरानी फिल्म मेरा नाम जोकर,एक जोकर है,जो अपने ही दुखो के कीमत पर अपने दर्शकों को हंसाने के लिए कटिबद्ध है साथ साथ यह भी इशारा करता है की इंसानी जिंदगी की प्रकृति क्या है,सोच क्या है.शायद वैज्ञानिको को वाहन का आविष्कार करते समय वाहन में गिअर और एक्सेलेरेटर की आवश्यकता इंसान की इसी मनोवैज्ञानिक प्रतिच्छाया को संकल्पित कर महसूस किया होगा.इस फिल्म की स्पष्टवादी नाम और रोमांटिक गानों के अलावा रियल लाइफ से किस चीज में ये फिल्म अलग है? हमलोग अगर अपनी रूढ़िवादी (यहाँ रूढ़िवादी से मेरा मतलब है अपनी निजी सोच से अलग) नजरियों से अलग हो कर सोचे तो उत्तर स्वयं मिल जाएगा.अगर इससे आप अभी तक नहीं संतुष्ट हो पाए है तो आइये आज के दौर के सब से हाल की फिल्म विक्की डोनर की करते है.पर इस पर चर्चा करने से पहले इससे कुछ व्यापक हो कर सोचते है.विश्व मे भारत के अतिरिक्त किसी भी देश मे जातिवाद नही है.भारत मे जातिवाद का लगभग ६ठी शताब्दी से ही चली आ रही है.मोटे मोटे तौर पे यह हम सभी जानते है की 'जातिवाद' को कुछ मानवो ने समाज मे अपनी विचारधाराओ को थोपा है और इसके फलस्वरूप आज तक भारतीय समाज मे जातिगत विभाजन देखने को मिलता है.आइये अब फिल्म विक्की डोनर की चर्चा को आगे बढ़ाते है यह फिल्म शुक्राणु दान के विषय पर आधारित है.रक्तदान और शुक्राणु दान में फर्क क्या है? जब किसी इंसान की जिंदगी बचाने के लिए रक्त की जरूरत होती है उस वक़्त हम ये नहीं देखते की ये किसका है,किस जाति या धर्म के मनुष्य का है.ठीक उसी तरह शुक्राणु दान भी एक चिकित्सा संकट है पर हम मनुष्य इसको भावनात्मक और फिर सामाजिक विकृति मान लेते है.यह इसी वजह से है की हम अपने मनोविज्ञान से अभी तक जातिवाद नहीं निकाल पायें है.जातिवाद एक ऐसी मानसिक विकृति है जो मानव समाज को दिन प्रतिदिन संकुचित करती जा रही है.आरक्षण भी जातिवाद की ही देन है.क्या यह नही ज्ञात होता है की आरक्षण की बढती पैठ मानव जीवन की गलियारों को और संकरी करती जा रही है.अगर हम आज नहीं समझ पा रहे है तो कोई बात नहीं लेकिन इसके दुरागामी परिणाम अति दुखदायी प्रतीत होने वाली है.मानव जीवन से जुड़े इन्ही पहलुओ को फिल्म विक्की डोनर पुनः सोचने को प्रेरित करता है.चलचित्र,चित्रपट,फिल्म्स समाज की कई अज्ञात संस्कृतियों और अनछुए पहलुओ से समय - समय पर रू-ब-रू कराती रहती है एवं मनुष्य के रियल लाइफ से बिलकुल भी अलग नहीं होती.इसके मनोरंजन को संयोजित करने वजाए हमें इसमें प्रतिबिंबित किये संदेशो को संयोजित कर जिंदगी को परिवर्तित करने की कोशिश करनी चाहिए.इसी सकारात्मक सोच से फिल्मों और हम दर्शको की सोच का फासला कम हो सकता है.फिल्म बनाने वाले का मकसद सिर्फ पैसा कमाने का नहीं होता,इनका असली मकसद सुपरहिट होने का होता है.और सुपरहिट अर्थात आप पर अमिट प्रभाव छोड़ना.भारतीय कला उद्योग को इन्ही निरंतर प्रयासों के लिए मेरा सलाम!!! समय और परिवर्तन एक साथ चलती है तो हम मनुष्य क्यों नहीं?..हैव ए लवली वीकेंड..

Wednesday, August 8, 2012

हे नाथ,हे लड्डू गोपाल,हे कन्हैया,हे देवकी पुत्र,हे नन्द लाल,हे श्री राधे कृष्ण,हे मीरा के गिरधर गोपाल..

