Negative Attitude

Negative Attitude
Negative Attitude

Tuesday, June 26, 2012

लोकमान्य तिलक टर्मिनस रेलवे स्टेशन,मुंबई


मुंबई बोले तो एक महानगर के साथ साथ  एक विशाल भीड़ कहना भी गलत नहीं होगा और जैसा की हम सब मानते है की मुंबई की भौगोलिक स्थिति ही यहाँ की परिवहन व्यवस्था को अत्यधिक जटिल बनाता है.तभी तो मुंबई लोकल ट्रेन को लाइफलाइन शब्द से संबोधित किया जाता है. क्यों न लाइफलाइन शब्द से सम्मानित की जाए एक यही तो है जो लगभग प्रतिदिन ६०-७० लाख मुम्बईकर्स को समय पर उनको उनके कार्यालय पहुचाती है.मुंबई में लम्बी दुरी की यात्रा के लिए मुख्यतः चार [१)छत्रपति शिवाजी टर्मिनस/२)मुंबई सेंट्रल/३) बांद्रा टर्मिनस/४) लोकमान्य तिलक टर्मिनस] रेलवे स्टेशन है. उल्लेखित चारो स्टेशनों में एक है लोकमान्य तिलक टर्मिनस. विस्तृत चर्चा करने से पहले थोडा इसका परिचय दे दूं - लोकमान्य तिलक टर्मिनस पूर्व में कुर्ला टर्मिनस के नाम से जाना जाता था.लोकमान्य तिलक टर्मिनस कुर्ला और तिलक नगर उपनगरीय रेलवे स्टेशनों के पास स्थित हैं. यह मुंबई शहर के एकदम भीतर माना जाने वाला रेलवे टर्मिनस में से एक है एवं मध्य रेलवे के अंतर्गत आता है. रेलवे के हुक्मरानों ने इस रेलवे स्टेशन को छत्रपति शिवाजी टर्मिनस(CST) में बढती भीड़ को संतुलित करने के लिए बनाया है. यहाँ से देश के विभिन्न राज्यों के लिए लगभग ५०-६० ट्रेनों की आवागमन होती है. ये है लोकमान्य तिलक टर्मिनस का संक्षिप्त परिचय. इस स्टेशन के निर्माण का उद्द्देश्य,रेलवे के सीमित संशाधन आदि सब बाते तर्कसंगत है परन्तु यहाँ यात्री सुबिधा नाम पर एक व्यवस्थित नौटंकी है जो हर समय यात्रिओ को लूटनेकी फ़िराक में लगी रहती है.यात्रा की शुरुआत होती है स्टेशन पहुचने से लेकिन आप चाहे मुंबई के किसी भी दिशा से आ रहे हो,लोकमान्य तिलक टर्मिनस स्टेशन तक पहुच पाना ही यात्रा के नाम पर काला पानी टाइप के सजा सामान है. वैसे हमारे देश की विशाल जनसँख्या अगर असल में किसी संस्थान के लिए निरंतर लौटरी है वो है भारतीय रेलवे.स्वतंत्रता के ६५ वर्ष बाद भी पीने का स्वच्छ पानी मुहैया करने में पूरी तरह से नाकाम भारतीय रेलवे प्रतिदिन अनगिनत वेटिंग लिस्ट टिकट बुक कर और फिर इसके कैन्सिलेसन से प्रतिदिन करोडो रुपये यात्रयों से छलती है.यह तो रेलवे के कई छुपे प्रभारो में से एक है.अगर आप तह तक जायेंगे तो लुट खसोट की विशालकाय व्यवस्था मिल जाएगी.अरे हम तो लोकमान्य तिलक स्टेशन से अलग ही हो गए.लोकमान्य तिलक स्टेशन सेंट्रल रेलवे की लुट खसोट की महत्वकांछी उपलब्धियों में से एक है.मुंबई के टैक्सी,ऑटो वाले लोकमान्य तिलक स्टेशन का नाम सुनते ही गिद्ध की नजर से लुटने को आतुर सा दिखने लगते है.मोटा बिल हो इसके लिए लोकमान्य तिलक स्टेशन की ओर जानी वाली रास्तो को लेकर अचानक क्रिएटिव होने लगते है.ऐसा एहसास दिलाने लगते है मनो लोक्मान्य तिलक मुंबई में नहीं किसी और शहर में स्थित है.यह तो हुई रोड से लोकमान्य तिलक तक का नज़ारा.आइये अब जरा लोकल ट्रेन से लोकमान्य तिलक पहुचने का नज़ारा महसूस करते है.अगर आपको वेस्टर्न सबअर्व से लोकमान्य तिलक पहुचना है तो तीन बार,जी हाँ तीन बार लोकल ट्रेन बदलनी पड़ेगी,और अगर आप सेंट्रल सबअर्व से लोकमान्य तिलक आ रहे है तो लगभग दो बार लोकल ट्रेन बदलनी पड़ेगी.लम्बी दुरी की यात्रा होगी तो भारी भरकम लगेज लाजमी है,अब ट्रेन चेंज करनी है तो भारी भरकम लगेज के साथ प्लेटफ़ॉर्म बदलने के लिए सीढियों को नजरअंदाज़ कैसे कर सकते है.मान लीजिये की किसी तरह लुटते पिटते लोकमान्य तिलक टर्मिनस पहुच जाते है.तो यहाँ फिर शुरू होगी आपके दुसरे चरण का संघर्ष.यहाँ की पूछताछ सेवा मनो यात्री सुविधा न यात्रिओं पे उपकार हो,अज्ञानी रेल सुरक्षा बल जैसे यात्रियों को प्रताड़ित करने को वचनवद्ध हो और शेष बची सत्कार लोकमान्य तिलक स्टेशन पे मंडराते नशेड़ियों की टोली संपूर्ण कर देगी. रेलवे के पास जगह का अभाव है और लोकमान्य तिलक स्टेशन इसी आभाव की देन है परन्तु इसका मतलब ये तो हीं की यात्रयों के साथ मवेशियों से भी बदतर तरीके से व्यवहार किया जाए.इनके सुविधाओं का बिलकुल भी ध्यान ना रखा जाए.साधारण श्रेणी के क्या कहने, इसमें  यात्रा करने वाले यात्रियों की रेल सुरक्षा बल की दमनकारी एवं कड़ी निगरानी वाली लम्बी कतार स्वतंत्र भारत की एक मेड इन इंडिया ब्रिटिश राज की छवि प्रस्तुत करती है.जब एक रेलवे स्टेशन शहर के अन्दर ही इतना दुर्गम स्थान बना हो तो ऐसे स्थान पर रेलवे स्टेशन क्यों? क्या रेल प्रशासन की ये जिम्मेदारी नहीं है की लोकमान्य तिलक पहुचने या लोकमान्य तिलक से शहर के अन्य स्थान तक जाने के लिए यातायात के सुलभ एवं वहन करने योग्य साधन की व्यवस्था करे.  क्या विश्व के चौथे सबसे बड़े नेटवर्क वाली भारतीय रेल प्रशासन मूलभूत यात्री सुबिधायें मुहैया कराने में इतना अक्षम है?