आज जन्माष्टमी है...आज कृष्णाष्टमी है..आज गोकुलाष्टमी है..यमुना जरूर आज उफान पर होगी तेरे चरण स्पर्श करने को.आज मेघ भी गरजेगा तेरे स्वागत में.ज्ञान के सागर,प्रेम का प्रतीक,मित्रता की तीर्थ,न्याय के मूर्ति  हे नाथ,हे लड्डू गोपाल,हे द्वारकाधीश,हे मुरारी,हे कन्हैया,हे गोविन्द,हे देवकी पुत्र,हे नन्द लाल,हे श्री राधे कृष्ण,हे मीरा के गिरधर गोपाल आपके चरणों में हमारा कोटि कोटि वंदन नमन.आज तेरे इस ब्रह्माण्ड में  मनुष्य विकल्पों की तलाश में लगा है.नव ग्रहों की जानकारियां जुटा रहा है.इसे मनुष्य के अनु -- संधान  की जिज्ञासा कहे या  तेरे इस धरती से उबने की व्याकुलता.आज मनुष्य के लिए तीव्रता ही संजीवनी है.जीवन यापन की तीव्रता,जीवन संचालन की तीव्रता,सफलता और यश की तीव्रता,अर्थवान होने की तीव्रता..तेरे मनुष्य को तीव्र गति से भागने का अब बोध हुआ है या असुरक्षित होते मानव जीवन की मजबूरी.मनुष्य के साधारण ज्ञान में विज्ञान के समावेश से मानवीय जीवन संचालन की प्रक्रिया और सरल होनी चाहिए परन्तु आज मनुष्य मनुष्य का ही शत्रु बन बैठा है.सर्व - नाश,विनाश,विघात के लिए मनुष्य इसी विचित्र ज्ञान का उपयोग कर रहा है.यह तेरे कलयुग का चरमोत्कर्ष है.हे पालनहार तू ही दैत्य हो चुके मनुष्य को सुधार सकता है,मार्गदर्शित कर सकता है.हे संपूर्ण संसार के पालनहार कोटि कोटि विनती है हमारी, अवतरित हो जा.बचा ले इस संसार को...बचा ले इस संसार को..! जय श्री कृष्ण !  ! जय राधे गोविन्द !

Saturday, August 4, 2012

गंतव्य तक पहुचने के लिए लगभग १२ घंटे की यात्रा अभी भी शेष थी...