Thursday, June 21, 2012

वर्ल्ड म्यूजिक डे एंड Bombaim..

आज विश्व संगीत दिवस(वर्ल्ड म्यूजिक डे) है.२१ जून को सारा संसार प्रकृति के संगीत रुपी इस जादुई उपहार को विश्व संगीत दिवस(वर्ल्ड म्यूजिक डे) के रूप में  मनाता है.विश्व संगीत दिवस पहली बार फ्रांस में सन 1976 में एक अमेरिकी संगीतकार के द्वारा शुरुआत की गयी थी.तब से,यह दुनिया भर में लगभग 30 से अधिक देशों में अपने अपने तरीके से एक उत्सव के तरह मनाया जा रहा है.विश्व संगीत दिवस(वर्ल्ड म्यूजिक डे) का मुख्य नारा है Make Music. मनोरंजन उद्योग की राजधानी Bombaim आज  म्यूजिक  डे मानाने में मशरूफ दिखा तो जरूर मगर सख्त अनुशाषण की छत्रछाया कभी न सोने वाली Bombaim को थोडा समय पर सोने को मजबूर होते हुए.शायद यह कभी न सोने वाली Bombaim इसे विशेषण कहे या फिर गुमान,शब्दों को जिस तरह निचोड़े, यही इंडिया से हटके होने की इसकी परिपूर्णता को दर्शाता है नहीं तो देश की आर्थिक राजधानी एवं सबसे अमीर शहर होने के बाबजूद भी आज बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता में बाकी महानगरो  के मुकाबले बहुत पीछे  होता दिख रहा है. आदमी की स्थिति यहाँ मवेशियों से भी बदतर है. उदहारणस्वरुप Bombaim की लाइफलाइन लोकल ट्रेन को ही ले लीजिये, बस जीवन यापन की अनिवार्यता ही इस दम धुटने वाली ट्रेन का सफ़र झेलने की शक्ति प्रदान करती है. देश की आर्थिक राजधानी,सबसे अमीर शहर और कभी न सोने वाली Bombaim जैसे संबोधन ही इस अनुशासनहीन बिलासिता,बिंदासपन की देन है.शायद यही जिंदगी की अन्य पहलुओ/जरूरतों के बारे में सोचने से वंचित रखा और परिणामस्वरुप कभी न सोने वाली बोम्बैम अब समय पर सोने को मजबूर हो रही है.वर्ना यह रंगीन,जिंदादिल और ईमानदार Bombaim को रात में कभी शहंशाह  की जरूरत नहीं पड़ती. धन्यवाद् तो हम सब को सहायक पुलिस आयुक्त श्री वसंत ढोबले साहब को देनी चाहिए जिन्होंने इस  अनुशासनहीन बिलासिता,बिंदासपन  से वसीभूत Bombaim को आज़ाद कराने का प्रयास किया है.आम जनता के पहुच से दूर दिन ब दिन कूल टैक्सी,वातानुकूलित कॉल टैक्सी की बढती तादाद विकसित होने का सबूत नहीं वल्कि विकसित न होने की मजबूरी दर्शाता है.भाषाओ की राजनीती से चोटिल इस शहर को अगर शंघाई बनना है तो रैप,मलाइका जैसे धुनों से सीख लेनी होगी.अफ्रीकन कंट्रीज की ये धुनें बिना किसी भेद भाव के हमारे भारतीय संगीत के साथ कितनी सहजता से मित्रता कर ली है.म्यूजिक डे है,चलिए अब थोडा म्यूजिक एन्जॉय कर लेते है.. हम आपसे   सिर्फ दो गानों के साथ आज के लिए विदा लेते है.एक श्री पी.वी.नरसिम्हा राव जी  के समय रिलीज हुई थी और दूसरी हाल ही में यानि श्री मनमोहन सिंह जी के महंगाई डायन कार्यकाल में.कृपया इसे गुनगुनाये,महसूस करें और अपना कमेन्ट अवश्य दे...गुड नाईट-:)

१९९५- का कार्यकाल
फिल्म:- करन अर्जुन


गुपचुप गुपचुप गुपचुप 
लाम्बा लाम्बा घूंघट,काहे को डाला 
क्या कहीं कर आई तू मुंह काला रे 
कानों में बतिया करती है सखियाँ

रात किया रे तुने कैसा घोटाला छत पे सोया था बहनोई,मैं तन्ने समझ कर सो गयी
मुझको राणा जी माफ़ करना,गलती मारे से हो गयी..:) 

और दूसरा
2012
- का कार्यकाल
फिल्म:- विक्की डोनर


पानी  दा ..रंग  वेख  के
अंखियाँ  जो  *हंजू  रुल  दे
अंखियाँ  जो  *हंजू  रुल  दे
माहिया  न  आया  मेरा
माहिया  न  आया
रान्झाना  न  आया  मेरा
माहिया  न  आया
आंखां दा ..नूर वेख के अंखियाँ जो हंजू रुल दे
[यहाँ कन्फुज मत होइएगा माहि मतलब एम् एस धोनी भी होता है...]
{*हंजू मतलब आंशु}
..............:-):)

Wednesday, June 20, 2012

गोल्डेन वर्ड्स आर नोट रीपीटेड....

हाल ही में  दैनिक भास्कर पढ़कर ख़ुशी हुई थी की गरीबी, पिछड़ेपन का पर्याय माना जाने वाला बिहार लगातार दूसरे साल सबसे तेज विकास दर हासिल करने वाला राज्‍य बन गया है। 2011-12 में बिहार की विकास दर 13.1 फीसदी दर्ज हुई है। बिहार की अर्थव्‍यवस्‍था अब पंजाब से भी ज्‍यादा बड़ी हो गई है। गुजरात फिर टॉप 5 में जगह नहीं बना सका है। लेकिन कल के श्री नितीश कुमार जी के The Economic Tmes को दिए इंटरविउ से यह महसूस हुआ की आकड़ो की यह रसीली गोली सिर्फ व्यक्तिगत शौर्यता प्रदर्शित करने के लिए ही थी. कमल की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एन डी ए)  पहले से ही अंदरूनी कलह से दुर्घटनाग्रस्त है और इनके सदस्यों द्वारा इस तरह के राजनितिक बयानबाजी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एन डी ए) को मटीयापलिद  होने में और तीब्रता प्रदान करेगी.संसदीय चुनाव २०१४ में है और दो साल पहले ही प्रधानमंत्री के नामो की उत्सुकता वाली बात बिलकुल समझ में नहीं आई ?? सत्य तो यह है हमारे देश की जनता ब्रांडेड वहन कर सके या नहीं परन्तु  भारतीय राजनीती ब्रांडेड संकल्पना पर ही चलती आ रही है फिर इन बेतुकी बयानबाजी में समय क्यों व्यर्थ गवाएं. जनता राष्ट्रीय पार्टियों से निराश होकर क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा क्षेत्रीय हितो वाली चुनावी घोषणा पर भरोसा कर उनको चयनित करती है और सत्ता मिलते क्षेत्रीय पार्टिया  चुनावी घोषणा के बिलकुल विपरीत अपने व्यक्तिगत रेटिंग बनाने में जूट जाती है.  बिहार के तेज विकास दर हासिल करने के ताज़ातरीन आंकड़े चाहे जो भी प्रदर्शित करें लेकिन २०११ जनगणना  के निम्नलिखित आंकड़े बिहार की कुछ और ही तस्वीर प्रस्तुत करती है...


विद्युतीकरण के मामले में बिहार अभी भी सबसे निचे है और इन १० साल के आंकड़ो में श्री नितीश कुमार जी की अगुआई वाली सरकार की भागीदारी ०६ साल की है.राष्ट्रीय औसत से निचे विराजमान राज्यों में उत्तर प्रदेश जो निचे से बिहार से ठीक ऊपर है में ३६.८ प्रतिशत घरों में बिजली है वही बिहार जो सबसे निचे है में १६.४ प्रतिशत घरों में बिजली है.अब जरा सोचिये मानव जीवन की मुलभुत जरूरतों में एक विद्युत्  भी है  और जिससे बिहार के सौ घरो में से ८४ घर आजादी के ६५ साल बाद भी बिजली की सुविधाओं से महरूम है.बिना विद्युत् के विकास की चमकदार रौशनी की कल्पना भी नहीं की जा सकती. हम कुछ नवनिर्मित सड़को,श्री प्रकाश झा जी का शौपिंग मॉल,पटना की ११०  रूपया में ०४ किलोमीटर वाली प्रीपेड ऑटो सेवा का श्री गणेश,दलितों को रेडियो इत्यादि को ही विकास और विकसित होने के मापदंड मानकर हर्षित हो गुणगान करते थक नहीं रहे है.हर्षित हो भी क्यों न जाने कितने वर्षो बाद  ऑनलाइन शौपिंग को अग्रिम होते युग में  अब ग्रेट मिडिल क्लास ट्रोली साथ में लेकर शौपिंग करने का आनंद जो उठा  रहे है. बिहार के बढ़ते विकास दर की यह गाथा मृगतृष्णा जैसा ही है.ख़ुशी तो तब होगी जब बिहार विद्युतीकरण में राष्ट्रीय औसत तो छोडिये अभी,  कम से कम उत्तरप्रदेश के आंकड़े को पार कर ले.श्री नितीश कुमार जी के नेतृत्व वाली भाजपा+जद-यु सरकार अब तक काफी सराहनीय रही है और निस्संदेह स्वतंत्रता के ६५ साल बाद पहली बार श्री नितीश कुमार जी बिहार के विकास के लिए उम्मीद की किरण बन कर उभरे है और इस सकारात्मक उद्देश्य के वांक्षित परिणाम तभी प्राप्त होंगे जब व्यक्तिगत राजनीती पे वक़्त जाया करने के वजाय सिर्फ और सिर्फ बिहार के विकास के लिए ध्यान 
केन्द्रित की जाए.

नॉव इट्स माय टर्न वर्ड्स ऑफ़ कॉमन मैन विल बी रीपीटेड अगेन एंड अगेन ......:-)     