पिछले कई दिनों से मुंबई में मुंबई वाली मोनसून स्पेशल गुस्सैल वारिश नहीं हो रही थी लेकिन आज मौसम अचानक खुशनुमा हो उठा था। प्रात:से ही रुक-रुक कर गुस्सैल बूंदाबांदी हो रही थी.आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था.मैं बहुत खुश था.सुहावना और ख़ुशनुमा मौसम मेरी इस ख़ुशी का एक छोटा-सा कारण तो था लेकिन बड़ा और असली कारण कुछ और ही था.आज मुझे आउट ऑफ़ स्टेशन जाना था और मेरी लम्बी वेट लिस्टेड टिकट कन्फर्म हो गयी थी.इस खुशगवार मौसम में कनफर्म्ड टिकट वाली रेल यात्रा,मुझे हर पल रोमांचित कर रहा था.गुस्सैल बूँदाबाँदी और मुंबई लोकल की वावली भीड़ के बावजूद मैं स्टेशन पर समय से पहले पहुँच गया था। स्टेशन पहुचने पर पता चला की हमारी ट्रेन निर्धारित समय से तीस मिनट देर से चल रही है.गाड़ी का लेट होना मेरे अंदर थोडा खीझ पैदा कर रहा था लेकिन फिर मैंने सोचा पता नहीं ट्रेन में खाने का इंतजाम हो या न हो क्यों न कुछ खाने का सामान ले लिया जाये और फिर मैंने कुछ फरसान(बम्बई में नमकीन को फरसान बोली जाती है),फ्रूट्स और पानी का बोत्तल खरीद लिया.अब मैं कुछ निश्चिंत महसूस कर रहा था की चलो भोजन की समस्या फिलहाल तो नहीं होगी. तभी इंडियन रेलवे की कर्कश ध्वनि वाली उद्घोषणा होती है की कुछ ही समय में हमारी ट्रेन आ रही है साथ साथ मेरे मोबाइल पर मेरे अनुज के दूरभाष की ध्वनि  भी बजने लगती है.वही जब भी मैं यात्रा पे निकल रहा होता हूँ, इसे रिवाज़ कहूं या इनका रुटीन मेरी खैरियत का हाल जरूर लेते हैं पर दोस्तों जो भी हो मुझे इनका ये रिवाज अच्छा लगता है.अब मेरी ट्रेन पधार चुकी थी और मैं अपने कन्फर्म सीट पर बैठ कर बहुत सहज महसूस कर रहा था.मेरे सह यात्री एक बुजुर्ग जोड़ा थे.ट्रेन अब प्रस्थान कर चुकी थी.हमलोगों ने एक दुसरे को अपना परिचय दिया.बुजुर्ग यात्रा में परिचय को बड़ा महत्व देते है और अगर इस सूक्ष्म व्यावहारिकता पे गौर फ़रमाया जाए तो आप भी ये स्वीकार करेंगे की इसकी सभ्यता एक दुसरे को करीब लाने में, एक दुसरे के संवाद को प्रोत्साहित करने में बहुत मददगार सिद्ध होती है.अरे भाई लम्बी यात्रा को मूक बनकर जोश-ख़रोश तो नहीं भरा जा सकता ना.अभी परिचय का दौर खत्म भी नहीं हुआ था की अचानक चाय वाले की आंदोलित करने वाला अल्हड आवाज़ सुनाई दी,हमने चाय खरीदी,आंटी ने चाय नहीं ली पर मेरे सहयात्री अंकल ने दविश के साथ मुझे ये कहते हुए पैसे नहीं देने दिया की बेटा मुझे अभी पेंशन मिलती है.मैं थोड़ी देर तक मतलबविहीन हो हतप्रभ रह गया मेरी असहजता को भांपते हुए मेरे सहयात्री अंकल चाय की चुस्कियो को अपनी बुजुर्गियत बख्शीश करते हुए परिचय के सिलसिला को फिर से आगे बढाया.मेरे सहयात्री अंकल रियाज़ खान जी अलीगढ के रहने वाले थे और रसायन शास्त्र के शिक्षक के पद से हाल ही में अवकाश प्राप्त हो आज कल खेती बारी करते है. उनका पुत्र मुंबई में इंजिनियर है और वो हर २-३ साल में अपने बेटे से मिलने मुंबई आया करते है और ये लोग अब वापस अपने गाँव जा रहे थे.मेरे सहयात्री आंटी बहुत उदास सी नज़र आ रही थी, उनको बच्चो से बड़ा लगाव है और यही उनके उदासी का कारण भी था अपने पोते,पोतियों से एक बार फिर बिछड़ गाँव जो वापस जा रहे थे.कई बार अपने पोते,पोतियों का जिक्र करते हुए वो भाव विभ्होर भी हो जाते थे.