Tuesday, June 12, 2012

सामाजिक व्यवस्था - शिक्षालय भ्रष्टाचार की?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,यह कोई नवीन पंक्ति नहीं है. सामाजिक प्राणी होने के नाते हम सब को सामाजिक व्यवस्थाओ के अनुकूल ही जीवन यापन करना होता है,यह भी कोई नवीन पंक्ति नहीं है. सामाजिक व्यवस्था क्या है? क्यों जरुरी है सामाजिक व्यवस्था? आइये आगे चर्चा करने से पहले यह बता दू की व्यवस्था शब्द से मैं क्या समझता हूँ? मेरी समझ में मोटे तौर पे भारतीय सामाजिक व्यवस्था मतलब बातचीत और अन्योन्याश्रित को एकीकृत बनाने के घटकों का एक संयोजन!.और मनुष्य जीवन के श्रेठ होने  के सारे 'संस्कार' और अंग्रेजी का 'सेक्रामेंट' शब्द इसी व्यवस्थाओ के अधीन हैं. वैसे हम सभी जानते है की संस्कार मतलब किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी भी  मनुष्य को विशेष धार्मिक क्रिया-प्रक्रियाओं द्वारा श्रेष्ठ बना देना ही उसका संस्कार है। अब बात है की किसी भी मनुष्य को अपना जीवन श्रेष्ठ बनाना है तो सामाजिक व्यवस्था के आगे घुटने टेकने ही होंगे नहीं तो परिणाम स्वरुप सीधा असामाजिक प्राणी होने का प्रशस्ति पत्र, फिर जीवन क्या और श्रेष्ठ क्या,बस समाज का एक हीन प्राणी. सामाजिक प्राणी मनुष्य की यही  श्रेष्ठ होने की पराकाष्टा को हासिल करने के कई हिन्दू संस्कारो में एक संस्कार है विवाह संस्कार.यूँ तो इस संस्कार को हम यज्ञ सा होने का दर्जा देते है और हमारे समाज के पवित्र समारोहों  में से एक है. लेकिन असह्या दहेज प्रथा का आतंक इस संस्कार को एक खूंखार,निर्दयी सामाजिक व्यवस्था बना दिया है.और इसी संस्कार के वास्ते शुरू होती है सारी सामाजिक विकृतियाँ जिसमे भ्रस्टाचार,भ्रूण हत्या जैसी गंभीर,विध्वंशकारी एवं बहुचर्चित समस्याये भी शामिल होंती है.आंकड़ो के खेल वाली इस रहस्मयी दुनिया को अगर हम देखे और समझने की कोशिश करे की हमारे अर्थ और स्वार्थ में किस हद तक घनिष्ठता है. भारत सरकार के अनुसार एक भारतीय की औसत वार्षिक आय 60,000 रुपये है.दूसरे शब्दों में यह मतलब निकलता है की प्रत्येक भारतीय औसतन 5,000 रु प्रति माह कमा रहा है.एक मनुष्य अपने जीवन काल में २५-३० वर्ष व्यावसायिक जिंदगी व्यतीत करता है.व्यावसायिक जिंदगी से मेरा मतलब है नौकरी या स्वव्यवसाय से है. मतलब एक भारतीय अपने समस्त जीवन काल में औसत १८ लाख से १९ लाख रूपये कमाता है या कमा सकता है.परन्तु भारत में एक सुसंस्कृत सामाजिक प्राणी को इस यज्ञ सामान पवित्र प्रत्येक विवाह संस्कार के लिए आजकल के विकास एवं आधुनिकता जैसे पुलकित करने वाले शब्दों के दौर में  कम से कम ६-८ लाख रूपये खर्च का बोझ आता है. २०११ की जनगणना के अनुसार अभी भी भारत में  परिवार का औसत आकार ४-५  के करीब है मतलब बिलकुल स्पष्ट है की  प्रत्येक घर में दो सुसंस्कृत प्राणी विवाह संस्कार के लिए योग्य  और गृह प्रधान को लगभग १५-१६ लाख रुपये बचत करने की जिम्मेदारी. अब जरा सोचिये पूरी जिंदगी की कमाई १८ लाख से १९ लाख और इसमें से ही १४  लाख से १५ लाख सुसंस्कृत प्राणी को अति सुसंस्कृत करने के लिए बचत भी करनी है.ध्यान रहे इसमें अभी एक सामाजिक प्राणियो के समूह रूपी परिवार के जीवन काल  में जीविका पर होने वाले खर्चो को शामिल नहीं किया है.अगर इसको शामिल कर लिया तो बाकी के संस्कार तो दूर,मनुष्य जीवन के आखरी संस्कार के लिए भी अर्थ संचित कर के रखना  भी असंभव ज्ञात होता है. यहाँ तो एक ही बात मालूम पड़ती  है की समाज ही समाज को गलत होने को मजबूर करता है. १८ लाख से १९ लाख वाली पूरी जिंदगी की कमाई इस भाग्यशाली मनुष्य रुपी एक तन के विवाह संस्कार में ६-८ लाख खर्च के लिए बचत की चिंता तो अपरोक्ष परन्तु स्पष्ट उद्घोषणा करती है की अगर विवाह संस्कार करनी है तो भरी भरकम रकम चाहिए और वो भ्रष्ट हुए वगैर संभव नहीं है.एक पिता के लिए विवाह जो संग्राम जीत लेने जैसा गर्व की अनुभूति है के लिए शुरू होती है हमारे समाज द्वारा समर्थित भ्रष्टाचार अर्थ की और जो इसको वहन नहीं कर सकते या फिर भ्रष्टाचार की एलीट क्लब में शामिल नहीं हो पाते तो भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय एवं जघन्य आपराधिक विकल्प?? हम या हमारा १२२ करोड़ का विशालकाय समाज खुद को परिवर्तित करने के वजाय महज ७००-८०० सांसदों जिनको हमने ही चयनित किया है एवं वे इसी समाज के प्राणी है को सुधारने के लिए धरना, प्रदर्शन,आमरण अनशन इत्यादि लोकतान्त्रिक हथकंडे इख़्तियार कर रहे है जो न सिर्फ आम जन जीवन प्रभावित करता है वल्कि मुल्क के अर्थव्यवस्था पे भी बुरा असर डालता है.कभी कभी तो यूँ लगता है की हमारे देश में जितने भी लोकतान्त्रिक अधिकारों के इस्तेमाल होते है वो सिर्फ एक दुसरे को गुमराह करने के लिए होते है.सामाजिक प्राणी या समाज...सामाजिक प्राणी या समाज को ही गुमराह करता है, भ्रष्टाचार के लिए हमारे सिविल सोसाइटी/बाबाजी का अंग्रेजो  भारत छोडो  टाइप का आन्दोलन, पेट्रोल के लिए पूरा भारत बंद इस बात के ताजा एवं ज्वलंत  उदहारण है. कोई सिविल सोसाइटी,बाबाजी,सामाजिक समूह या संस्थान भ्रष्टाचार,भ्रूण हत्या  जैसी गंभीर,विध्वंशकारी समस्याओं की जननी विवाह संस्कार से जुड़े असह्या खर्च वाले मुद्दे को इतनी संजीदगी या गर्मजोशी से आंदोलित नहीं  करते या किये है जितना की कालाधन, नेताओ की इमानदारी या पेट्रोल की महंगाई जैसी प्रगतिविहीन मुद्दे को. सच कहे तो समाज ही हमें भ्रष्ट होने के लिए शिक्षित करता है  अगर ऐसा नहीं है तो समाज अब तक इन व्यवस्थाओ को सरल  बनाने का प्रयास जरूर करता.स्वस्थ समाज की जिम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है और यह सिर्फ  परिपक्व सोच से ही संभव हो सकता है नहीं तो असंतुलित लिंग अनुपात जैसे प्राकृतिक आपदा समस्त समाज को नष्ट कर सकती है. पहले हमें यह स्वीकार करनी होगी की भ्रष्टाचार हमारे देश में हरेक घर से शुरू होती तभी हम यह आंकलन कर पाएंगे की इसकी जड़े कितनी गहरी है और इसके लिए करना क्या  है?....आज के लिए बस इतना ही....भूल चूक लेनी देनी....आपका दिन सुखमय हो..:-)

Sunday, June 3, 2012

विकास के नाम पर सिर्फ बकवास ...

विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
कहते यहाँ डाल डाल पर करती सोने की चिड़िया बसेरा
वही हर महानगर में असंख्य,अनंत निराश्रयो का डेरा, कटे रैन बिन बसेरा
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
देश का धन देश में हो काला तो चांदी में चांदी की मिलावट कहें
देश का पैसा विदेश में हो तो बोलते काला धन
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
यहाँ मिड डे मिल है शिक्षा की लालच
क्या यही बच्चे है हमारे देश के भावी सूत्रधार
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
भ्रस्टIचार पे संसद करे पाँच में से तीन साल बेकार
माँनो लोकपाल कानून नहीं संजीवनी हो जनसमस्याओं का
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
यहाँ गरीब,गरीब नहीं मनोरंजन है
६५ साल में भी भोजन का नहीं अधिकार
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास
जहाँ गुटों में बंटे रहना हो जीवन का आधार
बाबा हो या नेता,बिन नेता के हम सभी ७४% शिक्षित बेकार
विकास, विकास की आस
विकास के नाम पर सिर्फ बकवास....:-)