हमारी ट्रेन अब सूरत पहुचने वाली थी.दोपहर हो चूका था,मेरे सहयात्री अंकल ने हम सब की भावुकता को विराम देते हुए उन्होंने लंच का डब्बा निकालना शुरू कर दिया.मैंने फरसान और फ्रूट्स निकाला.पैंट्री कार होते हुए भी अभी लंच के लिए कोई नहीं आया था.मेरे सहयात्री अंकल,आंटी ने जोर देते हुए खाना साथ में खाने के लिए तजवीज़ किया.मैंने संकोचवश उनके इस तजवीज़ को शुक्रिया अदायगी के साथ नकारने की कोशिश की पर उन्होंने इसको एक भावपूर्ण मोड़ देते हुए यहाँ तक कह दिया की मेरे बेटा अगर साथ में होता तो क्या नकारता? कई वर्षो के बाद इस प्रगाढ़ भावुकतापूर्ण अभिव्यक्ति को सुन ऐसा लगा की बुजुर्गो के अपने संतान के प्रति पेशकश का अंदाज आम जिंदगी से बिलकुल जुदा होता है.मैंने इसको अवसर मान बिना एक पल गवाए उनके साथ भोजन शुरू कर दिया.उनके इस्लामी अनुयायी होने के नाते ढेर सारी धार्मिक बाते भी होने लगी.मेथी के पराठे,आलू की सुखी सब्जी और अचार- वाह क्या कहने.कुछ ही दिन बाद ही पाक महीना:माह-ए-रमजान आने वाला था.रमजान की बातें हो ही रही थी की टी.टी साहब आ गए,टिकट मांगने के वही ठाठ और अकड़.बिना आइ.डी कार्ड देखे ही टिकट पे अपना औटोग्राफ दे चलते बने.अब धार्मिक बातों से वृथा बकवाद गीत संगीत पर आ चुकी थी.आकाश अगर काले बादलों से ढके हो तो दिन ढलती कब है और शाम आती कब है पता ही नहीं चलता.जीत और हार से परे इनकी आशिकी की गहराई का अंदाजा सिर्फ वक्त ही लगा सकता है.मेरे सहयात्री अंकल कहने लगे मुझे ना ज्यादा पुराने और ना ही आज कल के गीत पसंद है, मुझे तो वो गीत पसंद है जिसके बोल ह्रदय को छू जाए.मुझे इनका पसंद थोडा कम्प्लेक्स लगा पर फिर भी इतना समझ में आया की इनका मापदंड पुराने और नए गानों का नहीं है.फिर मैंने पूछा आंटी को किस तरह के गीत पसंद है तो अंकल ने चुटकी लेते हुए उत्तर दिया इनको धार्मिक गीत पसंद है.तभी चाय वाले की आंदोलित करनेवाला अल्हड आवाज़ फिर से सुनाई देती है.इस बार आंटी ने भी चाय ली.मैंने पैसे देने की पुरजोर कोशिश की लेकिन उनके हठ के आगे मैं हार गया.एक बार फिर मैं असहज महसूस कर रहा था लेकिन अब मुझे थोडा यकीं हो रहा था की उम्र के अग्रिम होती प्रभुत्व की अवधि में आदमी बुजुर्ग तो होता जरुर है पर साथ साथ हठीला भी.मेरे पिताजी भी ठीक इसी तरह का व्यवहार करते थे.जब भी मैं अपने घर जाता था यही हठ,यही ज़िद्द,यही अटलता,यही मनमानी,क्या कुछ कर दूं, क्या कुछ खिलाऊ. इस यात्रा में न जाने ऐसा क्यों लग रहा था की आज मेरे पिताजी कुछ पल के लिए मेरे साथ फिर मिल गये हो.

रात हो चुकी थी. इस बार पैंट्री कार से रात के भोजन का प्रस्ताव आया,अभी भी वो ज़िद्द पे अड़े थे की पैंट्री कार से खाना आर्डर मत करो परन्तु इस बार मेरे ज़िद्द उनके हठ को एक शर्त पे हरा पाने में कामयाब रहा के उनका अचार जरूर खाना है और एक बार फिर मैं मेरे सहयात्री अंकल,आंटी के साथ खाना खाया.मेरे सहयात्री अंकल,आंटी को सुबह में किसी स्टेशन पर उतर अलीगढ जाना था मतलब इनके साथ का सफर आज रात ही खत्म होने वाला था.१० बजने वाले थे और हमने बिना कोई समय गवाए एक दुसरे को अभिनन्दन कर अपने अपने बर्थ पे सो गए.एक बार फिर सुबह होने का एहसास चाय वाले की आंदोलित करनेवाला अल्हड आवाज़ ने कराया और देखा मेरे सहयात्री अंकल,आंटी सफ़र पूरा कर अपने गंतब्य की ओर जा चुके थे.एक बार फिर से यतीम, अकेला- न हठ,न ज़िद्द,न अटलता,और ना ही मनमानी.....मेरे मन को इन शब्दों के अलावा कुछ और नहीं दिख रहा था चाय अब उतनी उत्तेजक नहीं लग रही जितना की मेरे सहयात्री अंकल,आंटी की मौजूदगी में लग रहा था....मेरी यात्रा अभी पूरी नहीं हुई थी...गंतव्य तक पहुचने के लिए लगभग १२ घंटे की यात्रा अभी भी शेष थी.....

तेरे जिक्र भर ने एहसास कराया की मैं यतीम नहीं
चाँद देख ईद
मनाना तो एक बहाना है
तेरा मकसद तो उत्सव को महोत्सव बनाना है
कहते संत,फकीर ही तेरा आशिक है
इल्तिजा है तेरे बख्शीश ए दीदार,आशिक का तेरे
तेरे जिक्र भर ने एहसास कराया की मैं यतीम नहीं
चाँद देख ईद
मनाना तो एक बहाना है
तेरा मकसद तो उत्सव तो महोत्सव बनाना है


माह-ए-रमजान मुबारक ...अल्लाह हाफिज़....:-)